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पतियों का लोकतंत्र खतरे में!

अंशुमाली रस्तोगी टिप्पणीकार मैं चिंतित हूं. जानता हूं, चिंता को चिता समान बताया गया है. फिर भी मैं चिंतित हूं. अगर आप मेरी चिंता का रहस्य जानेंगे, तो आप भी निश्चित ही चिंतित हो उठेंगे. मैं चिंतित इस बात से नहीं हूं कि लोकतंत्र खतरे में है! दरअसल, हमें विश्वास है कि हमारा लोकतंत्र कभी […]

अंशुमाली रस्तोगी
टिप्पणीकार
मैं चिंतित हूं. जानता हूं, चिंता को चिता समान बताया गया है. फिर भी मैं चिंतित हूं. अगर आप मेरी चिंता का रहस्य जानेंगे, तो आप भी निश्चित ही चिंतित हो उठेंगे.
मैं चिंतित इस बात से नहीं हूं कि लोकतंत्र खतरे में है! दरअसल, हमें विश्वास है कि हमारा लोकतंत्र कभी खतरे में हो ही नहीं सकता. मैं जानता हूं- सेना, सरकार और नेता लोग मिलकर हमारे लोकतंत्र की बेहतर तरीके से रक्षा कर रहे हैं.
इससे इतर, मेरी चिंता का कारण पतियों का लोकतंत्र खतरे में होने से है. अपने शादीशुदा जीवन को स्टेक पर लेकर मैं यह बात खुली जबान से कहना चाहता हूं कि पत्नियों ने हम पतियों के लोकतंत्र को विकट खतरे में डाला हुआ है.
चाहता तो मैं यहां सिर्फ अपने लोकतंत्र के खतरे में होने की बात कहकर सकता था, लेकिन नहीं. मुझे अपने साथ-साथ देश के समस्त पतियों के लोकतंत्र की भी चिंता है. चिंता हो भी क्यों न! हम पति हैं तो क्या… आखिर हम भी इंसान हैं. दर्द हमें भी होता है. हम भी अपने लोकतंत्र में खुलकर सांस लेना चाहते हैं.
अपनी इस चिंता को मैं अब से नहीं, बल्कि कई सालों से मन के भीतर दबाये हुए हूं. खुलकर कभी कहा-बोला इसलिए नहीं कि दुनिया उल्टा मुझे ही स्त्री-विरोधी न घोषित कर दे. खुद पत्नी ही मुझ पर चौड़ी न हो ले. लेकिन, सहन करने की भी एक सीमा होती है महाराज. और, इस सत्य को तो कोई झुठला सकता ही नहीं कि शादीशुदा जीवन में जितना एक पति सह लेता है, उतना पत्नियां नहीं. जनता हूं… जनता हूं… यह सुनकर पत्नी बिरादरी को बुरा जरूर लगा होगा. लेकिन, मैं अब चुप नहीं रहूंगा.
वो तो उस दिन जज सहेबानों के बेबाक बोलों को सुनकर मेरे भीतर का जमीर भी जाग गया. नहीं तो मैं यों ही पत्नी से मिले रंजोगम को बर्दाश्त करता रहता.
क्या मजाक समझ रखा है हम पतियों को! जब, जहां, जैसे चाहो लट्टू की मानिंद नचा लो. मायके की धमकी के दम पर हमसे खाना बनवा लो. बच्चे संभलवा लो. बर्तन मंजवा लो. साग-सब्जी मंगवा लो.
शॉपिंग के लिए क्रेडिट कार्ड समर्पित करवा लो. तुम फ्लर्ट करो तो ठीक, पति जरा निगाह उठाकर देख भी ले तो हजारों जली-कटी बातों के अफसाने.
भला कोई कब तक सहे. कभी न कभी तो ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे…’ जैसा दुस्साहस करना ही पड़ेगा न. मतलब यह कि ऑफिस में बॉस का झिड़कियां झेलो, और घर में पत्नी की ऐंठ…. न न न… ये तानाशाही अब नहीं चलेगी.
जब पतियों के खतरे में पड़े लोकतंत्र को बचाने का बीड़ा मैंने उठा ही लिया है, तो यह संघर्ष ऐसे ही चलेगा. जिन पतियों में साहस हो, वे मुझसे जुड़ सकते हैं. लोकतंत्र चाहे देश का हो या पति का, हर हाल में उसकी हिफाजत जरूरी है. फिर चाहे लाख तूफां आये, या जान भी जाये, पर कदम अब न पीछे हटेंगे, न डिगेंगे.

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