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कभी रंगकर्मियों से गुलजार रहनेवाले रंगमंच की अब सुध लेनेवाला कोई नहीं

गया संग्रहालय में बने सभागार में भी इक्का दुक्का नाटकों का हुआ है मंचन जिला प्रशासन का रंगकर्मियों के प्रति रवैया उदासीन गया : राणा जगन्नाथ सिंह (देव महाराज). रंगमंच की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए यह नाम काफी महत्व रखता है. हालांकि आज यह नाम कम लोगों के ही जेहन में है. एक […]

गया संग्रहालय में बने सभागार में भी इक्का दुक्का नाटकों का हुआ है मंचन

जिला प्रशासन का रंगकर्मियों के प्रति रवैया उदासीन
गया : राणा जगन्नाथ सिंह (देव महाराज). रंगमंच की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए यह नाम काफी महत्व रखता है. हालांकि आज यह नाम कम लोगों के ही जेहन में है. एक ऐसा नाम जिसने गया को रंगमंच से रूबरू कराया. आज जब विश्व रंगमंच दिवस है, तो इस व्यक्तित्व को याद करना जरूरी हो जाता है. असल में आज गया का रंगमंच सिर्फ किताबों व फोटो में ही जीवित रह गया है. यहां के दिग्गज कलाकार आज गुमनामी के दौर में जी रहे हैं. जो इक्का-दुक्का नाम सुर्खियों में दिखते हैं वह भी खुद के दम पर ही गया के रंगमंच को जीवित करने में लगे हैं. प्रभात खबर ने गया के रंगमंच के इतिहास को जानने की कोशिश की. उन कलाकारों से बात हुई, जिन्होंने अपनी कला से कभी ख्याति प्राप्त की थी. प्रभात खबर संवाददाता की रपट.
एक नजर रंगमंच के इतिहास पर देव महाराज ने अपने महल में एक रंगशाला का निर्माण कराया था. जहां समय-समय पर नाटकों का मंचन होता था. बिल्कुल सधे हुए डायलॉग व हाव-भाव लिये जब कलाकार मंच पर प्रस्तुति देते थे, तो हर कोई हक्का -बक्का रह जाता था. सन् 1925 में गया में रंगमंच के सबसे बड़े नामों में से एक बांके बिहारी लाल इस रंगशाला से जुड़े, तो तब वह दौर धार्मिक नाटकों के मंचन था. राजा हरिशचंद्र, भक्त सूरदास, श्रवण कुमार, मोरध्वज, सुदामा-कृष्ण, भक्त प्रह्लाद.
यह सभी नाटक शायरी, संगीत और संवाद पर आधारित थे, जिसे पर्सियन शैली भी कहा जाता है. इसके बाद ऐतिहासिक नाटकों का दौर चला, जिसमें संवाद के साथ मंच पर आगमन-प्रस्थान भी होता था. यह नाटक संगीत पर आधारित नहीं होते थे. इसके बाद 1940 में आनंद क्लब ने रंगमंच की दुनिया को आगे बढ़ाया. इस क्लब द्वारा मंजिल चाणक्य, राजमुकुट, जय शिवाजी, रक्षा बंधन, सिराजुद्वौला, मीर कासिम, हमारा गांव, जालियां वाला बाग, भरत मिलाप जैसे नाटकों का मंचन किया.
हालांकि यह क्लब दो कलाकारों की आपसी खींचतान में बंट गया. यही क्लब मगध कलाकार परिषद व ऑफिसर्स मिनिस्ट्रियल के नाम से सामने आया. मगध कलाकार परिषद एस विष्णुदेव बाबू के निर्देशन में चला और अॉफिसर्स क्लब बिंदेश्वरी सिंह के निर्देशन में. एडीएम रास बिहारी लाल लिखित नाटक ‘जय ‘ ने उस दौर में खूब चर्चा बटोरी थी. वर्ष 1953 में जयशंकर प्रसाद लिखित नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ का मंचन हुआ था. गंगा महल के मैदान में इस नाटक को देखने पूरे देश से 10 हजार से ज्यादा लोग आये थे.
इसमें महाराज कैप्टन गोपाल नारायण सिंह ने बहुत सक्रियता से भाग लिया था. इस नाटक के कलाकारों में बांके बिहारी लाल, विष्णुदेव सिंह, शांति बनर्जी, लखन नटराज, प्राे.श्याम सुंदर श्याम, बद्री विशाल, रेवती रमण अग्रवाल, गुलाब खंडेलवाल, गंगा प्रसाद वर्मा और वासुदेव नारायण सिंह. इस नाटक की ख्याति उस वक्त इतनी थी कि भारतीय सिनेमा के महान कलाकार पृथ्वीराज कपूर ने अपनी पीड़ा एक पत्र के माध्यम से व्यक्त करते हुए कहा था कि वह इस नाटक का मंचन होते नहीं देख सके हैं. इसके बाद गया के रंगमंच का यह दौर सन 1980 तक चला.
लाखों रुपये का सभागार, लेकिन मंचन के नाम पर इक्का-दुक्का नाम ही गया संग्रहालय में लाखों रुपये का बना सभागार भी गया के मौजूदा रंगमंच को खुद से नहीं जोड़ सका है. इस सभागार के नाम एक से दो नाटकों का मंचन ही है. यहां काफी साल से कोई नाटक व कार्यक्रम का आयोजन नहीं हुआ है. वर्तमान में इस सभागार में मरम्मत का काम चल रहा है. इस सभागार को लेकर विभाग व जिला प्रशासन उदासीन रवैया रखे हुए हैं. जिला प्रशासन भी रंगमंच को लेकर लोकल कलाकारों को बहुत ज्यादा तवज्जो देता नहीं दिखता है. गया में जो भी रंगमंच होता है, लेकिन वह कलाकारों के खुद के पहल पर ही जीवित है.
चौक व चौराहों पर होता था नुक्कड़ नाटक
80-90 के दशक में सेवादल मोड़, चांदचौरा, कोयरीबारी मोड़, नयी गोदाम, माड़नपुर मोड़, डेल्हा आदि स्थानों पर नाट्य प्रदर्शन व नौटंकी का मंचन होता था. उस दौर में रंजीत नारायण सिंह के निर्देशन में कलाकार संघ, बृज किशोर जी, स्व. कृष्ण मुरारी मिश्रा, गोपाल कश्यप, महिधर झा, रामस्वरूप विद्यार्थी, शंभु सुमन आदि लोग सक्रिय हुए. इस दौर में सामाजिक बदलावों को लेते हुए कई चर्चित नाटकों का मंचन हुआ था.
रेनेसांस ने रंगमंच को दी नयी जान
सन् 2005 के बाद गया के रंगमंच को रेनेसांस ने एक नयी पहचान दी. देश के जाने-माने साहित्यकारों में से एक संजय सहाय ने एपी कॉलोनी में रेनेसांस की शुरुआत की. जहां देश व दुनिया के कई दिग्गज कलाकारों ने शानदार नाटकाें का मंचन किया. रेनेसांस के कारण गया की पहचान सांस्कृतिक गलियारे में काफी हुई. प्रशासन से लेकर कई संगठनों का यहां पर समय-समय पर कार्यक्रम होता रहता है.
इन कलाकारों ने गया को दी पहचान
गया के रंगमंच को पहचान देनेवाले कलाकारों में एसएम गुर्जर, महिधर झा महिपाल, शिव कुमार सिंह, शिव कुमार गुप्ता, सुजीत चटर्जी, पद्मा मिश्रा, इश्वरी प्रसाद, सच्चिदानंद, वीरेंद्र सिन्हा, पप्पू तरुण, नीरज, शबनम अस्थाना आदि ने अपनी कलाओं से न सिर्फ कई पुरस्कार जीते, बल्कि रंगमंच की दुनिया में गया का नाम काफी ऊपर किया. आज यह सभी कलाकार भले ही रंगमंच से दूर हो चुके हैं, लेकिन समय-समय पर किसी-न-किसी कार्यक्रम में इनकी भागीदारी दिख जाती है.
समर्पण के बजाय पैसा कमाने की चिंता
1974 के जेपी आंदोलन के समय से रंगमंच से जुड़ा. मगही व बांग्ला में मैंने कई नाटकों में भाग लिया. मगही भाषा में किये नाटक, जिसमें हरिहर ठूठ, इ मिट्टी हमर है, जनता पागल हो गयी जैसे नाटकों से खूब पहचान मिली. तब सुविधा तो नहीं थी, लेकिन कलाकारों में समर्पण की भावना हुआ करती थी. आज हालात ठीक उलट गये हैं, आज सुविधा तो खूब है, लेकिन कलाकारों पर समर्पण से ज्यादा पैसा कमाने की चिंता हावी है.
स्वरूप विद्यार्थी, रंगकर्मी
पहले रंगमंच को मिलता था सपोर्ट
पहले रंगमंच को काफी सपोर्ट मिलता था. शिक्षा-दीक्षा भी ऐसी हुआ करती थी कि उसका नाटकों पर खूब असर दिखता था. पहले कलाकारों के अंदर सामाजिक परिवर्तन की जो आग धधकती थी, वह बहुत खूबसूरत तरीके से नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता था. रंगमंच को बढ़ावा देने के लिए कई लोग थे, आज तो सरकार ने ही रंगमंच की हालत पतली कर दी है. इसके अलावा उस वक्त कलाकार पैसे की संकट के कारण भी रंगमंच की ओर मुड़ते थे.
ईश्वरी प्रसाद, रंगकर्मी
अब रंगकर्मियों को कोई नहीं पूछता
आज रंग कर्मियों की स्थिति बहुत खराब है. कोई उनके बारे में पूछता तक नहीं है. मैंने कला-ज्योति के माध्यम से गया में रंगमंच को नयी पहचान देने की कोशिश की है. लेकिन प्रशासनिक सहयोग नहीं मिलने के कारण इस क्षेत्र में वह सफलता गया में नहीं मिली है. शुक्र गुलजार जैसे कार्यक्रम यहां शुरू हुए थे, लेकिन कई कलाकारों का पेमेंट ही आज तक बकाया है. केंद्र व राज्य सरकार रंगकर्मियों को लेकर बहुत गंभीर नहीं है.
शंभु सुमन, रंगकर्मी
स्थानीय कलाकारों को मिले महत्व
मेरे निर्देशन में कई ऐसे नाटक बने हैं, जिसने खूब ख्याति पायी है. इनमें मशीन, दीवारें तोड़ दो, जंगीराम की हवेली, कैसी जनता आदि कुछ नाम हैं. आज रंगमंच को जिंदा रखने में प्रशासनिक स्तर पर कोई पहल नहीं दिखती है. यहां बड़े बड़े आयोजन होते हैं, जिसमें बाहर से नाटक की मंडली बुलायी जाती है, लेकिन लोकल कलाकारों को प्रशासन बहुत पूछता नहीं है. इसे दूर किया जाना चाहिए. तभी यहां रंगमंच अपने पुराने स्वरूप में लौट सकेगा.
पप्पू तरुण, रंगकर्मी

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