II संदीप मानुधने II
विचारक, उद्यमी, एवं शिक्षाविद्
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भारत जैसे विशाल देश में 136 करोड़ लोगों के विकास की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बनी सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में सरकारी बैंक प्रमुख भूमिका निभाते हैं. यदि ये न हों, तो विशालकाय केंद्रीय योजनाएं जैसे कि जन-धन योजना, मुद्रा योजना आदि कभी लागू ही न हो सकें. इन्हीं से ही व्यापक सामाजिक उत्थान का स्वप्न देखने में सरकार को एक ठोस धरातल मिलता है.
यूनाईटेड बैंक आॅफ इंडिया के 86 प्रतिशत से लेकर यूनियन बैंक के 55 प्रतिशत तक भारत सरकार अपनी शेयर होल्डिंग के जरिये सरकारी बैंकों पर पूर्ण नियंत्रण रखती है.
स्टेट बैंक और पंजाब नेशनल बैंक में 57 प्रतिशत प्रत्येक, और बैंक आॅफ बड़ौदा में 59 प्रतिशत के साथ अर्थव्यवस्था पर सरकार का गहरा नियंत्रण होता है, किंतु भीमकाय गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) और अविश्वसनीय घोटालों ने इस सरकारी स्वामित्व माॅडल पर ही सवाल उठा दिये हैं. यह मांग उठी है कि सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचकर बाहर हो जाये.
आईये 2007 के अमेरिका में चलें. तब प्राईम लोन बाजार के डूबने से उठे वित्तीय भूचाल में अनेक बड़े ब्रांड वाले विशाल निजी बैंक डूबते चले गये. यही हाल यूरोप में भी हुआ.
इन पश्चिमी पूंजीवादी देशों में इन बैंकों को डूब जाने देना चाहिये था, किंतु सरकारों ने करदाता के पैसे से बेलआउट पैकेज बनाकर इन बैंकों को नया जीवन प्रदान कर दिया. भारी आलोचना हुई कि मुनाफे का तो निजीकरण होता रहा और अब घाटे का सार्वजनिककरण कर दिया गया है!
इस अजीब विरोधाभास का उत्तर हमें बैंकिंग उद्योग की विशिष्ट प्रवृत्ति को समझने से ही मिलेगा. अन्य सभी व्यापारों से इतर, बैंकिंग उद्योग अर्थव्यवस्था की वह धुरी होती है, जिसमें न केवल सभी बैंक एक-दूसरे से जुड़े होते हैं, वरन् प्रत्येक बैंक भी अर्थव्यवस्था के सभी हिस्सों से जुड़ा हुआ होता है, जहां एक बैंक डूबा, वह अपने साथ अनेकों छोटे भूचाल ले आयेगा. उस स्थिति से पैदा होनेवाला सामाजिक विनाश अकल्पनीय हो सकता है, और इसीलिए सरकारें वह जोखिम नहीं लेना चाहतीं.
तो यदि बैंकों को निजी बना दिया गया और कोई भीमकाय बैंक यदि किसी दिन डूबा, तो क्या भारत सरकार वैसा होने देगी? इससे तो बेहतर है कि यदि घाटे का सार्वजनिककरण होना ही है, तो मुनाफे का भी क्यों न हो? अतः यही सही होगा कि बैंकों को सरकारी ही रहने दिया जाये.
लेकिन, उपरोक्त दिये गये तर्क से यह सच्चाई छुप नहीं जाती कि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था का वर्तमान पतन एक बड़े खतरे की सूचना है.
वह राजनीतिक दखलअंदाजी, अकुशल और गैर-पेशेवराना प्रबंधन और नेता-बैंकर-काॅरपोरेट के अपवित्र गठजोड़ का परिणाम है. पिछली सरकारों पर हम यह आरोप लगा सकते हैं कि क्यों बैंकों ने बड़ी अधोसंरचना परियोजनाओं के लिए इतना ऋण दिया, जबकि उस प्रकार के ऋणों में जोखिम आकलन की क्षमता काफी कम थी?
हम वर्तमान सरकार से भी यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि जो एनपीए 2014 में मात्र ढाई लाख करोड़ रुपये था, वह आज चार गुना बढ़कर एक पहाड़ के रूप में सामने कैसे खडा हो गया? सभी आंतरिक और बाहरी आॅडिट नियंत्रण विफल कैसे होते चले गये? बैंक बोर्ड ब्यूरो क्या करता रहा? वित्तीय सेवा प्रभाग ने सुध क्यों नहीं ली? और खुल्लम-खुल्ला एलओयू की धोखाधड़ी चलती कैसे रही?
निश्चित ही, यदि हम सरकार को भविष्य में ऐसी समस्याओं के संस्थागत समाधान ढूंढ पाने में अक्षम मान लें, तो निजीकरण ही समाधान दिखता है, लेकिन इससे सामाजिक उत्थान वाली योजनाओं के निष्पादन और आम जमाकर्ताओं के विश्वास पर ग्रहण लग जायेगा. घाटे वाली शाखाओं को निजी बैंक चलने नहीं देगें और लगातार सरकारी दखल की आवश्यकता पड़ेगी. सरकार इस समस्या से वाकिफ है और पीएनबी महाघोटाले के बाद अधिक पेशेवर प्रबंधन लाने की कवायदें और तेज हो गयी हैं.
हाल ही में 2 लाख 11 हजार करोड़ रुपये का पुनर्पूंजीकरण कार्यक्रम घोषित हुआ था, जिसकी आभा ने संप्रभु गारंटी पहले से लिए हुए हमारे सरकारी बैंकों को नया जीवन दिया था. पर घोटालों ने फिर से ग्रहण लगा दिया.
चूंकि नुकसान की पूरी मात्रा का आकलन अभी तक नहीं हो पाया है, और जिस सरलता से यह घोटाला चलता रहा, उसने विनियामक शिथिलता को सार्वजनिक रूप से उजागर कर दिया है.
लेकिन, सरकार अब भी पांच कदम उठाकर निजीकरण से बच सकती है. पहला- बैंक होल्डिंग कंपनी बनायी जाये, जिसमें सभी सरकारी बैंकों को शामिल कर लिया जाये.
दूसरा- निष्पक्ष जांच कर घोटालेबाजों को जेल में डाला जाये. तीसरा- प्रस्तावित भगौड़ा आर्थिक अपराध विधेयक शीघ्र पारित किया जाये. चौथा- नेता और पार्टियां बैंकों के प्रबंधन में दखलअंदाजी बंद कर दें और पांचवां- उच्च वेतनमान पर श्रेष्ठ प्रतिभा के हाथों में प्रबंधन सौंपा जाये.
यदि सरकार दृढ़ निश्चय के साथ इन समाधानों पर काम कर सके, तो सरकारी बैंक न केवल लाभप्रद बने रहेंगे, वरन् भारत की वास्तविक आकांक्षाओं को भी अच्छी तरह पूरा कर पायेंगे. अन्यथा, निजीकरण ही एकमात्र रास्ता बचेगा!