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सुनिश्चित हो समान भागीदारी

शुश्वी के रिसर्च स्कॉलर इस साल जनवरी में देश में घटित हुईं कुछ घटनाओं ने समाज को काफी विचलित किया. कई विडंबनाएं भी देखने को मिलीं. एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी दावोस में ‘दरारों से भरे विश्व में साझा भविष्य का निर्माण’ पर भारत की उभरती अर्थव्यवस्था और बदलते राजनीतिक परिदृश्य में ‘समावेशी विकास’ की बात […]

शुश्वी के रिसर्च स्कॉलर
इस साल जनवरी में देश में घटित हुईं कुछ घटनाओं ने समाज को काफी विचलित किया. कई विडंबनाएं भी देखने को मिलीं. एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी दावोस में ‘दरारों से भरे विश्व में साझा भविष्य का निर्माण’ पर भारत की उभरती अर्थव्यवस्था और बदलते राजनीतिक परिदृश्य में ‘समावेशी विकास’ की बात कर रहे थे, तो वहीं दूसरी तरफ ऑक्सफेम रिपोर्ट भारत की एक अलग ही तस्वीर पेश कर रही थी कि- भारत के सिर्फ एक प्रतिशत लोगों के पास ही देश की कुल संपत्ति का 73 प्रतिशत है.
मौजूदा वक्त में भारतीय समाज राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संक्रमण के दौरसे गुजर रहा है. पिछले कुछ सालों में बाजारीकरण ने देश को खासा प्रभावित किया है.
खासकर, शिक्षा का जो बाजारीकरण हुआ है, तथा तकनीकी और नवीकरण के नाम पर प्रौद्योगिकी तार्किकता को जो महत्व मिला है, उसने आत्मीयतापूर्ण विचार-विमर्श की जगह को न सिर्फ सीमित किया है, बल्कि एक सृजनात्मक राजनीति की जगह को भी खत्म करने का काम किया है.
शिक्षा चाहे स्कूली हो या उच्चस्तरीय, लगता है वह मानव संसाधन मंत्रलाय से हटकर वाणिज्य मंत्रालय से निर्धारित होने लगी है. शिक्षा एक ऐसा साधन बनकर रह गयी है, जिसकी प्राथमिकता सामाजिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक मूल्यों को परिशुद्ध करने के बजाय आर्थिक वृद्धि, और वह भी कुछ ही वर्गों तक सीमित होकर रह गयी है.
ऐसे माहौल में वाद-विवाद, सहमति-असहमति या वैचारिक मूल्यों पर कुठाराघात होना स्वाभाविक है. ऐसी पृष्ठभूमि में ही करणी सेना जैसे संगठन उत्पन्न होते हैं, जो पहचान के लिए देश का नुकसान करने से भी नहीं चूकते. किसी भी प्रतिष्ठा या सम्मान को अपने या कुछ ही वर्गों तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता. भारतीय समाज विभिन्न जातियों और धर्मों का मिश्रित समाज है. अत: जरूरत है ऐसी व्यवस्था की, जिसमें सभी लोगों को एक समान अधिकार हो, ताकि वे अपनी क्षमता को सृजनात्मक तरीके से विकसित करके देश के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें.
भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारवाद के इस दौर में कोई जाति-विशेष या समुदाय विशेष अपनी प्रतिष्ठा एवं स्वाभिमान को साबित करने की कोशिश में समाज के दूसरे वर्गों में वर्गीय-संघर्ष की भावना पैदा करेगा.
इसका राजनीतिक रोटियां सेंकनेवाले दलों-पार्टियों को तो भले लाभ मिल जाये, लेकिन यह सामाजिक ताने-बाने में एक ऐसा घाव देकर जायेगा, जिसे भर पाना हमारे लिए बहुत मुश्किल हो जायेगा.
आज सिर्फ विकास नहीं, बल्कि सतत विकास की बात की जाती है. तो क्या हम इस सतत विकास के लिए प्रयासरत इस दौर में अपनी मौजूदा पीढ़ी को तथा आनेवाली पीढ़ी को वर्गीय-संघर्ष से भरे समाज में रहने को विवश करना चाहते हैं? नहीं! हमें एक ऐसे समाज की ओर कदम बढ़ाना चाहिए, जिसमें सभी वर्गों की समान भागीदारी सुनिश्चित हो सके.

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