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हमारे गणतंत्र की गरिमा

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया कुछ दशक पहले हमारे पूर्वजों ने विदेशी दासता और आंतरिक जड़ताओं से मुक्त होने की परिकल्पना में एक गणतांत्रिक राज्य की स्थापना की थी. यह ऐसी व्यवस्था की परिकल्पना थी, जो प्राचीन वर्ण भेद, वर्ग भेद और लिंग भेद इत्यादि के उत्पीड़क विचार और व्यवस्था […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
कुछ दशक पहले हमारे पूर्वजों ने विदेशी दासता और आंतरिक जड़ताओं से मुक्त होने की परिकल्पना में एक गणतांत्रिक राज्य की स्थापना की थी. यह ऐसी व्यवस्था की परिकल्पना थी, जो प्राचीन वर्ण भेद, वर्ग भेद और लिंग भेद इत्यादि के उत्पीड़क विचार और व्यवस्था के विकल्प के रूप में समतामूलक हो. इसे ठोस आधार देने के लिए संविधान का निर्माण किया गया और संविधान में सभी शक्तियां समाहित कर दी गयी. लेकिन, यह आसान नहीं था. संवैधानिक व्यवस्था और पहले से चली आ रही सामाजिक रूढ़ियों से संचालित व्यवस्था के बीच टकराव स्वाभाविक था और यह हुआ और अब भी जारी है.
संविधान में सभी शक्तियों का निहित हो जाना निस्संदेह क्रांतिकारी बदलाव था, क्योंकि इससे पहले ये शक्तियां किसी व्यक्ति, समूह, संस्था, लिंग या जाति के हाथों में थीं. संविधान निर्माताओं की विद्वता इस बात में थी कि उन्होंने भारत का भविष्य भारत के इतिहास के किसी कालखंड विशेष को आधार बनाकर तय नहीं किया, बल्कि भारतीय समाज के सतत् विकास पर अपना विचार केंद्रित किया. यही वजह है कि आज का हमारा संविधान किसी समूह, संप्रदाय या इतिहास की किसी खास प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करता.
यह समग्र समूहों के लिए समान हितों का प्रतिनिधित्व करते हुए हमारी बहुलता और सामासिकता को स्थापित करता है. संविधान की प्रस्तावना में ही इसका उद्घाटन है.
आजादी के बाद सबसे बड़ी चुनौती संविधान को लागू करना था. क्योंकि संवैधानिक व्यवस्था में परंपरागत सामाजिक व्यवस्था की रूढ़ियों का निषेध है. हमारे देश की चुनौती आज भी यह है कि समाज में मौजूद वर्णगत रूढ़ियों से उपजे जातिवाद, लैंगिकता और सामंती मूल्यों का सामना कैसे करें? यानी आज हम दो व्यवस्थाओं को जीते हैं- एक संविधान प्रदत्त समाज व्यवस्था और दूसरा प्राचीन रीति-विधानों से संचालित समाज व्यवस्था. इन दोनों के बीच परस्पर संघर्ष जारी रहता है.
आज भी प्रभुत्वशाली समूहों को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि ‘कोर्ट-कचहरी क्या कर लेगा?’ यानी सामाजिक न्याय और समता का हस्तांतरण संविधान द्वारा ही संभव है, लेकिन कुछ समूह अपनी पुरानी सामाजिक व्यवस्था की शक्तियों का हवाला देकर प्रभुत्व कायम करते हैं. हमारे देश के गांव तो अब भी संवैधानिक व्यवस्था के लाभ से वंचित हैं. आधुनिक गणतंत्र की पहुंच अभी वहां तक नहीं हुई है.
भारतीय संविधान की कुछ महत्वपूर्ण विशिष्टताओं को रेखांकित किया जा सकता है- मूल अधिकार एवं मूल अधिकारों के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामासिकता और लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक समाज की पहली शर्त है.
जब हमारे देश ने लोकतंत्र की दिशा में कदम बढ़ाया, तो उसे प्राथमिक रूप से उन प्राचीन वर्चस्वकारी समाज व्यवस्था का विकल्प तैयार करना था, जो अब तक केवल खास समूहों को अभिव्यक्ति की आजादी देता था. अभिव्यक्ति का अपहरण दासता का प्रतीक है. इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी को आधुनिक लोकतांत्रिक समाज की रीढ़ माना जाता है.
दूसरा, भारतीय समाज इतिहास के जिन चरणों से होकर निर्मित हुआ है, उसके लिए सामासिकता की जरूरत थी. भारतीय समाज बहुलतावादी समाज है, जो विभिन्न भाषाओं, धर्मों, संस्कृतियों और जीवन व्यवहारों का समन्वय है. इसी रूप में ‘सामासिकता’ के निर्वहन को संविधान के मूल कर्तव्यों में विशिष्ट रूप में शामिल किया गया. इन सबका लक्ष्य था लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना, एक ऐसा राज्य जो अपनी जनता के प्रति उत्तरदायी हो. इन सभी संवैधानिक प्रावधानों ने भारतीय गणतंत्र की गरिमा को वैश्विक समाज के बीच स्थापित किया और भारतीय गणतंत्र दुनिया की बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में एक माना जाने लगा.
लेकिन, सामाजिक संरचना की आंतरिक जटिलताओं के कारण हम संवैधानिक लक्ष्य को हासिल करने में लगातार पिछड़ते गये हैं. खासतौर पर नब्बे के दशक की दो महत्वपूर्ण घटनाओं ने संविधान की गरिमा को आहत किया. एक तो वैश्वीकरण की परिघटनाओं के प्रभावस्वरूप नवउदारवादी व्यवस्था, जिसने लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना की जगह पूंजीवादी व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया. यह गणतंत्र की अवधारणा के ही विरुद्ध है. इसने गांधी के ग्राम गणतंत्र की योजना का निर्मूल कर दिया. इसने ‘सेज’ जैसी नीतियों के जरिये ‘कॉरपोरेट’ पर अपना ध्यान केंद्रित किया.
विकास के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आतार्किक निवेश ने देश के किसानों, मजदूरों और आदिवासियों को क्रूरतापूर्वक विस्थापित एवं आंदोलित किया. दूसरी घटना थी बाबरी मस्जिद का ध्वंस और उससे फैली सांप्रदायिक वैमनस्यता. विवादों का समाधान संविधान प्रदत्त संस्थाओं के द्वारा होना चाहिए न कि किसी समूह की भावनाओं और आकांक्षाओं के द्वारा. बाबरी मस्जिद के ध्वंस की घटना ने यह संकेत दिया कि संवैधानिक संस्थाएं भी उन्मादियों के समक्ष अक्षम हो सकती हैं.
इस घटना ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और वैमनस्य की राजनीति को बल दिया. आज उस घटना के दो दशक बाद पहले से ज्यादा राजनीतिक रूप में वैमनस्यता उभर रही है. अब कुछ कट्टरवादी संस्थाएं प्रत्यक्ष रूप से नागरिकों के खाने-पीने और सोचने-विचारने पर सीधे हस्तक्षेप कर रही हैं. दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों पर बढ़ रहे हमले संविधान की गरिमा के खिलाफ हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों का लोकतंत्र पर खतरे की बात करना हमारे गणतांत्रिक भविष्य के प्रति चिंता को प्रकट करता है.
गणतंत्र दिवस हमारी आजादी का एक बड़ा त्योहार है. हमारे गणतंत्र की गरिमा केवल राजपथ के उत्सव तक सीमित न हो. हमारे समाज की जटिलताएं अब भी संवैधानिक व्यवस्थाओं को स्वीकारने में असहज महसूस करती हैं. सवर्णों को दलित जातियों के हित असहज करते हैं, पुरुषों को स्त्रियों की आजादी खटकती है. किसानों, मजदूरों की बातें सरकारों को बोझ लगती हैं.
ऐसे में हम कैसे गणतंत्र को फलीभूत होते हुए देख सकेंगे? हमें यह स्मरण करना होगा कि स्वाधीनता सेनानियों की शहादत जनता के लिए हुई है, किसी राजनीतिक दल के एजेंडे के लिए नहीं. हमें गणतंत्र को लागू करने के लिए अपने अंदर के अंतर्विरोधों से सामूहिक रूप से संघर्ष करना होगा.

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