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श्रेष्ठता के नाम पर दुर्दशा

देवभाषा संस्कृत को पुनर्जीवित करने का प्रयास कई संस्थाओं और बुद्धिजीवियों द्वारा किया जा रहा है, लेकिन जिन कारणों से संस्कृत की दुर्दशा हुई, वह अब भी मौजूद हैं. संस्कृत को सभ्यता और संस्कृति का वाहक माना जाता है लेकिन संस्कृत के जानकारों और तथाकथित विद्वानों ने तो इसका परिचय बिलकुल ही नहीं दिया. वे […]

देवभाषा संस्कृत को पुनर्जीवित करने का प्रयास कई संस्थाओं और बुद्धिजीवियों द्वारा किया जा रहा है, लेकिन जिन कारणों से संस्कृत की दुर्दशा हुई, वह अब भी मौजूद हैं.
संस्कृत को सभ्यता और संस्कृति का वाहक माना जाता है लेकिन संस्कृत के जानकारों और तथाकथित विद्वानों ने तो इसका परिचय बिलकुल ही नहीं दिया. वे हमेशा उग्रभाषावाद से पीड़ित रहे और आज भी हैं. विश्व की अन्य भाषाओं और संस्कृतियों के प्रति हमारे संस्कृत के विद्वानों में आज भी कोई सम्मान का भाव नहीं है. बहिष्कृत करते-करते हम खुद ही बहिष्कृत हो गये.
दूसरों को सम्मान दिये बगैर हम खुद भी सम्मान नहीं पा सकते. हर एक परिवर्तन को विनाश का सूचक मानकर हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते. यदि संस्कृत को देवभाषा के रूप में पुनर्स्थापित करना है तो उग्र भाषावाद से बचने की जरूरत है.
दिलीप कुमार मिश्रा, इमेल से

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