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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यथार्थ
II राकेश सिन्हा II संघ विचारक indiapolicy@gmail.com भारत की राजनीतिक एवं बौद्धिक विमर्श का केंद्र-बिंदु एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बन गया है. राहुल गांधी से लेकर लालू यादव, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर तृणमूल कांग्रेस तक सभी संघ-विरोध के नाम अपनी राजनीति चमका रहे हैं. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. जब […]
II राकेश सिन्हा II
संघ विचारक
indiapolicy@gmail.com
भारत की राजनीतिक एवं बौद्धिक विमर्श का केंद्र-बिंदु एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बन गया है. राहुल गांधी से लेकर लालू यादव, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर तृणमूल कांग्रेस तक सभी संघ-विरोध के नाम अपनी राजनीति चमका रहे हैं. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है.
जब भी भारतीय राजनीति किसी निर्णायक दौर से गुजरती है, विमर्श और राजनीतिक ध्रुवीकरण का संदर्भ बिंदु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनता रहा है.
आजादी के बाद कांग्रेस के भीतर वैचारिक उथल-पुथल में संघ एक कारण था. तभी तो गांधी हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबंध के प्रति दल एवं सरकार में पूर्ण सहमति नहीं थी. इसलिए प्रतिबंध हटते ही कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने लगभग आमसहमति से संघ को कांग्रेस में आमंत्रित किया था. सिर्फ बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण सिंह तटस्थ थे. नेहरू तब विदेश यात्रा पर थे.
लौटते ही उन्होंने निर्णय को बदलने के लिए बाध्य कर दिया था. कांग्रेस में विचार केंद्रित राजनीति के अस्त और व्यक्तिवाद के उदय का काल प्रारंभ हो गया था, जिसके संक्रमण से भारतीय राजनीति चाहकर भी उबर नहीं पाती है. जिस कांग्रेस के पास त्याग-तपस्या एवं संघर्ष करनेवाले स्वार्थहीन नेताओं की बड़ी थाती थी, उसने 1952 के चुनाव के पूर्व जो निर्णय लिया, वह कई प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ दिया है. लगभग चार हजार विधानसभाओं और लोकसभा के उम्मीदवारों के नामों पर अंतिम ‘हां या ना’ का ‘भार’ जवाहरलाल नेहरू पर छोड़ दिया गया. आखिर क्यों कांग्रेस व्यक्तिवाद के अमरबेल के बीजारोपण को नहीं रोक पायी?
इस प्रश्न का समाधान संघ के वैकल्पिक विचार और कार्यपद्धति में निहित है. व्यक्ति की भूमिका संगठन के आईने में तय होती है. बिहार के गिरिडीह के एक हिंदुत्ववादी नेता रामेश्वर पाठक का वर्ष 1940 में विनायक दामोदर सावरकर को लिखा पत्र अनजाने में संघ के वैशिष्ट्य को उजागर करता है.
इस पत्र में संघ के वरिष्ठ नेता उमाकांत आप्टे से हुए उनके विमर्श का उल्लेख है. पाठक ने हिंदू संगठन बनाया था, जिसमें कुल 1,100 सदस्य थे. वे लिखते हैं, ‘मैं ऐसा संगठन चाहता हूं, जिसे समय पर काम ला सकूं. मेरा उस पर पूरा अधिकार रहे. यह इसलिए जरूरी है कि निकट भविष्य में हिंदुओं पर खतरा आनेवाला है.’
वे संघ के संदर्भ में लिखते हैं, ‘उमाकांत आप्टे से बात करने पर मुझे समझ में आया कि वे चाहते हैं कि एक-एक हिंदू युवक सिद्धांत के साथ हिंदू संस्कृति की भावना को रखते हुए संघ की शिक्षा ले. अपने जीवन युद्ध में अपने इच्छानुसार काम करते रहे. मेरा काम उसे अपने अनुकूल बना लेना है, न कि उस पर शासन करना है.’ संघ ने इसी रास्ते से समाज की ऊर्जा को लोकशक्ति बना दिया है.
इसकी छाया राजनीति पर पड़ना स्वाभाविक है, परंतु यह इसका मूल पिंड कतई नहीं है. राजनीतिक परिवर्तन की अनिवार्यता को स्वीकार करना, परंतु उस अनिवार्यता का दासी नहीं बनना जीवंत लोकशक्ति का वैशिष्ट्य होता है. इसलिए व्यक्ति बनामसंघ और संघ बनाम राजनीतिक दल होना इसकी नियति है, जिसे संघ आत्मसात कर चुका है.
पांच वर्षों से संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने राष्ट्रीय जीवन के जिन पक्षों को विमर्श का हिस्सा बनाया है उसे वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में संवादहीनता के कारण जितना महत्व मिलना चाहिए था वह नहीं मिला. इसका कारण है कि वर्तमान राजनीति पूरी तरह से सत्ता केंद्रित है, जिसके कारण रचनात्मक विचारों पर राजनीतिक दल विमर्श नहीं कर पातीं. भागवत जी ने मजदूर, किसान और छोटे व्यापारियों के जीवन के पक्ष को अपने दर्शन का हिस्सा बनाया, तो उसका निहितार्थ सिर्फ तत्कालीन सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं होकर नवउदारवादी आर्थिक नीति में गंभीर हस्तक्षेप का प्रयास है, जिसकी ओर भारत में आज किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.
यूं तो संघ अस्पृश्यता के खिलाफ 1925 से काम कर रहा है लेकिन भागवत का यह कथन ‘एक कुआं, एक मंदिर, एक श्मशान’ सिर्फ समानतावादी नारे के रूप में नहीं होकर संघ के दृष्टिकोण में आधारभूत परिवर्तन का संकेत है. भागवत ने सामाजिक सुधार के पूर्व प्रयास को सामंतवादी-जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की आवश्यकता को महसूस किया है और इस प्रकार से सामाजिक सुधार के रास्ते से आगे बढ़कर सामाजिक क्रांति को संघ की प्राथमिकता बना दिया है.
संघ विरोधी कुछ हिंसात्मक घटनाओं के आईने में संघ के खिलाफ जो दुष्प्रचार कर रहे हैं, वह समाज के आईने में स्वतः चकनाचूर हो जाता है. इस प्रकार संघ के अनुकूल राजनीतिक सफलता भले ही राजनीतिक प्राणियों को लगता हो कि संघ का अंतिम सरोकार है लेकिन वास्तविकता यह है कि संघ एक बड़े परिवर्तन का सारथी है और राजनीतिक परिवर्तन की सार्थकता भी तभी स्थापित होगी जब सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्रांति की सफलता सुनिश्चित होगी.
दुर्भाग्य है कि भारत का बौद्धिक वर्ग एवं राजनीति सत्ता-केंद्रित होने के कारण संघ के विचार के साथ संवाद करने की जगह संघ को अपवाद बना देना चाहता हैै. यही इसकी न्यूनता है. भागवत ने जब कहा कि संघ को समझने के लिए संघ के निकट आकर उसे देखना पड़ेगा. यह भाव किसी को संघी बनाने का नहीं, बल्कि सूक्ष्म से स्थूल की तरफ ले जाने के लिए व्यापक विमर्श की अपील है.
इस संदर्भ में यह प्रसंग उल्लेखनीय है. 6 सितंबर 1941 को कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के एक प्रशंसक राजकिशोर मेरिकट्टा ने पत्र लिखकर उनसे पूछा कि ‘आप संघ में क्यों नहीं शामिल हो जाते हैं?’ तो मुंशी ने 13 सितंबर को उसके उत्तर में लिखा कि ‘मैं संघ के नेताओं को अच्छी तरह जानता हूं, परंतु स्वयं संघ में शामिल नहीं हो सका.’ यह उसी स्थूल संवाद का एक परिचायक है.
क्या सोनिया गांधी, सीताराम येचुरी, मायावती का संघ के साथ संवाद है? वास्तव में, नेहरूकाल में संघ का विरोध एक कार्यक्रम था. अब वह अपने आप में विचारधारा बन गया है. वे समझ नहीं पा रहे हैं कि संघ के मुखिया भागवत जी जेपी और विनोबा भावे जैसे विभूतियों के समकालीन राजनीति में हो रही रिक्तता को भी पूरा करने का काम कर रहे हैं.
जिस दिन यह बात संघ विरोधियों को समझ में आ जायेगी, उस दिन संघ-विरोध एक कार्यक्रम तो रहेगा, लेकिन वह अपने आप में विचारधारा बनकर नहीं रहेगी और स्थूल संवाद देश को रचनात्मकता प्रदान करेगा.
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