मयनागुड़ी : एम्बुलेंस दादा के नाम से लोकप्रिय करीमुल हक को देश का एक श्रेष्ठ सम्मान पद्मश्री मिलने जा रहा है. समाज सेवियों की मदद से वे सम्मान ग्रहण करने के लिये दिल्ली जा भी रहे हैं. लेकिन उनके सामने आज भी समस्याओं का पहाड़ है. पद्मश्री मिलने के बाद आमजनों की उम्मीदें करीमुल हक के प्रति काफी बढ़ गयी हैं. लोगों की धारणा है कि करीमुल को काफी धन भारत सरकार से मिला है. हालांकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है.
उन्हें तो दिल्ली जाने और वहां ठहरने के लिये आर्थिक मदद तक प्रशासन से नहीं मिल पायी है. असहाय व गरीब मरीजों को अपने बाइक एम्बुलेंस से अस्पताल पहुंचाने वाले करीमुल हक की जिंदगी आज भी उतनी ही मुश्किल भरी है जितनी पहले थी. इन सभी कठिनाईयों के बावजूद करीमुल हक सामाजिक सहयोग लेकर चार स्कूल चला रहे हैं. असहाय लोगों के लिये अस्पताल की परियोजना पर भी काम कर रहे हैं. लेकिन उनकी मासिक आय चाय श्रमिक के बतौर मात्र पांच हजार रुपए है. आज वे जो कुछ सेवा कार्य कर रहे हैं वह समाज से सहयोग और अपने आत्मबल के बल पर.
माल प्रखंड अंतर्गत क्रांति ग्राम पंचायत के धलाबाड़ी गांव के निवासी करीमुल हक की जिंदगी ने कई साल पहले एक नया मोड़ लिया जब आंधी-पानी में एम्बुलेंस के अभाव में वह अपनी अस्वस्थ मां को अस्पताल नहीं ले जा सके और उनकी मृत्यु हो गयी. उस घटना ने एक संकल्प को करीमुल हक के मन में जन्म दिया. उन्होंने फैसला लिया कि किसी तरह वह एक मोटरसाइकिल खरीदकर उसे एम्बुलेंस बनाकर असहाय व गरीब मरीजों को अस्पताल पहुंचाया करेंगे ताकि उनकी मां की तरह किसी की जान नहीं जाये.
उसके बाद ही करीमुल हक एम्बुलेंस दादा के नाम से मशहूर हो गये. इनकी यह सेवा व कर्मठता की गूंज केंद्र सरकार तक पहुंची और उन्हें राष्ट्रीय स्तर के पद्मश्री पुरस्कार के लिये चुन लिया गया. लेकिन इस पुरस्कार मिलने बावजूद करीमुल को किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं मिली. आज भी उनकी आय एक चाय श्रमिक के बतौर मिलने वाले 5000 रुपए वेतन ही है. इस आय पर उनकी पत्नी और दो बेटे निर्भर हैं. एक अंतरंग भेंटवार्ता में करीमुल हक ने बताया कि पद्मश्री मिलने के पहले वे लोगों से पुराने कपड़े मांगकर गरीब व असहाय लोगों को मदद करते थे. लेकिन जब से उन्हें पद्मश्री मिलने के बाद से लोगों की धारणा बनी है कि उन्हें भारत सरकार से काफी धन मिला होगा. जबकि हकीकत कुछ अलग ही बयान करता है. हालात तो यह है कि उनके पास दिल्ली पद्मश्री लेने के लिये किराये के रुपए तक नहीं थे.
यह तो गनीमत है प्रभात खबर के असर से किसी समाज सेवी ने उनके दिल्ली आने जाने की व्यवस्थ करायी जिसके बाद उन्होंने दिल्ली जाने का निश्चय किया है. करीमुल का कहना है कि उन्हें पद्मश्री के रुप में पदक और मानपत्र जरूर मिले हैं लेकिन किसी तरह की आर्थिक मदद या सुविधा प्रशासन की ओर से नहीं मिली है. बहुत से लोगों ने तो उन्हें पद्मश्री मिलने के बाद पुराने कपड़े तक देना बंद कर दिया है. उन्हें लगता है कि यह तो बड़े आदमी हो गये हैं.
अब इन्हें पुराने कपड़ों की भला क्या जरूरत? अब उन्हें क्या पता कि समाज सेवा के लिये इंसान को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. इन सब कठिनाइयों के बावजूद आज अपने आत्मबल पर करीमुल हक चार चार नि:शुल्क विद्यालय चला रहे हैं. एक दातव्य चिकित्सालय खोलने के लिये भी प्रयासरत हैं. ये सब वे सामाजिक संगठनों और व्यक्तियों की मदद के सहारे करने की सोच रहे हैं.