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आम बजट की भविष्यवाणी

योगेंद्र यादव संयोजक, स्वराज अभियान मैं ना तो अर्थशास्त्री हूं और न ही ज्योतिषी. लेकिन, इस बार के बजट के बारे में एक भविष्यवाणी कर सकता हूं. एक फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने बजट को किसान के नाम समर्पित करेंगे. बजट के बाद की चर्चा में सरकार के प्रतिनिधि, बीजेपी के प्रवक्ता और […]

योगेंद्र यादव
संयोजक, स्वराज अभियान
मैं ना तो अर्थशास्त्री हूं और न ही ज्योतिषी. लेकिन, इस बार के बजट के बारे में एक भविष्यवाणी कर सकता हूं. एक फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने बजट को किसान के नाम समर्पित करेंगे. बजट के बाद की चर्चा में सरकार के प्रतिनिधि, बीजेपी के प्रवक्ता और मीडिया में सरकार से भी ज्यादा सरकारी भोंपू इस बजट को गांव, खेती और किसानी के लिए एक ऐतिहासिक बजट बतायेंगे. टीवी चर्चा में उद्योग और शेयर बाजार वाले इसे ‘लोकलुभावन’ बताकर निराशा जतायेंगे, और इस शक को पुख्ता करेंगे कि हो न हो इस बार जेटली जी ने अपना दिल और झोली किसान के लिए खोल दी है.
अर्थव्यवस्था की हर रिपोर्ट, हर खबर किसान की बुरी हालत बता रही है. पहले दो साल सूखा, फिर नोटबंदी और अब फसलों के दाम में गिरावट से किसान की कमर टूट चुकी है.
लेकिन, पिछले चार साल से मोदी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंग रही थी. पिछले कुछ महीनों में हालात बदल गये हैं. देशभर से किसान असंतोष और आंदोलन के समाचार आ रहे हैं. देशभर के किसान संगठन एक मंच पर इकट्ठे होकर दिल्ली में अभूतपूर्व ‘किसान मुक्ति संसद’ में अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं. गुजरात के चुनाव परिणाम ने बीजेपी को समझा दिया है कि किसानों की नाराजगी मोल लेना महंगा पड़ सकता है. संघ परिवार भी खुलकर यह कह रहा है. अब अगर सरकार को अगला चुनाव जीतना है, तो किसानों को रिझाने का अंतिम मौका है.
अब सवाल यह है कि इस बजट में किसान समर्थक घोषणाएं अगर होंगी, तो वे सच्ची होंगी या बनावटी? किसान की झोली में सिर्फ अच्छे-अच्छे डायलॉग ही गिरेंगे या बजट में कुछ पैसा भी मिलेगा? यानी किसान के हाथ में सिर्फ झुनझुना ही होगा या कुछ और भी? अगर आपके मन में भी यह सवाल है, तो बजट देखते वक्त एक घोषणा पर ध्यान दीजियेगा. किसानों को फसल का बेहतर भाव दिलाने के लिए वित्त मंत्री क्या घोषणा करते हैं?
समस्या नयी नहीं है. किसान को अपनी मेहनत का दाम नहीं मिल रहा है. कहने को सरकार हर साल दो बार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, लेकिन देश के छह प्रतिशत किसानों को ही यह भाव नसीब हो पाता है. अधिकांश किसानों को मंडी में मजबूरी में अपनी फसल इस न्यूनतम से भी सस्ते में बेचनी पड़ती है. इस साल खरीफ की फसल में किसानों को सरकारी भाव से नीचे बेचने पर 32 हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ.
यह तो सीधे-सीधे किसान की लूट है. इसके इलावा जिसे सरकारी दाम मिल भी जाता है, वह भी लुट रहा है, चूंकि सरकारी रेट में कोई बचत नहीं है. चुनाव से पहले प्रधानमंत्री ने देश के किसानों को वादा किया था कि वे उन्हें लागत का डेढ़ गुना दाम दिलवायेंगे. अब तक उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसलिए यह बजट सरकार के लिए अपना वादा निभाने का अंतिम मौका है.
खबरों और सरकार के संकेतों से ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार या तो मध्य प्रदेश सरकार की तर्ज पर भावांतर भुगतान योजना शुरू करेगी. या वित्त मंत्री ‘मार्केट एश्योरेंस स्कीम’ (एमएएस) जैसी योजना लायेंगे. जरूर कुछ ‘प्रधानमंत्री किसान समर्थन योजना’ जैसा आकर्षक नाम होगा.
मार्केट एश्योरेंस स्कीम के तहत सरकार गेहूं और धान के अलावा बाकी फसलों की खरीद भी कर सकेगी. जब भी किसी फसल का भाव सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य से नीचे गिरेगा, तब सरकार बाजार में दखल देकर फसल की खरीद करेगी, ताकि किसान को घाटा न उठाना पड़े. यहां तक बात अच्छी है. लेकिन, पेंच यह है कि पैसा कौन सी सरकार देगी?
केंद्र सरकार ने कुछ महीने पहले ही राज्यों को इस योजना का जो प्रारूप भेजा था, उसके मुताबिक इस अतिरिक्त खरीद का सिर्फ 30 प्रतिशत बोझ केंद्र सरकार उठायेगी, बाकी खर्चा राज्य सरकार को करना होगा. दिक्कत यह है कि अधिकतर राज्य सरकारों के खजाने खाली हैं. यानी ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी. जहां लागू हो भी गयी, वहां फल-सब्जी और दूध उत्पादकों को कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि इनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित नहीं होता.
भावांतर भुगतान योजना का मूल सिद्धांत यह है कि अगर किसान को न्यूनतम सरकारी दाम नहीं मिलता, तो नुकसान की भरपाई सरकार करेगी. लेकिन मध्य प्रदेश का अनुभव देखें, तो इस स्कीम से किसान को फायदा नहीं हुआ, बल्कि इसके बहाने बिचौलियों और व्यापारियों की चांदी हुई.
जैसे ही यह योजना शुरू हुई, व्यापारियों ने उन फसलों का रेट गिरा दिया. और जिस दिन इस योजना का समापन हुआ, उसके अगले दिन दाम चढ़ गया! ठगी गयी सरकार, ठगा गया किसान. वहीं, इस योजना में किसान के लिए इतनी कागजी कार्रवाई की अनिवार्यता थी, कि सिर्फ एक-तिहाई किसान ही अपना नाम रजिस्टर करवा पाये.
तिस पर हर किसान के लिए अधिकतम फसल उत्पादन की सीमा लगा दी गयी थी, जो कई फसलों में सामान्य उपज से भी कम थी. नतीजा यह हुआ कि किसान को सामान्य से कम दाम मिले और समय पर मुआवजा भी नहीं मिला. अगर जेटली ऐसी ही कोई योजना लाते हैं, तो यह किसानों के नाम पर एक और बड़ा मजाक होगा.
अगर सरकार किसानों की अवस्था और अपने वादे के बारे में जरा भी गंभीर है, तो फसलों का वाजिब दाम दिलवाने के कई प्रयास साथ करने होंगे.
जैसे, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कम से कम लागत का ड्योढ़ा किया जाये. यह सभी कृषि उत्पाद के लिए घोषित किया जाये. अन्न, दलहन, तिलहन आदि के अलावा फल सब्जी, वन उपज, दूध और अंडा सब का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाये. सरकार इस दाम पर फसलों की खरीदी सुनिश्चित करने के लिए हर ब्लॉक में फसल खरीद केंद्र बनाये और इस खरीद का दाम केंद्र सरकार दे.
न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीची बोली मंडी में ना लगे और अगर इससे व्यापारी को घाटा हो, तो उसे सरकार भुगतान करे. सरकार अपनी आयात-निर्यात नीति में संशोधन करे- जब फसल ज्यादा हो, तो निर्यात की खुली छूट और गंभीर किल्लत होने पर ही आयात किया जाये.
अगर इस बजट में सरकार इन प्रस्तावों को लागू करने का साहस दिखाती है, तो जाहिर है किसान को राहत मिलेगी और सरकार को किसान का समर्थन भी मिलेगा. लेकिन, अगर अरुण जेटली पिछले वर्षों की तरह ही खाली डायलॉग से किसान का पेट भरना चाहेंगे, तो किसान अब यह बर्दाश्त नहीं करेगा.

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