त्रिपुरा के पिछले विधानसभा में करीब डेढ़ फीसदी वोट और शून्य सीटें पानेवाली भाजपा ने गठबंधन के साथ 50 फीसदी से अधिक वोट और प्रचंड बहुमत के साथ वाम मोर्चे के 25 साल से निरंतर चले आ रहे शासन को अपदस्थ कर दिया है. नागालैंड में भाजपा गठबंधन सत्तासीन होने जा रहा है और मेघालय में भी उसकी एक भूमिका होने की संभावना है. तीन राज्यों के जनादेश पर विश्लेषण के साथ आज की यह विशेष प्रस्तुति…
पूर्वोत्तर भारत का राजनीतिक मानचित्र फिलहाल बदल गया है. नक्शे में बदलाव ईवीएम की कृपा से आया है या मतदाताओं की वजह से, इस बारे में तो कहना मुश्किल है, मगर इतना साफ है कि बीजेपी इस परिवर्तन के केंद्र में है. उसने अपने विजयी अभियान को जारी रखते हुए स्थापित दलों को हाशिये पर धकेल दिया है. हालांकि, एक असम को छोड़ दें,
तो ज्यादातर राज्यों में उसका कोई जनाधार नहीं है और वह दूसरे दलों या उनसे आये नेताओ के कंधों पर चढ़कर ही ऊपरी पायदान पर पहुंची है. इसके लिए उसे जो छल-छद्म करने पड़े हैं, उनकी तो बात ही अलग है. लेकिन, आज की तारीख में तो वह ताकतवर दिख रही है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.
यह तो साफ है कि पांच साल पहले बहुत कम जगहों पर नजर आनेवाली बीजेपी ने लगभग सभी राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी है. मेघालय और मिजोरम को छोड़ सभी राज्यों में वह या तो सत्ता पर काबिज हो चुकी है या होने जा रही है. मेघालय में त्रिशंकु विधानसभा दिख रही है और जाहिर है कि पिछड़ने के बावजूद यहां भी उसकी संभावनाएं खत्म नहीं हुई हैं. सत्ता के लिए कुछ भी करने पर आमादा बीजेपी यहां भी जोड़-तोड़ करके कांग्रेस के बजाय खुद सरकार बना ले, तो कोई हैरत नहीं होगी.
यदि वह इसमें कामयाब होती है, तो कांग्रेस मुक्त पूर्वोत्तर की उसकी घोषणा पूरी तरह से सफल साबित हो जायेगी. रही बात नागालैंड की, तो वहां बीजेपी का गठबंधन बारीक बहुमत से ही सही सत्ता के करीब पहुंच गया है और यह भी उसके लिए मामूली उपलब्धि नहीं है. हालांकि, कांग्रेस अपने खराब प्रदर्शन के लिए खुद ही जिम्मेदार है. अपनी लापरवाही के चलते वह सभी सीटों पर उम्मीदवार तक खड़ा नहीं कर सकी थी.
बीजेपी की सबसे बड़ी जीत त्रिपुरा की है, जहां वह दो-तिहाई बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज होने जा रही है. बीजेपी ने सीपीएम को हटाने के लिए पूरा जोर लगा दिया था. वह केरल का बदला त्रिपुरा में लेने की बात कर रही थी और इसमें उसे सफलता भी मिल गयी है. पिछले 25 साल से चले आ रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन का अंत पूर्वोत्तर की राजनीति का एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है.
हालांकि, चुनाव नतीजों में यह सचाई छिप गयी है कि वाम मोर्चे को 44 फीसदी वोट मिले हैं और बीजेपी ने यह जीत तीन अलगाववादी संगठनों (एनएलएफटी, एटीटीएफ और आईपीएफ) के साथ हाथ मिलाकर हासिल की है. यह भी ध्यान रखना होगा कि बीजेपी के नवनिर्वाचित विधायक दल में पूर्व कांग्रेस एवं वाम नेताओं की संख्या को देखकर कोई भी कह सकता है कि यह बीजेपी असली बीजेपी नहीं है.
माणिक सरकार जैसे ईमानदार एवं कर्मठ नेता के बावजूद त्रिपुरा में लेफ्ट की हार ढाई दशक के शासन की थकान भी हो सकती है और नाकामी भी, मगर उससे ज्यादा मतदाताओं में परिवर्तन की चाह लगती है, वह बदलाव चाहती थी. कांग्रेस विकल्प देने की सारी ताकत खो चुकी थी. एक राजनीतिक शून्य पैदा हो गया था, जिसे भरने की क्षमता उसमें नहीं बची थी और चुनाव पूर्व की गयी तोड़-फोड़ के बाद तो वह मुकाबले से ही बाहर हो गयी थी. फिर शायद बीजेपी और नरेंद्र मोदी का आकर्षण और उनकी उनकी आक्रामक प्रचार शैली ने भी चुनावी फिजा को बदल डाला होगा.
फिलहाल परिवर्तन अस्थायी!
पूर्वोत्तर के राजनीतिक नक्शे में यह परिवर्तन अस्थायी है. अस्थायी इसलिए कि छोटे राज्यों की अस्थिर, मौकापरस्त राजनीति और नेताओं की सत्ता-लोलुपता में कब बाजी किसके हाथ से निकलकर किसके पास चली जाये, यह कहना बहुत मुश्किल है. खास तौर पर तब, जबकि बदलाव का पूरा गणित ही जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त पर आधारित हो, कोई भी परिवर्तन टिकाऊ नहीं हो सकता. बहुत से लोग इसे 2019 के आम चुनाव से जोड़कर देखने की कोशिश कर रहे हैं,
जबकि यह एक लंबा समय है. एक तो पूर्वोत्तर का राष्ट्रीय राजनीति पर कोई विशेष असर नहीं होता, खास तौर पर छोटे राज्यों का. दूसरे, अगले सवा साल में कहां क्या घटित होगा, यह कोई नहीं जानता, क्योंकि महीन बहुमत वाली सरकारें ढह सकती हैं, और दल-बदलू नेता अपना पाला बदल सकते हैं.
अगर आम चुनाव के लिहाज से देखना हो, तो यही कहा जा सकता है कि उनके मद्देनजर इनकी कोई अहमियत नहीं है. मतदाता तब तक इसे भूल भी चुके होंगे और जैसा कि ऊपर इशारा किया गया है, तब तक हो सकता है कि पूर्वोत्तर के लोगों का बीजेपी से मोहभंग होना भी शुरू हो जाये. हां, बीजेपी का हौसला बढ़ेगा और विपक्षी दलों का मनोबल गिरेगा.
इसका असर दोनों की चुनावी तैयारियों पर भी पड़ना लाजमी है. आम चुनाव पर अगर किन्हीं चुनाव नतीजों का प्रभाव पड़ेगा, तो वह कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव नतीजों का पड़ेगा. इसलिए नवंबर तक इंतजार कीजिए और देखिए कि विपक्षी दल किस तैयारी के साथ मैदान में उतरते हैं और वोटिंग मशीनें क्या गुल खिलाती हैं.
नतीजों को आम चुनाव से जोड़कर देखना बेमानी
डॉ मुकेश कुमार
पूर्वोत्तर मामलों के जानकार
पूर्वोत्तर के राजनीतिक नक्शे में यह परिवर्तन अस्थायी है. क्योंकि छोटे राज्यों की अस्थिर, मौकापरस्त राजनीति और नेताओं की सत्ता-लोलुपता में कब बाजी किसके हाथ से निकलकर किसके पास चली जाये, यह कहना बहुत मुश्किल है.
वाम दल करंे आत्ममंथन
त्रिपुरा में पच्चीस सालों के वाम सरकार के खिलाफ असंतोष को भाजपा अपनी जीत के लिए भुनाने में सफल हो गयी है. वर्ष 2013 के 52 और 2014 के 64 फीसदी से वाम मोर्चे का वोट शेयर गिर कर इस चुनाव में 45 फीसदी के आसपास आ गया है.
यह स्थिति वाम मोर्चे के भीतर शासन के उसके मॉडल और लोगों की नजर में उसकी वैकल्पिक नीतियों के प्रति नजरिये को लेकर गंभीर आत्ममंथन की जरूरत को रेखांकित करती है. बड़ी तादाद में आदिवासी मतदाताओं, खासकर युवाओं, में माकपा और वाम मोर्चे से दूर जाना यह इंगित करता है कि वाम मोर्चे के शासन में उनकी आकांक्षाएं, विशेष रूप से रोजगार, आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के मामले में, पूरी नहीं हो सकी हैं. परंतु, त्रिपुरा की हार 2011 में बंगाल में वाम मोर्चे की पराजय जितनी भारी नहीं है.
मुख्यमंत्री माणिक सरकार समेत उनके मंत्रिमंडल के अनेक वरिष्ठ सहयोगी चुनाव जीत रहे हैं. लेकिन बंगाल में तत्कालीन मुख्यमंत्री समेत तमाम बड़े मंत्रियों और नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा था. यदि माकपा और वाम मोर्चे के अन्य घटक गंभीरता से आत्मावलोकन करते हैं और अपनी खामियों को दूर करने की ठोस पहल करते हैं, तो आनेवाले दिनों में वे मजबूत लड़ाई लड़ पाने में सक्षम होंगे.
इंडिजीनियस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आइपीटीएफ) के साथ गठबंधन ने भाजपा के पक्ष में आदिवासी समुदाय का बड़ा हिस्सा जुटाने में मदद की है. यहां यह उल्लेखनीय है कि 2014 में कांग्रेस ने तब के एक बड़े आदिवासी संगठन से गठबंधन कर 40 फीसदी से अधिक वोट पाया था. आदिवासियों में माकपा के जनाधार का सफाया यह भी बताता है कि पार्टी के पास भरोसेमंद आदिवासी नेतृत्व नहीं है. इस राज्य में कभी नृपेन चक्रबर्ती जैसा नेता था, तो दशरथ देब जैसा कद्दावर आदिवासी नेता भी था.
निश्चित रूप से माकपा और वाम मोर्चे को विभिन्न वंचित समूहों में नेतृत्व को लेकर गंभीरता से सोचना चाहिए. तृणमूल कांग्रेस के रास्ते से कांग्रेस पार्टी का पूरा दल-बल भाजपा में जाना बांग्लाभाषी मतदाताओं में भाजपा की पैठ बनाने में काम आया है. त्रिपुरा के राज्यपाल के विवादित ट्वीट और बयान, केंद्र सरकार का हस्तक्षेप, असम और अन्य राज्यों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के संगठन आदि भी जीत में कारक रहे हैं. त्रिपुरा के भविष्य के लिए इन सबका क्या मतलब होगा, यह देखने की बात है.
मेघालय और नागालैंड के परिणाम भी इंगित करते हैं कि भाजपा अपने वर्चस्व का विस्तार करने के लिए केंद्र सरकार के साथ अवसरवादी गठबंधनों और बड़े धन-बल का इस्तेमाल कर रही है. ये नतीजे न तो केंद्र सरकार के निराशाजनक प्रदर्शन को सही ठहराते हैं और न ही उसके भ्रष्टाचार और संविधान-विरोधी हरकतों पर परदा डालते हैं. विपक्षी पार्टियां सिर्फ सामान्य संसदीय सक्रियताओं के जरिये भाजपा सरकार का मुकाबला नहीं कर सकती हैं.
त्रिपुरा में शून्य से शिखर पर भाजपा
मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को भारी लाभ हुआ है. ज्यादा नजरें त्रिपुरा पर टिकी थी. केरल के अलावा लेफ्ट की सरकार बस इसी राज्य में है. बीजेपी ने ‘चलो पलटाई’ अभियान के जरिये क्षेत्रीय दल इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के साथ गठबंधन में त्रिपुरा में 25 सालों के माणिक सरकार के वाम मोर्चा शासन को धवस्त कर दिया है. बीजेपी राज्य में दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में आने जा रही है. त्रिपुरा में साल 1993 से ही माकपा की सरकार रही है.
जातिगत समीकरण के लिहाज से 70 फीसदी वोटर बंगाली और अन्य, 30 फीसदी वोटर आदिवासी हैं. यहां 60 सदस्यीय विधानसभा के लिए हुए चुनाव में 292 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे, जिनमें 23 महिलाएं थी. 59 सीटों पर वोटिंग हुई थी. 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के त्रिपुरा में 50 उम्मीदवारों में से 49 की जमानत जब्त हो गई थी और वो एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 49 सीटें मिली थीं. कांग्रेस को भी 10 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.
इस बार भी शुरुआती रुझानों में माकपा बीजेपी को टक्कर देती दिख रही थी लेकिन आखिरकार जीत बीजेपी को मिली. इस जीत की खास बात ये भी है कि बीजेपी को राज्य में 50 फीसदी से ज्यादा मत हासिल हुए हैं जो की विधान सभा चुनावों में अपने आप में एक चमत्कार से कम नहीं होता. बीजेपी की इस जीत का बडा कारण त्रिपुरा में विकास की कमी है जिसे बीजेपी लोगों को समझाने में कामयाब रही. साथ ही बीजेपी को देश की जनता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास का भी भारी फायदा पंहुचा है.
त्रिपुरा में मुख्यमंत्री पद की रेस में सबसे आगे नाम बिप्लब कुमार देब का चल रहा है. इस विधानसभा चुनाव में प्रभारी सुनील देवधर के साथ बिप्लब पूरे चुनावों का नेतृत्व करते रहे थे. लंबे समय से आरएसएस में सक्रिय बिप्लब कुमार 2016 से ही प्रदेश में बीजेपी को बढ़त दिलाने के लिए मेहनत कर रहे हैं. हाल ही में उन्होंने अगरतला से चुनाव लड़ रहे प्रदेश के दिग्गज नेता सुदीप रॉय बर्मन और कांग्रेस विधायकों को पार्टी में शामिल करने में अहम भूमिका निभायी थी.
नागालैंड विधानसभा की 60 में से 59 सीटों पर हुए मतदान में 92 फीसदी से अधिक मतदाताओं ने वोट डालकर देश के चुनावी इतिहास में एक रिकार्ड बनाया था. चुनाव में 193 उम्मीदवार मैदान में थे. 25 लाख से ज्यादा वोटर हैं. नागालैंड में बीजेपी इस बार नवगठित नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के साथ गठबंधन कर चुनावी अखाड़े में उतरी. बीजेपी ने 20 जबकि एनडीपीपी ने 40 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक पीपुल्स पार्टी (एनडीपीपी) और बीजेपी का गठबंधन दूसरे नंबर पर है. यहां कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया है.
कांग्रेस ने 2013 चुनाव में 29 सीटें हासिल की थी. बीजेपी दोनों ही स्थितियों में फायदे में है, क्योंकि 15 साल वह एनपीएफ के साथ रही है और एनडीपीपी भी एनपीएफ से ही टूटकर बना दल है. बीजेपी ने चुनाव से पहले एनपीएफ से गठबंधन तोड़कर इसी पार्टी के बागी नेताओं-विधायकों के नए दल नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) से हाथ मिलाया.
ऐसे में किसी भी दल की अगुआई में बनने वाली सरकार में बीजेपी की हिस्सेदारी हो सकती है. यहां भी बीजेपी गठबंधन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि का फायदा मिला. नागालैंड में बीजेपी गठबंधन की सरकार बनने के बेहद करीब है. लेकिन बीजेपी के लिए शायद नगालैंड में सरकार बनाना आसान होगा. इसका कारण ये भी है कि उसके एनडीपीपी के साथ गठबंधन के बावजूद उसने नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के साथ चुनाव के बाद गठबंधन के रास्ते खुले रखे हैं.
मेघालय में मतों की गिनती के बाद कांग्रेस जरूर सबसे बड़ी पार्टी है. लेकिन बीजेपी, नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी मिलकर कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं. दिलचस्प बात यह है कि एनपीपी और यूडीएफ, दोनों ही केंद्र में एनडीए में शामिल हैं. ऐसे में बीजेपी, एनपीपी और यूडीएफ मिलकर सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा आसानी से हासिल कर सकते हैं. राज्य में करीब 75 फीसदी वोटर ईसाई समुदाय के हैं.
इन वोटर्स को रिझाने के लिए कांग्रेस ने केरल के पूर्व सीएम ओमान चांडी और बीजेपी ने केंद्रीय मंत्री केजे अल्फोंस को चुनाव की कमान दी थी. पूर्वोत्तर में बीजेपी के संयोजक हिमंत बिश्व शर्मा का भी दावा है कि मेघालय में गैर-कांग्रेसी सरकार बनायी जाएगी. बीजेपी की तरफ से मेघालय में सरकार बनाने की जिम्मेदारी केंद्रीय नेता राम माधव और पूर्वोत्तर में बीजेपी के रणनीतिकार हिमंत बिश्व शर्मा को दी गयी है. वहीं कांग्रेस ने भी सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार रहे अहमद पटेल और वरिष्ठ नेता कमलनाथ को मेघालय रवाना कर दिया है.
यहां 59 सीट पर चुनाव हुआ. राज्य में हर चुनाव में निर्दलीय बड़ी संख्या में जीतते हैं. पिछली बार 29 जीते थे. 55.11 फीसदी वोट उन्हें मिले थे. इस बार 84 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में थे, जिनको 40.8 फीसदी वोट मिले.
पूर्वोत्तर के इन तीन राज्यों के चुनावों के साथ ही अब 29 राज्यों में से 19 में एनडीए की सरकार है, जिसमें से 14 में बीजेपी की अपनी सरकार है. मेघालय और नागालैंड में किसी को बहुमत नहीं मिलने से स्थिति साफ नहीं है. इसके अलावा, आठ राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकार है, जिसमें कर्नाटक, मिजोरम, पंजाब में कांग्रेस, तमिलनाडु में एआईएडीएमके, केरल में वामदलों, पश्चिम बंगाल में टीएमसी, तेलंगाना में टीआरएस और ओडिशा में बीजेडी की सरकारें हैं. साथ ही दो केंद्र शासित प्रदेशों में से दिल्ली में आम आदमी पार्टी और पुडुचेरी में कांग्रेस की सरकार है.
पूर्वोत्तर में कांग्रेस को मात देने वाले हिमंत बिश्व शर्मा
पू र्वोत्तर भारत के तीन राज्यों में शनिवार को आये विधानसभा चुनावों के नतीजों में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने वालों में हिमंता बिश्व शर्मा का अहम योगदान रहा है. हिमंता एक समय कांग्रेस के कद्दावर नेता और असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का दाहिना हाथ माने जाते थे. इन राज्यों में अपना संगठन मजबूत बनाने के लिए भाजपा ने इन्हें अपनी पार्टी में शामिल करते हुए अहम भूमिका दी और पूर्वोत्तर भारत प्रजातांत्रिक गठबंधन का संयोजक बना दिया.
कहा जाता है कि हिमंता को कांग्रेस की कमजोरियां और ताकत, दोनों का अंदाजा था और उनको पार्टी में शामिल कर भाजपा ने कांग्रेस को सांगठनिक रूप से कमजोर करना शुरू कर दिया. असम के जोरहाट जिले में जन्मे बिश्व शर्मा मौजूदा असम सरकार में वित्त मंत्री हैं. गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से पढ़ाई करने वाले शर्मा छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय थे.
गवर्नमेंट लॉ कॉलेज से एलएलबी करने के बाद वर्ष 1996 से 2001 के दौरान गुवाहाटी हाईकोर्ट में उन्होने वकालत में प्रैक्टिस भी की. वर्ष 2001, 2006 और 2011 में लगातार तीन बार उन्होंने विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की. कांग्रेस पार्टी से मनमुटाव के बाद अगस्त, 2015 में उन्होंने भाजपा से हाथ मिला लिया.
त्रिपुरा के अलावा अन्य दो राज्यों में हम देख सकते हैं कि पूर्व कांग्रेसी ही कांग्रेस से लड़ रहे हैं. इस लिहाज से इन राज्यों में बड़ी हार कांग्रेस की ही है. यह पार्टी मेघालय में बचाव की मुद्रा में लड़ रही है और त्रिपुरा व नागालैंड में तो गिनती में ही नहीं है. त्रिपुरा में भाजपा का वोट शेयर इंगित कर रहा है कि अब सीपीएम अपने मतदाताओं को लेकर निश्चिंत नहीं रह सकती है.
डॉ संजॉय हजारिका, प्रोफेसर, पूर्वोत्तर अध्ययन केंद्र, जामिया मिलिया इस्लामिया.