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इसे संगीत कहें या शोर?

हमारी प्राचीन लोककलाएं आज मात्र पर्व-त्योहारों पर झांकी-प्रदर्शनी या विशेष सांस्कृतिक महोत्सवों में शोर-शराबे तक सीमित रह गयी है.आज जगह-जगह पूजा पंडाल तो बनते हैं, पर तीन-चार दिनों तक भड़काऊ और अश्लील गीतों पर ठुमके लगाने के लिए. शादी-ब्याह और पर्व-त्योहारों में संगीत का माहौल आज शोर में बदल गया है. शोर-शराबे से भरा माहौल […]

हमारी प्राचीन लोककलाएं आज मात्र पर्व-त्योहारों पर झांकी-प्रदर्शनी या विशेष सांस्कृतिक महोत्सवों में शोर-शराबे तक सीमित रह गयी है.आज जगह-जगह पूजा पंडाल तो बनते हैं, पर तीन-चार दिनों तक भड़काऊ और अश्लील गीतों पर ठुमके लगाने के लिए. शादी-ब्याह और पर्व-त्योहारों में संगीत का माहौल आज शोर में बदल गया है. शोर-शराबे से भरा माहौल समाज पर इस कदर हावी हो गया है कि आम आदमी इस शोरगुल से परेशान होने लगे हैं.

एक दिन के पर्व के अवसर पर चार-पांच दिनों तक लाउडस्पीकर का प्रचलन हो गया है. इस शोर से जहां बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है. यूं मानें तो हुड़दंगबाजों से परेशान हैं. प्रशासन से हमारा निवेदन है कि देर रात तक लाउडस्पीकर बजाने की आदत को नियंत्रित करने की कोशिश करें.

माणिक मुखर्जी, कांड्रा

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