सुभाष चंद्र गुप्त, करीम सिटी कॉलेज, जमशेदपुर
सह अस्तित्व, स्वतंत्रता, समानता, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता जैसे उदार आयामों से परिभाषित भारतीय संविधान में लोकतंत्र के जो रास्ते एवं मूल्य लिपिबद्ध किये गये हैं, वे तमाम बातें ‘मैक्ट्स‘ में तब्दील होती दिख रही हैं. जीवन एवं समाज से जुड़े उन आदर्शों तथा परिस्थितियों को नेपथ्य में धकेलने की साजिशें हो रही हैं, जो भारतीय समाज, भारतीय संविधान तथा संवैधानिक संस्थाओं के प्राण तत्व रहे हैं. देश का आधार है संविधान और संविधान का अस्तित्व नागरिक समाज से जुड़ा है. जो नागरिक, समाज अपने संवैधानिक मूल्यों और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति जितना ही प्रतिबद्ध होगा, वह देश उतना ही विकासगामी और मजबूत बनता है.
लेकिन विगत एक-दो वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में कई ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं और लगातार हो रही हैं, जिनसे समाज, संविधान, संवैधानिक संस्थाओं, अखंड राष्ट्रीयता और मानवीय सार्थकता के सामने खतरे पैदा हुए हैं. भारतीय संविधान और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति अराजक सोच रखनेवाला एक वर्ग भारतीय समाज में सिर उठा रहा है, जिनके लिए संविधान से अधिक सांस्कृतिक-धार्मिक निष्ठा महत्वपूर्ण है. दरअसल ऐसे अराजक और अराष्ट्रवादी सोच पैदा होने का मूल कारण है- इतिहास यानी अतीत और वर्तमान दोनों को एक दृष्टि से देखना. ऐसी सोच की दिशा का विश्लेषण करने से पूर्व हाल में घटित दो घटनाओं का जिक्र करना प्रासंगिक भी है और जरूरी भी. एक घटना का संबंध कट्टर धार्मिक आस्था से है और दूसरी घटना का संबंध कट्टर ऐतिहासिक आस्था से है. भारतीय संविधान कट्टरता का निषेध करता है और समरसता को महत्व देता है.
असहिष्णुता का अर्थ होता है – दूसरे समाजों, दूसरे धर्मों, दूसरी संस्कृतियों या भिन्न आस्था रखनेवालों लोगों के प्रति बहुसंख्यक समाज में पैदा होनेवाला घृणा का भाव. यह घृणा का भाव असहिष्णुता यानी सांस्कृतिक कट्टरता की कोख से जन्म लेनेवाली हिंसक कार्रवाईयां समाज में भय का वातावरण तैयार करती हैं और भय का वातावरण बनाये रखना फासीवादी ताकतों का मूल चरित्र है. स्टेट पावर से डरा हुआ आदमी, धनबल एवं बाहुबल से डरा हुआ आदमी, भीड़ के बहशीपन से डरा हुआ आदमी ऐसे वातावरण में लोकतंत्र धीरे-धीरे मरता जाता है और तानाशाही जन्म लेने लगती है. सवाल यह है कि कोई धर्मांध किसी शांत व सरल व्यक्ति की हत्या करता है, तो क्या एक आदमी को धार्मिक संतुष्टि मिलती है? निश्चित रूप से कोई सच्चा धर्मावलंबी किसी हत्या से उल्लासित नहीं होता.
सच्चे धार्मिक मन में घृणा के लिए कोई जगह नहीं होती. यदि कोई दूसरे धर्म के प्रति घृणा के भाव के साथ अपने धर्म के प्रति आस्था रखता है, तो वह धर्म की भावना से नहीं, बल्कि धर्म की राजनीति से प्रेरित है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तर्क एवं सवाल ही समाज को आधुनिक और प्रगतिशील बनाते हैं. क्या कबीर ने अपने समाज के पंडितों-मुल्लाओं से सवाल नहीं किये थे? क्या मार्टिन लूथर किंग ने पोप और चर्च के विरुद्ध सवाल नहीं उठाये थे? संकीर्णता कहीं भी सिर उठाये उसका संगठित विरोध किया जाना चाहिए.
ऐसे संगठनों, समूहों एवं व्यक्तियों को पहचानने और उनसे समाज को सावधान करने की जरूरत है, जो दूसरे धर्म और दूसरी संस्कृति से जुड़े लोगों को एक धर्म विशेष की अस्मिता के लिए खतरा बता कर उन्हें शत्रु के रूप में प्रचारित कर रहे हैं. ऐसा करके ही समाज को धर्मांधता से बचा सकते हैं, खुद को भी उन्मादी भीड़ का हिस्सा बनने से रोक सकते हैं और साझी संस्कृति, जो भारतीय गणतंत्र की आत्मा है, उसकी रक्षा कर सकते हैं.
दूसरी घटना का शोर अभी थमा नहीं है और जो संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत के विरोध से जुड़ा है. इस फिल्म को लेकर जिस तरह का उग्र हंगामा मचा है और एक-के-बाद एक कबीलाई फरमान जारी हो रहे हैं. उसने एक ओर कला की स्वायत्तता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के प्रश्न को बहस के केंद्र में ला दिया है.
स्मृति किसी समाज के अतीत का वह हिस्सा है, जिसका कोई ठोस आधार नहीं होता. स्मृतियां वाचिक परंपराओं में यात्रा करती रही हैं. इतिहास अतीत का वह हिस्सा है, जिसका ठोस आधार होता है, लेकिन ताजा अतीत वर्तमान में काम आ सकता है, पुराना अतीत नहीं. मसलन 20वीं सदी के अंतिम दशक की सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक परिघटनाएं हमारे लिए आज जितनी विचारणीय हैं, उतनी 20वीं सदी के आरंभिक दशकों की घटनाएं नहीं. लेकिन विडंबना है कि हम पुराने इतिहास को बार-बार याद करने लगते हैं, जो खतरनाक प्रवृत्ति है. इतिहासकार एच कार की एक किताब है व्हाट इज हिस्ट्री, जिसमें वे लिखते है कि इतिहास की सबसे सही व्याख्या समाज के भविष्य को निगाह में रख कर ही हो सकती है.