!!अनुज लुगुन!!
भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता भाषा और साहित्य की प्रसिद्ध संस्था है. यह भारतीय भाषाओं और साहित्य की उन्नति के लिए काम करती है. यह संस्था हर साल भारतीय भाषा साहित्य के साहित्यकारों को सम्मानित करती है. इस साल की समग्र युवा रचनाशीलता के लिए ‘भारतीय भाषा परिषद सम्मान’ मुझे देने की घोषणा हुई है. इस घोषणा से मैं अभिभूत हूं. यह सम्मान 10-11 मार्च, 2018 को एक समारोह-सह-राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिया जायेगा.
इसे भी पढ़ें : झारखंड के साहित्यकार अनुज लुगुन को मिलेगा ‘युवा साहित्य सम्मान’
बचपन से ही मुझमें लिखने का जुनून रहा है. इसके लिए मैंने साहित्य का रास्ता ही चुना. शुरू में किशोर भावुकता वाली रचनाएं होती थीं, जो धीरे-धीरे अध्ययन और अनुभव क्रम में वैचारिक होती गयी. अब मैं महसूस करता हूं कि प्रत्येक रचनाकार का अपना मजबूत वैचारिक पक्ष होना चाहिए. बिना वैचारिकी के हम दिशाहीन होते हैं, लेकिन हमें यह ध्यान देना होता है कि विचारधारा किसी के मनुष्य होने के ऊपर हावी न हो. चूंकि मेरा संबंध आदिवासी समुदाय से है, इसलिए मेरी रचनाओं की प्राथमिक चिंता में आदिवासी समाज दिखाई देता है.
आदिवासी समाज की वर्तमान स्थिति, उसका इतिहास, उसका दर्शन इत्यादि बिंदुओं के बारे में अब भी वैश्विक दुनिया अधूरी और भ्रामक जानकारी रखती है. यही वजह है कि आदिवासी समाज का उसके साथ लंबे समय से संघर्ष चलता आया है. यह संघर्ष दुनिया भर में आज भी जारी है और हमारे देश के अंदर भी जारी है. मुझे चिनुआ अचीबे का एक कथन प्रेरित करता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘हिरण जब तक अपना इतिहास नहीं लिखेंगे, तब तक हिरणों के इतिहास में शेरों की गाथाएं गायी जाती रहेंगी’.
मेरा मानना है कि वंचित समुदायों को खुद सामने आकर अपने को विचार, चिंतन एवं कला के हर रूप में अभिव्यक्त करना होगा. चाहे वे स्त्री हो, दलित हों, आदिवासी हों या अन्य. इसके साथ ही, एक बात मैं यहां यह भी जोड़ना चाहूंगा कि वंचितों की मुक्ति अकेले संभव नहीं है. इसके बृहद स्तर पर सहधर्मियों की खोज की जानी होगी. अमनपसंद हर समुदाय के लोगों को इससे जुड़ना और जोड़ना होगा. हमारा लक्ष्य कोई द्वीप का निर्माण करना नहीं, बल्कि एक बेहतर सहजीवी संसार का निर्माण करना है.
लोग कहते हैं कि वंचितों का साहित्य या अस्मितावादी साहित्य बंटवारे का साहित्य है. ऐसा नहीं है. एक सार्थक साहित्य कभी भी विभाजक नहीं हो सकता. वह अपने अंदर तीखे सवालों को दर्ज करता है, उसकी बेचैनी परेशान करती है, लेकिन वह अंतत: लोकतांत्रिक मूल्य की मांग करता है. हमें दो नजरिया रखना चाहिए. एक ओर अस्मिता के स्वर के अंदर मौजूद लोकतांत्रिक मूल्यों को पहचानने की जरूरत है, वहीं दूसरी ओर अस्मिता के अंदर आत्मालोचना का होना बहुत जरूरी है.
मैं खुद को एक रचनाकार के रूप में सहज पाता हूं. आदिवासी जमीन पर खड़े होकर मैं मनुष्य के जीवन और उसके विश्व-बोध को समझने की कोशिश करता हूं. आदिवासियत की बात करता हूं, लेकिन इसका कोई संकीर्ण दायरा नहीं चाहता और न ही आदिवासियत कोई संकीर्ण दायरा है. एक रचनाकार समग्र विश्वबोध के साथ खुद को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करता है. मैं अपनी रचनाओं में भी यही कोशिश करता हूं.
मेरी कविताओं को लेकर आमतौर पर शिकायत रहती है कि कविताओं का एकस्वर है. उसकी संकीर्ण परिधि है. अस्मिताओं की लेखनी के साथ यह शिकायत आम है, लेकिन जिस तरह से हम अपनी दुनिया को जीते हैं, उसको महसूसते हैं, यह उसका विश्वबोध है. इस विश्वबोध को समझने की जरूरत है. मेरी नयी कविता की पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. यह एक लंबी कविता है. ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ कविता का मूल स्वर सहजीविता है. जनसंघर्षों की जरूरत सहजीविता के लिए ही है.
‘सुगना मुंडा की बेटी’ को लगता है जातिगत जड़ताएं, पूंजीवाद, उससे फैलता साम्राज्यवादी हिंसा और उसके बाइप्रोडक्ट के रूप में उपजी सांप्रदायिकता, वैमनस्य और प्रकृति के अंतहीन दोहन का जवाब सहजीविता ही है. एक रचनाकार के नाते मैं भी सहजीवी होना चाहता हूं. भारतीय भाषा परिषद के सम्मान को मैं उसी सहजीविता को समर्पित करता हूं.