II शफक महजबीन II
टिप्पणीकार
शायर कैसर शमीम ने एक बड़ा ही प्यारा शेर कहा है- मेरा मजहब इश्क का मजहब जिसमें कोई तफरीक नहीं/ मेरे हलके में आते हैं ‘तुलसी’ भी और ‘जामी’ भी… यह शेर भारत की साझी विरासत और गंगा-जमुनी तहजीब को बयान करता है. हमारी संस्कृति एक मिली-जुली और समृद्ध संस्कृति है. हम अलग-अलग धर्मों में यकीन करते हुए भी सभी त्योहारों का लुत्फ साथ मिलकर उठाते रहे हैं. गंगा-जमुनी संस्कृति ही हमारी पहचान है.
फागुन का मौसम है. पूरे देश में होली की बहार मची हुई है. होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं है, बल्कि यह प्यार के रंगों का भी त्योहार है. इसलिए होली की सार्थकता इसमें ज्यादा है कि हम प्यार के रंगों से होली खेलें.
जिस तरह ढेर सारे रंग एक-साथ मिलकर होली बन जाते हैं, ठीक उसी तरह जब हमारे प्यार के सारे रंग मिलते हैं, तो हम गंगा-जमुनी तहजीब बन जाते हैं. फिर होली सिर्फ हिंदू का त्योहार नहीं रह जाता, बल्कि सारे धर्मों का हो जाता है, क्योंकि प्यार और साैहार्द कभी धार्मिक नहीं होते.
त्योहारों के चलते जब अलग-अलग इंसानों की खुशियां आपस में मिलती हैं, तो वे आपसी प्यार और सौहार्द की भावना में तब्दील हो जाती हैं और तब हमारी खुशी दूसरे की, तो दूसरे की खुशी हमारी बन जाती है. तब पूरा माहौल ही खुशनुमा बन जाता है. और लोगों की आपसी नाराजगी भी दूर हो जाती है. लोग गिले-शिकवे भूलकर खुशी-खुशी एक-दूसरे से गले मिलते हैं. इस तरह त्योहार हमारे रिश्तों को मजबूत बनाते हैं.
त्योहार चाहे किसी भी धर्म के हों, वे अपने साथ आपसी भाईचारे का संदेश लेकर ही आते हैं. लोग आम दिनों में अपने कामों में मसरूफ रहते हैं, लेकिन त्योहारों में उन्हें मौका मिलता है कि वे अपने दोस्तों-यारों के घर जाकर या उन्हें अपने घर बुलाकर त्योहार की बधाईयां दें और लें एवं खुशियां बांटें.
मुसलमान लोग होली पर अपने हिंदू मित्रों को बधाईयां दें और हिंदू लोग ईद पर अपने मुसलमान मित्रों को बधाईयां दें. यही प्यार का असली रंग है.
भारत एक संस्कृति प्रधान देश है और त्योहार हमें विरासत में मिले हैं. हमारी संस्कृति के पेड़ पर अनेकों त्योहार खिलते हैं. इसलिए बिना किसी धार्मिक भेदभाव के हमें एक-दूसरे के त्योहार का सम्मान करना चाहिए. गंगा-जमुनी संस्कृति को बचाने की हमारी ही जिम्मेदारी है. सो प्यार के रंगों में रंग जायें.
सदियों से होली, दीवाली, ईद को हम सब मिल-जुलकर मनाते रहे हैं. लेकिन, हाल के वर्षों में कुछ लोगों ने इन त्योहारों में भी भेदभाव का रंग घोल दिया है. नतीजा, हमें अब अपने त्योहारों को छोड़कर दूसरे के त्योहारों से कोई मतलब ही नहीं रह गया है. हमने जानवरों, चिड़ियों, भाषाओं को भी धर्मों से जोड़ दिया है.
हिंदी को हिंदुआें की भाषा कहा जाने लगा है, तो उर्दू को मुसलमानों की. यह विडंबना है कि कुछ लोग गेंदा को हिंदू फूल, तो गुलाब को मुस्लिम फूल कहते हैं. हमें इस माहौल से बाहर आना होगा और हिंदू-मुस्लिम सबको साथ मिलकर प्यार व सौहार्द के रंगों से होली खेलनी होगी. होली मुबारक!