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गरमी के आगमन के पकवान

इंडियनस्वाद पहले के जमाने में देश के विभिन्न प्रांतों में फाल्गुन-वैशाख में ऐसे व्यंजन खाये जाते थे, जो लू वाली गरमी के आगमन के पहले बेफिक्र हो खाये-पचाये जा सकते हैं. अब कुछ ही दिन-सप्ताह में गरमी की शिद्दत बढ़नेवाली है. मौसम के बदलते मिजाज के साथ खान-पान में बदलाव के बारे में विस्तार से […]

इंडियनस्वाद

पहले के जमाने में देश के विभिन्न प्रांतों में फाल्गुन-वैशाख में ऐसे व्यंजन खाये जाते थे, जो लू वाली गरमी के आगमन के पहले बेफिक्र हो खाये-पचाये जा सकते हैं. अब कुछ ही दिन-सप्ताह में गरमी की शिद्दत बढ़नेवाली है. मौसम के बदलते मिजाज के साथ खान-पान में बदलाव के बारे में विस्तार से बता रहे हैं भारतीय व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत…
भारत के सभी हिस्सों में ऋतुचक्र समान नहीं चलता, तब भी खाते-पीते वक्त मौसम का ध्यान रखे जाने की परंपरा है.
रोचक तथ्य
अवध वाले इलाके में इस मौसम में घर से बाहे सैर-सपाटे पर निकल खुले में खाने का आनंद कुछ समय पहले तक लिया जाता था.
बावली हांडी में गोश्त की मात्रा कम होने लगती थी और इनकी जगह शलगम, तोरी, गोभी, आलू और गाजर जैसी सब्जियां लेने लगती थीं.
कढ़ी के भी कई प्रकार थे- कुछ में पकौड़ियां डाली जाती थीं, तो कुछ में सब्जियां.
ज्यादातर लोगों को यह गलतफहमी है कि भारत में सलाद नहीं खाया जाता था.
ऐसा माना जाता है कि हमें बदलते मौसम के अनुसार खान-पान करना चाहिए. यह न केवल हमारी सेहत के लिए फायदेमंद है, बल्कि जो कुछ हम खाते हैं, उसका रस भी ज्यादा अच्छी तरह ले सकते हैं. आयुर्वेद के अनुसार कुछ ऋतुएं हमारी ऊर्जा सोख लेती हैं और दूसरी पुष्टवर्धक होती हैं. पहली श्रेणी में ग्रीष्म और दूसरी में शिशिर को रखा जाता है.
वसंत और शरद ऋतुएं खाने-पीने के सुख को अनायास बढ़ानेवाली मानी जाती हैं. भारत के सभी हिस्सों में ऋतुचक्र समान नहीं चलता, तब भी खाते-पीते वक्त मौसम का ध्यान रखे जाने की परंपरा है. मसलन, वर्षा ऋतु में पेट खराब होने की संभावना अधिक रहती है, इसलिए पकौड़ी जैसे तले व्यंजन खाने का चलन तेज आंच पर खौलते तेल में खाद्य पदार्थों में विषाणुओं के खतरे से मुक्त होने के लिए लोकप्रिय बना.
जिस तरह संगीत में संधिप्रकाश राग होते हैं, वैसे ही देश के विभिन्न प्रांतों में फाल्गुन-वैशाख में ऐसे व्यंजन खाये जाते थे, जो लू वाली गरमी के आगमन के पहले बेफिक्र हो खाये-पचाये जा सकते हैं. अवध वाले इलाके में इस मौसम में घर से बाहे सैर-सपाटे पर निकल खुले में खाने का आनंद कुछ समय पहले तक लिया जाता था- जब तक इतनी आपा-धापी न थी.
‘बावली हांडी’ में गोश्त की मात्रा कम होने लगती थी और इनकी जगह शलगम, तोरी, गोभी, आलू और गाजर जैसी सब्जियां लेने लगती थीं. जाड़ों वाला गाढ़ा शोरबा पतली तरी की शक्ल लेने लगता था और मसाले हल्केपन की तरफ जाने लगते थे.
गरिष्ठ कोरमों की बजाय सालन और कलिए नजर आने लगते. पुलाव की बनिस्बत तहरी या कबूली जैसे शाकाहारी चावल पकाये जाते थे. दालों में भी सुपाच्य मूंग, मलका-मसूर याद आने लगती थीं. कढ़ी के भी कई प्रकार थे- कुछ में पकौड़ियां डाली जाती थीं, तो कुछ में सब्जियां. शरबत या शिकंजी की तलब अभी नहीं महसूस होती थी, पर तड़के वाली छांछ तथा पतली लस्सी गले को तर करती थी.
यहां शायद यह याद दिलाने की जरूरत है कि बावली हांडी का नामकरण किसी ‘दीवानेपन’ के आधार पर नहीं किया गया था. आज जब किसी रेस्त्रां में ‘मिक्स्ड वैजिटेबुल’ के जरा हटकर नमूने को पेश किया जाता है, तो इसे दीवानी हांडी भी पुकारा जाने लगा है. इससे बेहतर तो लखनवी अंदाज में सब्ज मिलौनी कहना ही लगता है. खान-पान के जानकार इतिहासकारों का कहना है कि वास्तव में इसे पहले पहल शौकीन नवाब वाजिद अली शाह की फरमाइश पर एक बावड़ी में पकाया गया था, जहां की सुखद ठंडक में वह पूरा दिन बिताना बहुत पसंद करते थे.
ज्यादातर लोगों को यह गलतफहमी है कि भारत में सलाद नहीं खाया जाता था.
इसका चलन फिरंगियों की देखादेखी ही बढ़ा है. वैसे भी सलाद के नाम पर खीरा, टमाटर, गाजर और मूली ही पर्याप्त समझे जाते हैं. यदि आप बदलते मौसम के अनुसार खानेवाले हैं, तो तरह-तरह के रायतों, कचुंबरों, पचड़ियों के रहते कभी सलाद की कमी खल ही नहीं सकती. वाजिद अली शाह के ही दस्तरखान में एक चटनी का नाम था ‘चटनी राहत जान’. त्रिविध तापों से त्राण दिलानेवाली इस चटनी की असाधारण क्षमता की दावेदारी की जाती है. हालांकि, इसका नुस्खा अब किसी के पास नहीं!
पुष्पेश पंत

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