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जनतंत्र को हिंसा से बचाना होगा

IIमनींद्र नाथ ठाकुरII एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू हमारा समाज एक अजीब दौर से गुजर रहा है. कौन किस बात पर नाराज हो जाये, किसकी किस अस्मिता को कब ठेस लग जाये और कब कहां और कैसे हिंसा भड़क जाये, हमें समझ नहीं आ रहा है. जाने-माने साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल के उपन्यास ‘नाकोहस’ की बात सच होती […]

IIमनींद्र नाथ ठाकुरII
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
हमारा समाज एक अजीब दौर से गुजर रहा है. कौन किस बात पर नाराज हो जाये, किसकी किस अस्मिता को कब ठेस लग जाये और कब कहां और कैसे हिंसा भड़क जाये, हमें समझ नहीं आ रहा है.
जाने-माने साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल के उपन्यास ‘नाकोहस’ की बात सच होती जान पड़ती है. ‘नाकोहस’ का पूरा अर्थ है ‘नेशनल कमिशन फॉर हर्ट सेंटीमेंट्स’. इस उपन्यास में उन्होंने यह कल्पना की है कि लोगों की अस्मिताओं पर लगे ठेस के मद्देनजर एक कमीशन बनाया गया है, क्योंकि हर छोटी सी बात पर लोग अपनी अस्मिता को लेकर लड़ने को तैयार हो जाते हैं. ऐसे समाज में सच लिखना-बोलना मुश्किल हो गया है और व्यकितगत मानवीय स्वतंत्रता का मतलब खत्म हो गया है. ‘नाकोहस’ का काम है इस तरह की समस्याओं से निबटना. लेकिन, अंत में यह कमीशन राज्य के द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने का काम करता है. आज लगभग ऐसी ही स्थिति बनती जा रही है.
उत्तर प्रदेश के हालिया हिंसा को लें, तो लगता है कि हम आनेवाले समय में खतरनाक दौर से गुजरनेवाले हैं. दंगों की संभावना पहले त्योहारों के आसपास होती थी. स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस तो भारत के ‘साझी शहादत साझी विरासत’ को मनाने के पर्व हैं.
क्या हमारे समाज की ऐसी स्थिति हो गयी है कि हम इन दो दिनों को भी साथ नहीं मना सकते हैं! सवाल यह नहीं है कि यह घटना कैसे हुई और किसने क्या किया, बल्कि सवाल यह है कि क्या हमारे समाज में सहिष्णुता खत्म हो गयी है! या फिर जिसे हम जनतंत्र समझे बैठे हैं, वह भीड़तंत्र में बदल गया है! यदि समाज जनतांत्रिक नहीं होगा, तो मतभेदों को सहन करना और उसे बहस से दूर करना उसका सहज स्वभाव नहीं होगा और ऐसे में राज्य जनतांत्रिक कभी नहीं हो सकता है.
समाजों और राष्ट्रों के बनने के इतिहास में समुदायों के बीच मतभेद होना स्वाभाविक है, उनके बीच मनमुटाव होना भी कोई बहुत अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि मानव इतिहास समुदायों के संघर्ष और गैरबराबरी के मुकाम से गुजर कर यहां तक पहुंचा है. अस्वाभाविक यह है कि जब हम सभ्यता के शिखर पर होने का दावा करते हैं और जनतांत्रिक राष्ट्र होने का दावा करते हैं, तब भी अपने इतिहास को लेकर अपना भविष्य गढ़ना चाहते हैं. दुनिया के विकसित देशों से बराबरी करना चाहते हैं, लेकिन अपना तन, मन और धन इतिहास की गलियों में फंसाये बैठे हैं.
कहीं ऐसा तो नहीं है कि पूंजीवाद के संकट के दौर में जानबूझ कर इन बातों में हमारा ध्यान भटकाया जा रहा है. एक तरफ बैंकों के नियम बदले जा रहे हैं, कुछ पूंजीपतियों के हाथों में देश की संपत्ति सिमटती जा रही है, हमारे देश के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर खर्च कम किया जा रहा है, बेरोजगारी बढ़ रही है और हम लोग पिछली सदी में वापस जाना चाहते हैं.
हमें यही नहीं मालूम है कि हम अपने मतभेदों को कैसे दूर करें, अपने से भिन्न और असहमत लोगों के साथ कैसे रहें. यह संभव है कि राजनीतिक पार्टियों के पास हमारे विकास के मुद्दे कम पड़ रहे हों, जुमलों के बल पर वोट तो बटोर लेते हैं, लेकिन बाद में उनकी निर्भरता पूंजीपतियों पर ज्यादा हो और जनता पर कम. जनता का ध्यान बटाने के लिए इस तरह के हथकंडे अपनाये जाते हों. यदि हमारा जनतंत्र ऐसा है, तो हमें मिल-बैठकर इसे ठीक करना होगा.
आधुनिक समाज में हमने यह उम्मीद की थी कि हमारे धर्म, जाति, रंग, लिंग और उससे उपजे मतभेदों से परे राज्य हमें नागरिक की तरह देखेगा और वह हमारे नागरिक अधिकारों की सुरक्षा करेगा. यह समझना जरूरी है कि यदि समाज के किसी भी हिस्से का विश्वास राज्य के इस स्वभाव से उठ गया, तो फिर राज्य का अस्तित्व ही खतरे में आ जायेगा.
लोगों में राज्य की स्वीकृति ही इसलिए है कि उससे न्याय की उम्मीद की जाती है. उसे तो पंच-परमेश्वर के रोल में होना चाहिए. उसे अलगू ने पंच बनाया या जुम्मन ने, इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. भारतीय परंपरा भी हमें यही सिखाती है. महाभारत की कथा में धृतराष्ट्र-विदुर संवाद इसका एक अच्छा उदाहरण है. जो कुछ आप अपने साथ नहीं होने देना चाहते हैं, उसे दूसरे के साथ भी न करें. सीधा सा हल है इसका. राज्य को राजधर्म का पालन करना चाहिए और राजधर्म है जनता में बिना भेद-भाव किये ही न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करना.
लेकिन, यदि राज्य अपने राजधर्म का पालन न करे, तो उस पर कौन अंकुश रखेगा? यही सवाल आज बहुत महत्वपूर्ण है. इसके लिए ही नागरिक समाज की कल्पना की गयी है. यह दायित्व समाज के बौद्धिक लोगों का है. आज की एक बड़ी समस्या यह भी है कि समाज का बौद्धिक वर्ग संस्थाओं और विचारधाराओं की चहारदीवारियों में बंद है. यदि समाज को इस अासन्न संकट से निकलना है, तो हम राजनेताओं पर निर्भर नहीं रह सकते हैं. उनके लिए तो हम सब केवल वोट हैं. यदि हमें बांटने से वोट मिलेगा, तो इसमें उनकी नैतिकता आड़े नहीं आयेगी. उनके लिए जनतंत्र एक अखाड़ा है, जहां हर दांव खेलना नैतिक है.
लेकिन, इन राजनेताओं से अलग भी एक राजनीति करने की जरूरत है, जिसमें चुनाव नहीं है, बल्कि संघर्ष है. राजसत्ता पर अंकुश रखने की क्षमता है. अब सवाल है कि जनता के साथ यह संवाद कैसे हो? और संवाद से हम वह तरीका कैसे खोजें, जिससे अपनी विभिन्नताओं को लेकर, अपने मतभेदों को लेकर साथ रह सकें, एक बेहतर समाज बना सकें.
क्या यह संभव है कि हर गांव हर शहर में पंचों की ऐसी सिमितियां बन सकें, जो संवाद का सिलसिला चला सकें, वहां होनेवाली घटनाओं का सच हमें बता सकें, न्यायपूर्ण निर्णय को आम लोगों तक ले जा सकें, जाति, धर्म और अन्य बातों से ऊपर उठकर यह कह सकें कि सच क्या है, सही क्या है. कम-से-कम सच और सही को खोजने की प्रक्रिया ही शुरू कर सकें.
राजसत्ता और राज्य से परे ऐसी सत्ता की खोज ही गांधी का प्रयास था. यदि हम ऐसे पंचों की खोज नहीं कर पायेंगे, उन्हें भय मुक्त हो सच कहने का साहस नहीं दे पायेंगे, तो फिर जनतंत्र को बचाना भी संभव नहीं हो पायेगा. झगड़ों और दंगों का सिलसिला शुरू हो जायेगा. झगड़े का कोई कारण नहीं होता है, उसे खोज लिया जाता है. यदि आपस में विश्वास की कमी हो, समाज में अन्याय हो, तो बिना किसी कारण के भी दंगे हो सकते हैं.

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