मशहूर शायर बशीर बद्र ने कभी लिखा था- ‘उड़ने दो परिंदों को अभी शोख हवा में/फिर लौट के बचपन के जमाने नहीं आते’. आज जब हम खबरों पर नजर डालते हैं, तो यही लगता है कि चिड़ियों-से चहचहाते बच्चों को कोई बुरी नजर लग गयी है और शायद बड़ों में भी वह संवेदनशीलता बाकी नहीं कि बचपन को चहकने दें.
लखनऊ में छठी कक्षा की एक बच्ची ने पहली कक्षा के एक बच्चे की जान बस इस वजह से लेनी चाही कि स्कूल में समय से पहले छुट्टी हो जाये. पिछले साल गुड़गांव में 11वीं के छात्र ने दूसरी कक्षा के छात्र की हत्या इसलिए कर दी कि परीक्षाएं और अभिभावक-शिक्षक टल जायें. दोनों ही मामलों में स्कूल प्रबंधन की खामियां सामने आयी हैं. लखनऊ में जो आरोपित छात्रा है, वह पहले एक बार अपने हाथ की नस काटने का प्रयास कर चुकी है और कक्षा में भी उसका व्यवहार ठीक नहीं था. ऐसे में स्कूल प्रबंधन को उसे मनोवैज्ञानिक मदद उपलब्ध करानी चाहिए थी. इस घटना के सच को छुपाने की कोशिश भी निंदनीय है.
गुड़गांव-स्थित विद्यालय का रवैया भी पहले कुछ दिनों तक ऐसा ही था. शिक्षा के नाम पर मोटी फीस वसूलनेवाले अनेक निजी स्कूलों पर गंभीर लापरवाही के मामले लगातार सामने आते हैं. बच्चों के मानसिक, मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक आचरण पर निगाह रखना भी उनकी जवाबदेही है. अक्सर माता-पिता भी यह समझते हैं कि उन्होंने बच्चे का दाखिला किसी नामचीन स्कूल में करा दिया, तो उनकी जिम्मेदारी खत्म हो गयी. बच्चों के व्यवहार में किसी भी तरह के नकारात्मक बदलाव की अनदेखी नहीं करनी चाहिए.
स्कूली बच्चों पर भारी-भरकम बस्तों और होमवर्क तथा ज्यादा अंक लाने के दबाव पर अदालती निर्देश आ चुके हैं और विशेषज्ञों ने भी चेताया है. यह भी देखा गया है कि शिक्षकों और कर्मचारियों के प्रशिक्षण को लेकर भी स्कूल गंभीर नहीं हैं. हत्या, आत्महत्या और हिंसक हमले की घटनाएं होने पर भी न तो सुधार के संकेत दिखायी देते हैं और न ही समाज या सरकार की तरफ से किसी तरह का दबाव बनाया जा रहा है.
आखिर बच्चों से उनका बचपन छीनकर हम कैसा भविष्य बनाना चाह रहे हैं. स्कूल अपने ब्रांड की चिंता करें और अभिभावक कमाने में व्यस्त रहें तथा बच्चों पर इनका दबाव हो कि वे बेहतर अंकों के साथ पास हों- इसके खतरनाक परिणाम सामने आने लगे हैं. परीक्षाओं से पहले और बाद में छात्रों के आत्महत्या की खबरें आम हो चली हैं.
बचपन का यह बिगड़ता रूप उच्च शिक्षा तक भयावह स्थिति पैदा कर रहा है. हर घंटे एक छात्र आत्महत्या कर रहा है. वर्ष 2014-16 के बीच 26 हजार से अधिक छात्रों ने खुदकुशी की है और हर साल ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है. समय की मांग है कि बच्चों को मरने-मारने से बचाने के लिए स्कूलों और सरकारों के साथ समाज को आत्ममंथन कर सकारात्मक पहलकदमी करनी चाहिए.