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जरूरी है पत्रकारों की पूरी सुरक्षा

II वरुण गांधी II सांसद, भाजपा fvg001@gmail.com प्रेस की आजादी के लिए काम करनेवाली संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की साल 2017 की रिपोर्ट बताती है कि वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स में भारत तीन पायदान नीचे खिसक कर 136वें स्थान पर आ गया है. हम अपने जुझारू मीडिया को दक्षिण एशिया में सबसे स्वतंत्र मानते हैं, लेकिन […]

II वरुण गांधी II
सांसद, भाजपा
fvg001@gmail.com
प्रेस की आजादी के लिए काम करनेवाली संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की साल 2017 की रिपोर्ट बताती है कि वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स में भारत तीन पायदान नीचे खिसक कर 136वें स्थान पर आ गया है.
हम अपने जुझारू मीडिया को दक्षिण एशिया में सबसे स्वतंत्र मानते हैं, लेकिन फ्रीडम हाउस की नजर में यह हकीकत में आंशिक रूप से ही स्वतंत्र है. बीते साल भारत में 11 पत्रकारों की हत्या कर दी गयी, 46 पर हमले हुए और पत्रकारों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के 27 मामले सामने आये. इंडिया फ्रीडम रिपोर्ट के ये आंकड़े जमीनी स्तर पर रिपोर्टिंग के जोखिम को बताते हैं.
पांच सितंबर, 2016 को गौरी लंकेश की हत्या ने सिर्फ बातें बनानेवालों को नींद से जगा दिया. लंकेश की हत्या के दो दिन बाद बिहार के अरवल जिले में दो बाइक सवार हमलावरों ने राष्ट्रीय सहारा के पत्रकार पंकज मिश्रा की गोली मारकर हत्या कर दी.
पत्रकारों की सुरक्षा के लिए काम करनेवाले एक और एनजीओ कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट (सीपीजे) की साल 2016 की वैश्विक रैंकिंग के अनुसार, भारत में दंड-मुक्ति रैंकिंग (घटनाएं जिनमें पत्रकार की हत्या हुई और उसके हत्यारे पकड़ से बाहर रहे) में बीते एक दशक में सौ फीसदी का इजाफा हुआ है. वर्तमान में भारत की दंड-मुक्ति रैंकिंग 13वीं है.
प्रेस की आजादी को खतरा इसकी शुरुआत से ही रहा है. सन् 1857 की क्रांति के साथ ही लाॅर्ड केनिंग द्वारा बनाया गया गैगिंग एक्ट अस्तित्व में आया, जिसमें सरकार से लाइसेंस लेना जरूरी करते हुए प्रिंटिंग प्रेसों और उनमें छपनेवाली सामग्री को विनियमित किया गया था. इसके तहत किसी भी छपनेवाली सामग्री की इस बात के लिए जांच की जा सकती थी कि यह ब्रिटिश राज की नीतियों के खिलाफ तो नहीं है.
क्षेत्रीय भाषा के अखबारों ने जब 1876-77 के अकाल से निपटने में औपनिवेशिक सरकार की ढिलाई को लेकर खबरें प्रकाशित कीं, तो सरकार स्थानीय आलोचनाओं को कुचलने के लिए वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878 ले आयी. इस कानून के तहत बंगाल के अमर बाजार पत्रिका समेत 35 क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों पर शिकंजा कसा गया. ‘द बेंगाली’ अखबार के संपादक सुरेंद्रनाथ बनर्जी को, जो अपने उपनाम ‘राष्ट्रगुरु’ के नाम से मशहूर थे, अपने अखबार में अदालत की अवमानना की टिप्पणी प्रकाशित करने के लिए गिरफ्तार किया गया.यहां तक कि बाल गंगाधर तिलक भी दमनकारी ब्रिटिश राज के खिलाफ लिखने के लिए दो बार जेल गये.
आज छोटे शहरों में जब-तब ऐसे हमले होते रहते हैं, जिनमें पीड़ित किसी क्षेत्रीय अखबार या चैनल में बतौर फ्रीलांसर काम करनेवाला शख्स होता है, जिसके जिम्मे स्टूडियो या दफ्तर में बैठने के बजाय ज्यादातर फील्ड का काम होता है.
सीमित कानूनी संरक्षण के साथ प्रेस की आजादी का ज्यादा मतलब नहीं रह जाता. ऐसी आजादी ऑनलाइन धमकियों और मुकदमों के सामने आसानी से कमजोर पड़ सकती है. इसके साथ ही आईपीसी की धारा 124(ए) (राष्ट्रद्रोह का प्रावधान) तो है ही.
अक्सर नेताओं और नामचीन हस्तियों द्वारा मानहानि के प्रावधान का इस्तेमाल प्रेस को अपने खिलाफ टिप्पणी करने से रोकने के लिए किया जाता है. खासकर तमिलनाडु में, ऐसे तरीके बहुत ज्यादा अपनाये जाते हैं. साल 1991 से 1996 के बीच जयललिता की सेहत और राज्य सरकार की कार्रवाइयों को लेकर खबरें छापने पर उनकी सरकार द्वारा प्रकाशनों के खिलाफ मानहानि के करीब 120 मुकदमे दर्ज कराये गये.
यहां तक कि टीवी एंकर साइरस ब्रोचा को अपने मजाकिया शो में उनके जैसे कपड़े पहनने के लिए भी मुकदमे का सामना करना पड़ा. बड़े मीडिया हाउस तो ऐसे मानहानि के मुकदमों का खर्च उठा सकते हैं, लेकिन छोटे और मंझोले प्रकाशन के लिए इससे अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है.
नतीजा यह होता है कि संपादक ज्यादातर ऐसी स्टोरी छापने से परहेज करते हैं, और संरक्षण विहीन पत्रकार हतोत्साहित होता है. हमें आपराधिक मानहानि के प्रावधान को खत्म करने और हरजाना की राशि सीमित करने के लिए कदम उठाने होंगे, जिससे कि क्षेत्रीय और स्थानीय पत्रकार मानहानि के मुकदमे के भय के बिना काम कर सकें.
बोलने की आजादी, और इसका विस्तार कहे जानेवाले प्रेस की आजादी निर्बाध होनी चाहिए. लेकिन अनुच्छेद 19 की उपधारा 2 का मौजूदा संवैधानिक प्रावधान प्रेस पर प्रभावी नियंत्रण लगाता है. सरकारी गोपनीयता कानून पत्रकारों को देश की रक्षा से जुड़े मामलों की खबरें छापने से रोकता है- हालांकि इस प्रावधान के दुरुपयोग की भी पूरी संभावना है.
इसके लिए संसद इतना जरूर कर सकती है कि पत्रकारों को आपराधिक कार्रवाई से बचाने के लिए एक कानून बनाये और उन्हें राष्ट्रद्रोह कानून के दायरे से बचाये. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में एक अध्याय जोड़कर सरकारी गोपनीयता कानून के प्रावधानों का विवरण दिया जाना चाहिए. ग्रीस की संसद द्वारा दिसंबर 2015 में प्रेस कानून में दूरगामी असर वाला बदलाव बाकी देशों के लिए खाका पेश करता है.
इसमें अदालत को दोनों पक्षों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के साथ ही मानहानि के प्रभाव, प्रकृति और नुकसान की गंभीरता के अनुपात में हरजाना की राशि का निर्धारण करने की बात कही गयी है. यह एक अनिवार्य प्राथमिक प्रक्रिया द्वारा पत्रकार को अपने पहले ड्राफ्ट में की गयी किसी चूक या गलतबयानी को दुरुस्त करने का भी मौका देता है.
पत्रकारों के लिए बढ़ते खतरे से गंभीर मामलों में रिपोर्टिंग की गुणवत्ता व संख्या भी प्रभावित होगी. महत्वपूर्ण मसलों की पड़ताल में कमी आयेगी, कई मामलों में पूरी पड़ताल नहीं की जायेगी, मीडिया का नजरिया अति-राष्ट्रवादी हो जायेगा और आत्मालोचना की प्रवृत्ति घट जायेगी.
इसके लिए महत्वपूर्ण सुधार किये जाने की जरूरत है. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को एक अलग कानून (एडवोकेट्स एक्ट जैसा) बनाकर बार काउंसिल ऑफ इंडिया की तरह अधिकार संपन्न बनाये जाने की जरूरत है, जिससे पत्रकारों का दर्जा ऊंचा होगा. साथ ही इससे उन्हें अनैतिक और अव्यावसायिक तौर-तरीकों से सुरक्षा भी मिलेगी. प्रेस काउंसिल का दायरा बढ़ाकर इसके तहत इलेक्ट्रॉनिक, ब्रॉडकास्ट और न्यू मीडिया समेत सभी तरह का मीडिया लाया जाना चाहिए.
इस क्षेत्र को व्यापक स्तर पर संरक्षण देना होगा. ऐसा नहीं करने पर हम अपने लोकतंत्र के सुरक्षा उपायों को कमजोर ही करेंगे. हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपने पत्रकारों की भी पूरी सुरक्षा करें.

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