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केबुल कंपनी खुलने पर लगा ग्रहण

जमशेदपुर : पिछले 18 वर्षों से बंद पड़ी शहर की केबुल कंपनी (असली नाम इंकैब इंडस्ट्रीज) खुलने पर एक बार फिर ग्रहण लग गया है. सुप्रीम कोर्ट से लेकर बायफर तक टाटा स्टील को एक मात्र बिडर मानने के बाद केंद्र सरकार ने बायफर व आयफर को भंग कर नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल (एनसीएलटी) का […]

जमशेदपुर : पिछले 18 वर्षों से बंद पड़ी शहर की केबुल कंपनी (असली नाम इंकैब इंडस्ट्रीज) खुलने पर एक बार फिर ग्रहण लग गया है.
सुप्रीम कोर्ट से लेकर बायफर तक टाटा स्टील को एक मात्र बिडर मानने के बाद केंद्र सरकार ने बायफर व आयफर को भंग कर नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल (एनसीएलटी) का गठन कर दिया. एनसीएलटी ही अब बंद पड़ी कंपनियों के मसले की सुनवाई करेगा. एनसीएलटी का गठन हुए करीब एक साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका, लेकिन अब तक किसी ने इसे चालू कराने के लिए याचिका दायर नहीं की है. यह भी तय नहीं हो पाया है कि कंपनी चालू करने के लिए एनसीएलटी में कौन आवेदन करेगा.
एनसीएलटी में याचिका दायर करने का पेंच
एनसीएलटी के नये नियम के तहत जो कंपनी का प्रोपराइटर या मैनेजिंग हेड होगा, वही इसका आवेदन दे सकता है. अभी टाटा स्टील कंपनी एक मात्र बिडर थी, वह प्रोपराइटर या मैनेजिंग हेड नहीं बन पायी थी. केबुल कंपनी की अंतरिम मैनेजिंग कमेटी भी भंग हो चुकी है. ऐसे में केबुल कंपनी का असली मालिक कौन है यह तय करना मुश्किल हो रहा है.
कंपनी के मौजूदा दस्तावेजों के मुताबिक, केबुल कंपनी 1920 में स्थापित हुई थी. ब्रिटिश कैलेंडर केबुल के नाम से यह कंपनी थी. 1988 में इसका नाम इंकैब इंडस्ट्रीज लिमिटेड हो गया. कंपनी का 26 फीसदी शेयर काशीनाथ तापुरिया ने खरीदा. इसके बाद पूरा प्रबंधन उनके हाथ में आ गया. करीब तीन साल तक उन्होंने कंपनी चलायी.
1991-92 में कंपनी के आर्थिक हालात काफी कमजोर हो गये. इस साल घाटा दिखाया गया, लेकिन इससे पहले यह कंपनी न्यूनतम दो करोड़ रुपये की आमदनी करती रही. इसके बाद काशीनाथ तापुरिया ने हाथ खींच लिया. 1996-97 में केबुल कंपनी को मलेशियाई कंपनी लीडर यूनिवर्सल ने अधिग्रहण कर लिया. वाइस चेयरमैन पीके सर्राफ की देखरेख में उत्पादन शुरू हुआ. वर्ष 1999 में उन्होंने अपना इस्तीफा सौंपा.
इसके बाद मलेशियाई कंपनी ने भी हाथ खींच लिया. फिर पी घोष होलटाइम डायरेक्टर बने. 1999 के दिसंबर में कंपनी का कामकाज पूरा ठप हो गया. तब से लेकर आज तक कंपनी बंद है. ऐसे में यह माना जाता है कि मलेशियाई कंपनी और उसके प्रबंधन के अधिकारियों को ही यह अधिकार है कि एनसीएलटी में याचिका दायर करेंगे. हालांकि, कोलकाता में कंपनी के कई अधिकारी अब भी बैठते हैं, लेकिन वे लोग एनसीएलटी में याचिका दायर नहीं कर रहे हैं.

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