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मकर संक्रांति आते ही ढेंकी की आवाज से गूंजता था घर, अब खत्म हो रही है परंपरा

!!रंजन कुमार गुप्ता, जादूगोड़ा!! ढेंकी से धान कुटने की झारखण्ड में पुरानी परंपरा रही हैं. पहले गांव के प्रत्येक घरों में ढेंकी हुआ करती थी. गांव में सुबह तीन बजे से ही गांव के घरों में ढंके की ढक-ढक आवाज सुनने को मिलती थी. इसकी आवाज सुनकर ही लोग उठ जाते थे और अपनी दैनिक […]

!!रंजन कुमार गुप्ता, जादूगोड़ा!!

ढेंकी से धान कुटने की झारखण्ड में पुरानी परंपरा रही हैं. पहले गांव के प्रत्येक घरों में ढेंकी हुआ करती थी. गांव में सुबह तीन बजे से ही गांव के घरों में ढंके की ढक-ढक आवाज सुनने को मिलती थी. इसकी आवाज सुनकर ही लोग उठ जाते थे और अपनी दैनिक क्रिया में लग जाते थे. वहीं आत आधुनिकता व मशीनीकरण ने ढेंकी से धान कूटने कर परंपरा पर अंकुश लगा दिया हैं. अब प्रत्येक गांव में मात्र दो-चार ही ढेंकी रह गयी हैं. इस तरह ढेंकी आज प्रायः विलुप्त होने की कगार पर हैं. आने वाले कुछ वर्षो में नयी पीढ़ी के लिये ढेंकी दर्शनीय वस्तु बन कर रह जायेगी. आज जिसके भी घरों में ढेंकी हैं, उसका उपयोग मात्र बांधना और मकर पर्व के अलावा विशेष त्योहारों में किया जाता हैं.
मकर पर्व में ढेंकी, गुड़ी और गुड़ का अहम महत्व
किसानों के घरों में धान आने के बाद ही लोग मकर पर्व का इंतजार करते हैं. मकर संक्रांति में प्रत्येक परिवार के लोग नये कपड़े व नये चावल से बनाये गये पीठा खाने का इंतजार करते हैं. इसलिए मकर के पूर्व बाउंड़ी के दिन चाल धुंआ के दिन ही पीठा के लिए ढेंकी में चावल कुटते हैं. इसलिए यह दिन गुड़ी, गुड़ और चावल का अहम दिन होता हैं. बांउड़ी की रात को गुड़ का मिश्रण कर स्वादिष्ट पीठा बनाया जाता हैं. मकर के पूर्व से ही दुकानों में गुड़ देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ग्रामीण अंचल में पीठा बनाने के लिए कितनी गुड़ की खपत होती हैं.
ग्रामीण बच्चों में मकर पर्व से उत्साह
मकर संक्रांति के पूर्व संध्या को तालाब-नदी के सामने युवक एवं बच्चों द्वारा मकर संक्रांति की सुबह को मकर स्नान के बाद आग सेंकने के लिए लकड़ी व गोइठा की व्यवस्था करते है, जिसे स्थानिय भाषा में ओघिरा जलाना कहते हैं. बच्चे सुबह स्नान कर नये कपड़े पहन खुशी के उन्माद में रम जाते हैं.
टुसू पूजा करने की है परंपरा
हालांकि इधर टुसू पूजा करने की परंपरा में कमी देखी जा रही हैं. फिर भी गांव के इक्के-दुक्के घरों में अभी भी टुसू देवी की स्थापना कर पूजा करने की परंपरा हैं. प्रायः लोग मकर संक्रांति के एक दिन पूर्व टुसू की प्रतिमा का स्थापना करते है व रात टुसू गीत गाकर जागरण करते हैं.
टुसू मेला की है पूरानी परंपरा
मकर संक्रांति के बाद प्रायः बड़े-बड़े गांव में टुसू मेला का आयोजन किया जाता हैं. मेला जहां लोगो को एक दूसरे परिवार से मिलने का स्थल होता हैं, इसलिए इसका नाम मेला कहा गया हैं. एक तरह से मेला छोटे-छोटे दुकानदारों के लिए रोजगार का साधन भी हैं.
मुर्गा पाड़ा का भी है प्रचलन
देखा जा रहा है कि जहां-जहां मेला का आयोजन किया जाता हैं. वहां मुर्गा पाड़ा का भी प्रचलन हैं. पूर्व में प्रायः प्रत्येक घरों में मुर्गा रखा जाता था. उन दिनों मुर्गा पाड़ा छोड़ मनोरंजन का और दूसरा साधन नही था. किसान मनोरंजन के लिए पाड़ा में मुर्गा लड़ाई कराते थे, लेकिन आज समय बदल गया हैं. किसानों के पास मनोरंजन के लिये अन्य साधन भी उपलब्ध हैं, इसलिए अब मुर्गा पाड़ा में किसान नही, बल्कि मुर्गा पाड़ा के आदी लोगों को ही ज्यादा पाड़ा खेलते देखा जा रहा .

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