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साझा पड़ोस व भारत-चीन मैत्री मैच

II मृणाल पांडे II वरिष्ठ पत्रकार mrinal.pande@gmail.com साल 2014 में सार्क शिखर नेताओं की मौजूदगी में सत्ता संभालती नयी सरकार की तरफ से विदेश नीति पर पहला संकेत यह आया था कि भारत पड़ोसी देशों से दोस्ती बढ़ाने को प्राथमिकता देगा. इसके बाद प्रधानमंत्री ने पड़ोसी देशों (मालदीव को छोड़कर) की सौहार्द यात्राएं कीं. पर […]

II मृणाल पांडे II
वरिष्ठ पत्रकार
mrinal.pande@gmail.com
साल 2014 में सार्क शिखर नेताओं की मौजूदगी में सत्ता संभालती नयी सरकार की तरफ से विदेश नीति पर पहला संकेत यह आया था कि भारत पड़ोसी देशों से दोस्ती बढ़ाने को प्राथमिकता देगा. इसके बाद प्रधानमंत्री ने पड़ोसी देशों (मालदीव को छोड़कर) की सौहार्द यात्राएं कीं.
पर ताजा घटनाएं इंगित करती हैं कि फिलवक्त हमारे पड़ोसी- मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा श्रीलंका- भारत की तुलना में चीन के अधिक करीबी बन चले हैं.
ऐसा क्यों? इसका पहला ईमानदार जवाब तो यह है कि उन्हें चीन अपनी आर्थिक और सामरिक ताकत में भारत पर भारी पड़ता नजर आ रहा है. हमसे उनके ऐतिहासिक रिश्ते चाहे जो रहे हों, उन्हें चीन से निकटता साधना ही अपने देशहित में ज्यादा रास आ रहा है.
जानकारों की यह भी राय है कि चीन में राष्ट्रपति के कार्यकाल को असीमित करने के निर्णय से अब चीनी शासन पूरी तरह एकछत्र चालकानुवर्ती बन गया है. और, इससे आनेवाले समय में एकाधिकारवादी चीन की एशिया में उपस्थिति को खुलकर और एक हद तक दबंगई से दर्ज कराने की कामना को काफी बल मिलेगा.
गौरतलब है कि पिछले कुछ दशकों में योजनाबद्ध तरीके से मालदार (हमसे पांच गुणा बड़ी अर्थव्यवस्था वाले) चीन ने इन देशों में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश किया है और बंदरगाह, सड़क, हवाई अड्डे सरीखे महत्वपूर्ण निर्माण किया है.
स्थानीय सरकार के लिए आर्थिक तौर से यह कार्य हितकारी होने के साथ भविष्य में दुनिया में चीनी व्यापारिक और सामरिक हितों के प्रसार में भी मददगार होंगे. योजनाबद्ध चीनी विदेश नीति के पीछे उसकी प्रसारवादी मानसिकता और महान हान साम्राज्य की जातीय स्मृतियों का इतिहास भी है.
एक पूर्व भारतीय राजनयिक ने एक चर्चा के दौरान बताया कि चीन ‘1950 के दशक से ही अपनी स्कूली किताबों के नक्शों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, बंगाल तथा पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ कश्मीर के हुंजा तथा गिलगित इलाकों को भी अपने प्रभाव क्षेत्र के रूप में दिखाता रहा है. हालांकि, पारंपरिक तौर से भारत अपनी सीमा को सामरिक तौर से सुरक्षित तो रखता रहा है, किंतु बिना इकतरफा आक्रामकता के.
यही वजह थी कि 1962 में चीनी हमले के समय हम बगलें झांकते नजर आये. इधर दलाई लामा की दो-दो जनसभाओं का रद्द किया जाना तथा डोकलाम और मालदीव मामलों में विदेश विभाग की तरफ से नरमी बरतने के जो संकेत आये हैं, वे सब कुल मिलाकर चीन के प्रति किसी तरह के आक्रामक रुख अपनाने को खारिज करते दिख रहे हैं. आम मुहावरे में कहें, तो जबर्दस्त का ठेंगा सर पर!
चीन और भारत दोनों ही देशों ने विगत में उपनिवेशवादी शासन झेला है, जिसे दोनों के नेतृत्व ने 20वीं सदी में उतार फेंका और अपने लिए बहुलतावादी स्वराज का मॉडल गढ़ा.
लेकिन, नेतृत्व के आधार पर भारत का जो लोकतांत्रिक मॉडल बना, वह चीन के माओ निर्मित पार्टी काडर और कठोर अनुशासन से हांके जानेवाले मॉडल से काफी हद तक भिन्न रहा है. भारत ने बंटवारे के कारण आजादी के साथ अपना विखंडन भोगा, लेकिन फिर भी वह सर्वधर्मसमभाव का पक्षधर और बहुभाषा-भाषी बना रहा.
चीन नहीं. चीन ने प्रसारवाद का समर्थन किया और धार्मिक भाषाई विविधता को त्याग कर मैंडेरिन को राजकीय राष्ट्रीय भाषा बनाया. इसी के साथ माओ ने पुराने चीनी साम्राज्य से छिटक गये देशों को दोबारा लेने की प्रक्रिया भी तेजी से चालू की, जिसमें कामयाबी मिली. तिब्बत से दलाईलामा को बेदखल कर चीन का हिस्सा बना लेना और मैकमोहन रेखा को अमान्य कहकर भारत की दहलीज तक पैर फैलाना उसी उद्दाम सामरिक हवस और प्रसारवाद का प्रतीक है, जिसके फलादेशों की बाबत पटेल ने 1950 में नेहरू को अपने पत्र से आगाह किया भी था कि जल्द ही उलटा चोर कोतवाल को डांटे की स्थिति बन जायेगी. साठ के दशक के पहले ही चीन प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने और कश्मीर को हड़पने तथा दलाई लामा को धार्मिक नेता के रूप में शरण देने के भारत पर आक्षेप लगाना शुरू कर दिया था.
इस आक्रामकता का खुला रूप भारत-चीन युद्ध के रूप में साल 1962 तक सामने आ गया, जब चीन ने भारत पर सामरिक रूप से खुद को बीस साबित कर दुनिया से भी जबरन हड़पे तिब्बत को अपना इलाका मनवा लिया.
यह सही है कि भारत की विशालता एशिया में अनदेखी नहीं की जा सकती है, लेकिन इसी उपस्थिति की वजह से भारत (अक्सर उथल-पुथल से गुजरते) छोटे पड़ोसी देशों में एक तरह का असुरक्षा बोध भी पैदा करता रहता है.
उनके नेताओं को लगता है कि कमजोर क्षणों में मददगार महादेश भारत कहीं बाद में उनके विपक्षी की मदद से तख्तापलट तो नहीं करवा देगा? इसका फायदा पड़ोसी चीन को सहज ही मिलता है. यही वजह है कि जब चीन ने मालदीव के लिए अपनी भारी थैली खोल दी, तो उसने बिना बताये भारत के पूर्व प्रस्तावित हवाई अड्डे का ठेका रद्द कर चीन को सौंप दिया.
नेपाल में वाम दल और श्रीलंका में सिंहल बनाम तमिल की राजनीति साधते राजपक्षे, दोनों घरेलू वजहों से भारत से सशंक रहते हैं. यह भांपकर नेपाल के वाम दल तथा राजपक्षे परिवार के गैर-सरकारी संगठन को राजनय के शातिर खिलाड़ी चीन द्वारा आर्थिक तौर से लगातार उपकृत किया गया है. इस रवैये ने चीन और उनके बीच नजदीकियां काफी बढ़ा दी हैं.
यह सही है कि राजनय दो गरारियों- तात्कालिक और दीर्घकालिक- पर चलता है. दीर्घकालिक दृष्टि से तो (पाकिस्तान को छोड़कर) कोई पड़ोसी देश भारत से खुलकर रार नहीं ठानेगा, न ही उससे किसी तरह का अप्रिय टकराव न्योतेगा. भारत की नर्मदिली के चलते चीन भी कश्मीर मोर्चे पर या अन्यत्र भारत के खिलाफ खुले युद्ध में नहीं कूदेगा. लेकिन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कभी नर्म, तो कभी गर्म दिखना जरूरी है.
सिर्फ कीमती तोहफे देकर, चाय पिलाकर या उत्तुंग राष्ट्रवाद का विषय बनाकर सफल कूटनीति नहीं रची जा सकती है. समसामयिक दौर में भारत का राष्ट्रवादी उफान नहीं, भू-राजनय के तमाम अन्य तत्व भी चीन बनाम भारत के रिश्तों में पड़ोसियों से भारत की मैत्री और तटस्थता का प्रतिशत तय करेंगे.
राजनीति संभव को पाने की कला होती है, असंभव के पीछे सिर फोड़वाने की नहीं. बहुत हिंदू राष्ट्र-हिंदू राष्ट्र करने से दुश्मनों को पड़ोसी देशों में यह गलत धारणा पक्की करना आसान होगा कि मुस्लिम देशों का भारत के साथ अच्छी दोस्ती निभाना कठिन है.

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