क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
हाल ही में कम दिनों के अंतराल में दो निकट परिजनों की मृत्यु हो गयी. हालांकि दोनों ने लंबी उम्र पायी, मगर अपने परिजनों का किसी भी उम्र में जाना अच्छा नहीं लगता. इसलिए परिवार के लोगों के लिए यह बेहद दुख का अवसर था, लेकिन ऐसे समय बहुत से लोग हाजिरी का रजिस्टर लेकर भी बैठे हुए थे. कौन आया, कौन नहीं आया, क्यों नहीं आया.
फोन और मैसेज तक नहीं किया. आखिर क्या बात हुई. हम तो उसके हर सुख-दुख पर पहुंचे और उसने पूछने की जरूरत तक नहीं समझी. इस तरह बार-बार हिसाब लगाया जाता रहा कि अमुक तो बिना बताये ही आ पहुंचा और अमुक को सब मालूम था फिर भी आना तो दूर, हाल पूछने के लिए उसने एक फोन तक नहीं किया.
इसके अलावा आजकल मृत्यु से जुड़े संस्कार भी सादगी से जुड़े नहीं रहे. मृत्यु भी अब समाज में अपनी हैसियत और पैसे को दिखाने का बेहतरीन मौका बन चुकी है.
सफेद कपड़े पहनने का ड्रेस कोड फिल्मी लोगों की तरह टीवी-सिनेमा में देख-देखकर तय कर लिया गया है. खान-पान में भी जिसकी जैसी हैसियत उतने ही व्यंजन. कुछ समय पहले तक स्मृति या शोक सभाओं में खान-पान की चीजों के रूप में मात्र पानी और चाय ही पिलायी जाती थी. बहुत से लोग शोक के अवसर पर इन्हें भी पीना पसंद नहीं करते थे.
लेकिन अब पूरी-पकवान, मिठाइयों से लेकर बेहतरीन पेय भी उपलब्ध रहते हैं. शोक सभा किस जगह हुई इसे देखकर भी आपकी हैसियत जांची जाती है. आपकी जेब के माल की नाप-जोख होती है. कई बार तो ऐसी भव्यता होती है कि लगता है कि मृत्यु शोक नहीं, बल्कि कोई आनंद का उत्सव हो. पल-पल पर दोहराया जाता है कि हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश आदि तो विधि के हाथ में है. यह कहते हुए भी आदमी अपना रुतबा दिखाने से नहीं चूकता.
उत्तर भारत के तेरह दिन तक चलनेवाले शोक में कर्मकांड भी बहुतायत में दिखायी देते हैं.इस बात का जिक्र भी अक्सर होता है कि जिसकी मृत्यु हुई, वह इतना महापुरुष था कि उसने जीवन-मरण के चक्र को तोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लिया होगा. यह चर्चा भी कि आत्मा तो अमर है, वह न मरती है, न जन्म लेती है. रातभर जलते दीपक पर तवा टिकाकर, काजल बनाकर उस पर बनी किसी आकृति को देखकर यह देखने की भी कोशिश की जाती है कि मरनेवाले ने किस योनि में जन्म लिया होगा, कहां गया होगा. बहुत सी विरोधी बातें एक साथ चलती रहती हैं.
बहुत से लोग प्लेनचेट आदि पर आत्मा बुलाकर उससे बात करने को भी उत्सुक दिखते हैं.मृत्यु के वक्त इन दिनों रोते भी कम लोग दिखते हैं. आंसू बहाना मतलब कमजोर दिखना. दुनिया में इन दिनों सब शक्ति संपन्न दिखना चाहते हैं, कमजोर नहीं. क्योंकि कमजोर की समाज में कोई पूछ नहीं होती. इसलिए अवसर चाहे शोक का हो, आंसुओं पर पाबंदी रहती है. जबकि, आंसू हमारे मन की कोमलतम भावनाओं की पुकार और अभिव्यक्ति होते हैं.