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स्वामी विवेकानंद 155वीं जयंती : विवेकानंद की बैद्यनाथ यात्रा

आध्यात्मिक चेतना, सांस्कृतिक गौरव और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए स्वामी विवेकानंद द्वारा दिये गये सूत्र और वैचारिकी आज और भी प्रासंगिक हैं. उनके दौर की तुलना में वर्तमान समय में बहुत अधिक हिंसा, भेदभाव, अवसाद और बेचैनी है. वे युवाओं को भविष्य के निर्माण का अगुवा मानते थे. भारत में बड़ी आबादी युवाओं […]

आध्यात्मिक चेतना, सांस्कृतिक गौरव और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए स्वामी विवेकानंद द्वारा दिये गये सूत्र और वैचारिकी आज और भी प्रासंगिक हैं. उनके दौर की तुलना में वर्तमान समय में बहुत अधिक हिंसा, भेदभाव, अवसाद और बेचैनी है. वे युवाओं को भविष्य के निर्माण का अगुवा मानते थे. भारत में बड़ी आबादी युवाओं की है. स्वामी विवेकानंद की जयंती पर उनके दिखाये मार्ग पर चलने का संकल्प लेकर हमें आगे की सामूहिक यात्रा पर गमन करना चाहिए.
उमेश कुमार, सचिव, झारखंड शोध संस्थान, देवघर
बात वर्ष 1887 के पूर्वाद्ध की है. बेलूर मठ की संभावनाओं पर विचारते हुए स्वामी विवेकानंद का मन तीव्र अकुलाहट से भर चुका था. मठ के कुछ तरुण संन्यासी मठ की चहारदीवारी से निकल कर विस्तृत संसार का संजीव ज्ञान प्राप्त करने तीर्थ यात्रा पर चले गये थे. स्वामीजी इसे चिंतन स्तर की एक स्वाभाविक यात्रा मान रहे थे, क्योंकि उनका अपना मन भी पिछले दो बरस से उड़ निकलने को छटपटा रहा था.
यह क्या कि उन्होंने घर-द्वार की चांदी की जंजीर तो तोड़ दी और अब संघ के सोने की जंजीर पहने रखें! स्वामीजी ने शायद मठ के अदृश्य बंदी-गृह को पहचान लिया था. ऐसी स्थिति में अपने संस्कारों की रक्षा के लिए स्वामीजी को यह अनिवार्य लगा कि वे कुछ दिनों के लिए मठ से, उसकी परिमित दिनचर्या से अपने को अलग कर लें. उस भारत को नजदीक से देखें, जहां करोड़ों नर-नारी वेदना और बेबसी के न जाने कितने स्तरों को जी रहे हैं. इन अनुभूतियों से गुजरने का सहज माध्यम तीर्थाटन था. ऐसे में स्वामीजी ने तीर्थनगरी देवघर की राह चुनी. देवघर की महकती वादियों ने झूम कर उनका इस्तकबाल किया. वे अपने प्रिय शिष्य प्रियनाथ मुखोपाध्याय की पुरनदाहा स्थित कोठी ‘आनंद कुटीर’ में ठहरे और बाबा बैद्यनाथ के दरबार में जाकर उनकी अर्चना की.
स्वामीजी की सिमुलतला यात्रा
स्वामीजी जब देवघर आये, तब उनकी सेहत कुछ ठीक नहीं थी. पर जब तक उनकी रुखसती का वक्त आन पहुंचा, तब तक वे खिल चुके थे. देवघर की पुरसुकून तन्हाई और कुदरती खूबसूरती के बीच बीते लम्हे उनकी स्मृति में किसी रंग-बिरंगे इंद्रधुनष की तरह टंगे रहे. इस धरती पर पहली बार आने का सुखद अहसास उनके अंदर के यायावर को आवाज देता रहा, जिसे अनसुना करना उनके लिए कठिन हो गया. जून, 1889 में स्वामीजी फिर से तीर्थ-यात्रा पर निकले. देवघर आने से पहले स्वामीजी निकटस्थ सैरगाह सिमुलतला (वर्तमान में जमुई जिलांतर्गत) चले गये, जो जमाने से बंगाली ‘भद्रलोकों’ की पसंदीदा जगह रही है. जिन दिनों स्वामीजी सिमुलतला पहुंचे, वहां जून की भीषम गर्मी पड़ रही थी.
स्वामीजी की तबीयत खराब हो गयी. बेहाल हुए स्वामीजी को बाद में अपने एक शुभचिंतक बलराम बोस को लिखना पड़ा- ‘मेरे पूर्वाश्रम के एक संबंधी ने सिमुलतला (बैद्यनाथधाम के पास) एक बंगला खरीदा है. स्थान स्वास्थ्यवर्द्धक होने के कारण मैं कुछ दिन वहां ठहरा था. परंतु भयंकर गर्मी के कारण मुझे दस्त की बीमारी हुई और मैं वहां से भी चला आया हूं.’ इस पत्र से स्वामी जी शारीरिक उलझनों से ज्यादा मानसिक स्फोटों को पता चलता है. बहरहाल, 1889 में स्वामीजी ने दोबारा देवघर स्थित अपने शिष्य प्रियनाथ की कोठी का रुख किया.
दढ़वा नदी किनारे की सैर
स्वामीजी इस कोठी में तीन-चार दिन तक रहे. इस दौरान वे हर शाम दढ़वा नदी किनारे टहलने जाया करते थे. दढ़वा नदी के तट पर उन दिनों घने सायेदार वृक्षों एवं फूलों के झाड़ थे, जिन पर खिलती हुई असरदार चमकीली खामोशी छायी रहती थी. दिसंबर की सर्द हवा जब उन फूलों के झाड़ को छूकर गुजरती, तो स्वामीजी को प्रतीत होता कि उनके गुच्छे हल्की हवा में सिर हिला-हिलाकर उनका स्वागत कर रहे हैं.
सीजन नहीं रहने के बावजूद दढ़वा की रेतीली सतह पर दूध के झरने सरीखा साफ पानी कोई ठंडी-सी बात कहता मंथर गति से बहता अस्ताचलगामी सूर्य का विहंगम दृश्य उनके सामने होता और वे देर तक उस खत्म होती लालिमा से एकाकार होते पखेरुओं की मासूम-सी कोशिशों का नजारा देखते रहते.
जब बांधा था बच्चे के जूते का फीता
दढ़वा नदी तट की अपनी सार्थक निकटता के क्रम में एक दिन स्वामीजी ने वहां एक बच्चे को देखा. उस बच्चे के जूते का फीता खुला हुआ था. स्वामीजी ने बच्चे से कहा कि वह जूते का फीता बांध ले. बच्चे ने कहा कि उसे फीता बांधना नहीं आता. तब स्वामीजी ने बड़े लाड़ से अपने हाथों से उसके जूते का फीता बांध दिया और उसे यह क्रिया सिखा भी दी.
उस बच्चे का नाम भोलनाथ चट्टोपध्याय था, जो अपने मित्र ताराशंकर चट्टोपध्याय के साथ स्कूल (आर मित्रा उच्च विद्यालय) से भाग कर दढ़वा नदी किनारे एक खेत से ‘केतारी’ (गन्ना) तोड़ने गया था. बाद में दोनों देवघर के नामी वकील और परस्पर ‘साढ़ू’ बने.
वाराणसी की यात्रा
‘नंदरानी विला’ में रहते हुए स्वामीजी ने 26 दिसंबर, 1889 को प्रमदादास मित्र को एक पत्र लिख कर अपनी आगामी यात्रा की जानकारी दी- ‘बहुत दिनों के प्रयास के बाद संभवत: अब मुझे आपके समीप उपस्थित होने का अवसर मिलेगा. आशा है कि दो-एक दिनों में ही मैं आपके चरणों के समीप वाराणसीधाम में उपस्थित हो सकूंगा. वहां कुछ दिन रहने की अभिलाषा है और देखना है कि मुझ जैसे मंदभाग्य व्यक्ति के लिए श्रीविश्वनाथ और श्रीअन्नपूर्णा क्या करते हैं. काशीनाथ सहायक बनें.’
वाकई विश्वनाथजी का विधान उस समय कुछ और था. देवघर में ही खबर आयी कि उनके गुरुभाई स्वामी योगानंद इलाहाबाद में जलवसंत (चेचक) से आक्रांत हो गये हैं. अतएव स्वामीजी ने अपनी काशी-यात्रा स्थगित कर दी और गुरुभाई को देखने इलाहाबाद चले गये. यह स्वामीजी की प्राथमिकता को भी दर्शाता है, जिसमें धर्म की बनिस्पत मानवीय मूल्यों को अग्रस्थान दिया गया है.
ऋषि राजनारायण बसु से बांग्ला में वार्तालाप
स्वामीजी भागलपुर में कुछ दिन व्यतीत कर तीसरी बार सन 1890 में देवघर आये. इस दफे स्वामीजी पुरनदाहा में निवास कर रहे वयोवृद्ध ब्रह्माचार्य ऋषि राजनारायण बसु से मिलने गये.
युवावस्था में पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक ऋषि राजनारायण बसु वार्धक्य में पाश्चात्यभाषा, खासकर अंग्रेजी के बड़े विरोधी हो गये थे. अंग्रेजी की जगह मातृभाषा बांग्ला में बातचीत करना उन्हें प्रीतिकर लगता था. उनके संबंध में यह प्रसिद्ध हो गया था कि यदि कोई उनके सम्मुख भूल से अंग्रेजी शब्द का उच्चारण कर दे, तो वे उस पर ‘एक पैसे’ का जुर्माना कर देते हैं. संभवत: स्वामीजी वयोवृद्ध राष्ट्रव्रती की इस ‘सनक’ से अवगत थे. अत: वे जितनी देर ऋषि के साथ रहे विशुद्ध बांग्ला में ही बातचीत करते रहे.
यहां तक कि एक जगह ‘प्लस चिह्न’ (+) का जिक्र आने पर उन्होंने दोनों अंगुलियों को एक दूसरे पर चढ़ाकर ‘प्लस चिह्न’ बनाया और वार्तालाप को आगे बढ़ाया. ऋषि को यह भनक तक नहीं लगा कि यह युवा संन्यासी मातृभाषा बांग्ला की तरह अंग्रेजी में भी पारंगत हैं. इस भेंटवार्ता के तीन बरस बाद सन 1893 में स्वामीजी ने शिकागो की धर्म-यात्रा में हिंदू धर्म पर पांडित्यपूर्ण और इतनी ओजस्वी, आत्मीय वक्तृता दी कि एक विश्व विभूति ही बन गये! उस समय ऋषि राजनारायण बसु समझ सके कि अपूर्व मेधावाला ही उनसे मुलाकात के लिए आया था. उक्त घटना उनके मानसपटल पर उभर आयी और स्वामी जी के चातुर्य पर विस्मयपूर्ण हर्ष हुआ.
स्वामीजी की चौथी देवघर-यात्रा
स्वामीजी की चौथी देवघर-यात्रा उनके उस पत्र से चलता है, जिसे उन्होंने तीन जनवरी, 1898 को अपनी बंगाली परिचिता मृणालिनी बसु को लिखा था. इस पत्र में हम स्वामीजी को पारंपरिक रीति-रिवाज, नारी दशा, विवाह, पुनर्विवाह तथा अन्य सामाजिक विषयों पर एक सतर्क समाजशास्त्री की तरह अपने विचारों की स्थापना करते हुए पाते हैं.
भारतीय दर्शन पर विमर्श
अपनी पांचवीं देवघर-यात्रा पर वे 19 दिसंबर, 1898 में जब प्रियनाथ मुखोपाध्याय के घर पहुंचे, तो उनके दमे का वेग इतना तीव्रतर हो गया कि उनके प्राणांत का भय खड़ा हो गया. उन्हीं दिनों दढ़वा नदी के किनारे शीत में पेचिश से ग्रसित एक असहाय व्यक्ति को स्वामीजी ने देखा.
वे स्वयं प्रियनाथ के अतिथि थे, फिर भी अपने गुरुभाई स्वामी निरंजनानंद की सहायता से उस असहाय व्यक्ति को उठा कर ‘आनंद कुटीर’ ले गये. उसे बिछावन पर लिटाया, उसकी देह को धो-पोछकर साफ किया, उसे कपड़े पहनाये और आग सेंकी. स्वामीजी की सेवा से वह व्यक्ति चंगा हो गया. जिस प्रकार उनके गुरु ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने रोहिणी के पास ‘शिवज्ञान से जीवसेवा’ को मूलमंत्र दिया, उसे स्वामीजी ने ‘दया नहीं सेवा’ से नया आयाम दिया. ‘आनंद कुटीर’ में जिलाधीश (बंगाल) तारकनाथ राय से उनका भारतीय दर्शन पर हुआ विमर्श भी एक ऐतिहासिक आख्यान है. इसी दौरान स्वामीजी ने जिए हुए वक्त की अनुभव संपन्नता को ‘सखा के प्रति’ शीर्षक अपनी लंबी कविता में अंकित किया. यहां प्रेम धन ही बन जाता है जीवनधन! तीन फरवरी, 1899 को स्वामी सारदानंद और स्वामी सदानंद के साथ स्वामीजी बेलूर मठ लौट गये.
बैद्यनाथ में बाबा की पूजा
स्वामीजी की छठी व अंतिम देवघर-यात्रा का पता देवघर से 23 दिसंबर, 1900 को मृणालिनी बसु को लिखित उनके पत्र से चलता है. इस यात्रा-क्रम में मधुपुर रेलवे स्टेशन पर उनकी भेंट देवघर के एक जागरूक पंडा (तीर्थपुरोहित) हरिचरण मिश्र से हुई, जो यजमान तलाशने उधर गये थे. शिकागो धर्म सभा के कारण विख्यात स्वामीजी को देख कर वे बड़े पुलकित हुए और आग्रह किया कि स्वामीजी उन्हीं की देख-रेख में बाबा की पूजा करें.
स्वामीजी और अन्य ने उन्हीं के निर्देशन में बाबा की अर्चना की. फिर जब हरिचरण मिश्र ने कुछ मंतव्य लिखने का आग्रह किया तब स्वामीजी ने अंग्रेजी में लिखा- ‘स्वामी विवेकानंद एंड हिज पार्टी विजिटेड बैद्यनाथ विद पंडा. ही इज वेरी गुड एंड ऑबलाइजिंग पंडा. ईफ एनी ऑफ अस केम हेयर आई रिक्वेस्ट देम टू अपॉइंट हिम.’ इस हस्तलेख की प्रामाणिकता बेलूर मठ से भी पुष्ट है. इस कारण, हरिचरण मिश्र और उनके वंशजों को रामकृष्ण मिशन विद्यापीठ, देवघर से काफी सम्मान मिला.
जीवन परिचय
मूल नाम : नरेंद्रनाथ दत्त
जन्म : 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में.
मृत्यु : 4 जुलाई, 1902 को रामकृष्ण मठ, बेलूर.
गुरु : रामकृष्ण परमहंस
कर्मक्षेत्र : दार्शनिक, धर्म प्रवर्तक और संत.
विषय : साहित्य, दर्शन और इतिहास
विदेश यात्रा : अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप में अनेक व्याख्यान.
वेदांत के संदेश का दुनियाभर में प्रचार: नरेंद्रनाथ से विवेकानंद की यात्रा
रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद का मार्गदर्शन किया और उन्हें शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए. यह उपदेश विवेकानंद के जीवन का प्रमुख दर्शन बन गया. 1886 में रामकृष्ण का देहावसान हुआ और नरेंद्र को उनका उत्तराधिकारी चुना गया. वर्ष 1890 में नरेंद्र देशव्यापी यात्रा पर निकल पड़े.
इस क्रम में उन्होंने वाराणसी, अयोध्या, आगरा, वृंदावन, अलवर आदि क्षेत्रों की यात्रा की. इसी यात्रा के दौरान उन्हें विवेकानंद के नाम से जाना गया. 24 दिसंबर, 1892 को कन्याकुमारी पहुंचे और वहां समुद्र के बीच स्थित चट्टानों पर साधना की. यह जगह विवेकानंद मेमोरियल के नाम से जानी जाती है. देशाटन के दौरान वे भारतीय समाज में व्याप्त विषमता से अवगत हुए. उन्होंने महसूस किया कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रुझान वाले सभी भारतीयों को, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है.
शिक्षा के क्षेत्र में रामकृष्ण मिशन का योगदान
शिक्षा के क्षेत्र में रामकृष्ण मिशन का विशेष योगदान रहा है. तमिलनाडु के कोयंबतूर शहर में 300 एकड़ जमीन पर बने रामकृष्ण मिशन विद्यालय में नर्सरी से लेकर पीएचडी तक की पढ़ाई होती है. यहां कला, विज्ञान, शारीरिक शिक्षा और शिक्षण में पीएचडी तक की उपाधियां दी जाती हैं. कोलकाता के रामकृष्ण शारदापीठ में वाणिज्य, विज्ञान और कला विषयों में स्नातक तक की शिक्षा की व्यवस्था है. शारदापीठ में बहुद्देश्यीय तकनीकी संस्थान भी है. इनके अलावा उच्चतर माध्यमिक, माध्यमिक सहित विभिन्न स्तरों के सैकड़ों विद्यालय हैं. मिशन द्वारा संचालित एक संस्कृत महाविद्यालय और संस्कृत विद्यालय भी हैं.
गर्दन टूट चुकी होती!
स्वामी विवेकानंद बचपन से ही निडर थे. जब वह करीब आठ साल के थे, तभी से एक मित्र के यहां खेलने जाया करते थे. उसके यहां एक पेड़ था. एक दिन वह उस पेड़ को पकड़ कर झूल रहे थे. मित्र के दादाजी पहुंचे. उन्हें डर था कि कहीं नरेंद्र गिर न जाएं, इसलिए उन्होंने समझाते हुआ कहा, ‘नरेंद्र, तुम इस पेड़ से दूर रहो, क्योंकि इस पेड़ पर एक दैत्य रहता है.’
नरेंद्र को अचरज हुआ. उसने दादाजी से दैत्य के बारे में और भी कुछ बताने का आग्रह किया. दादाजी बोले, ‘वह पेड़ पर चढ़ने वालों की गर्दन तोड़ देता है.’ नरेंद्र बिना कुछ कहे आगे बढ़ गये. दादाजी भी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गये. उन्हें लगा कि बच्चा डर गया है. पर जैसे ही वे कुछ आगे बढ़े, नरेंद्र पुन: पेड़ पर चढ़ गये और डाल पर झूलने लगे. मित्र जोर से चीखा, ‘तुमने दादाजी की बात नहीं सुनी.’ नरेंद्र जोर से हंसे और बोले, ‘मित्र डरो मत! तुम भी कितने भोले हो! सिर्फ इसलिए कि किसी ने तुमसे कुछ कहा है. उस पर यकीन मत करो. खुद सोचो अगर यह बात सच होती, तो मेरी गर्दन कब की टूट चुकी होती.’
युवाओं को संदेश
कोई भी समाज अपराधियों की सक्रियता की वजह से गर्त में नहीं जाता, बल्कि अच्छे लोगों की निष्क्रियता इसकी असली वजह है. इसलिए नायक बनो. हमेशा निडर रहो. कुछ प्रतिबद्ध लोग देश का जितना भला कर सकते हैं, उतना भला कोई बड़ी भीड़ एक सदी में भी नहीं कर सकती. मेरे बच्चों आग में कूदने के लिए तैयार रहो. भारत को सिर्फ उसके हजार नौजवानों का बलिदान चाहिए.
सफलता का सूत्र
कोई एक विचार लो और उसे अपनी जिंदगी बना लो. उसी के बारे में सोचो और सपने में भी वही देखो. उस विचार को जीयो. अपने शरीर के हर अंग को उस विचार से भर लो. सफलता का रास्ता यही है. इस दुनिया में आए हो, तो अपनी छाप छोड़ कर जाओ. ऐसा नहीं किया तो फिर तुझमें और पेड़-पत्थरों में अंतर क्या रहा? वे भी पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं.
इतिहास और वर्तमान के बीच सेतु की तरह थे विवेकानंद. उनकी जड़ काफी गहरे तक अतीत में थी. भारत के प्रति वे पूरे गौरव के भाव से भरे थे. इसके बावजूद वे जीवन की समस्याओं के सवाल को लेकर अपनी दृष्टि में पूरी तरह आधुनिक थे.
वे हताश और अवसादग्रस्त हिंदू मानस के सामने एक टॉनिक की तरह आये, उनमें आत्मविश्वास जगाया और इतिहास से उनका नाता जोड़ा. राजनीति से वे हमेशा दूर रहे और वर्तमान राजनीति को कभी अपना समर्थन नहीं दिया. उन्होंने जनता की स्वतंत्रता, समानता और उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने पर बार-बार जोर दिया. उनका मानना था कि विचारों और क्रियाओं की स्वतंत्रता जीवन, विकास और सुख-समृद्धि की एकमात्र शर्त है.
– पंडित जवाहर लाल नेहरू
प्रेम और आदर्श के संबंध में स्वामीजी का दृष्टांत
प्रेम के संबंध में
दूसरों को प्यार किये बिना हम कैसे रह सकते हैं? भगवान के प्रति प्रेम के साथ ही, उसके निश्चित फलस्वरूप, सर्वभूतों के प्रति भी प्रेम अवश्य आयेगा. हम ईश्वर के जितने समीप आते जाते हैं, उतने ही अधिक स्पष्ट रूप से देखते हैं कि सब कुछ उसी में है. जब जीवात्मा इस परम प्रेमानंद का आत्मसात करने में सफल होता है, तब वह ईश्वर को सर्वभूतों में देखने लगता है. इस प्रकार हमारा हृदय प्रेम का एक अनंत स्रोत बन जाता है. पुस्तकें और विद्या, योग, ध्यान और ज्ञान, प्रेम की तुलना में ये सब धूलि के समान हैं. प्रेम से अलौकिक शक्ति मिलती है. प्रेम ही ज्ञान देता है और प्रेम ही मुक्ति की ओर ले जाता है.
प्रेम कभी निष्फल नहीं होता. प्रेम का पुरस्कार प्रेम ही है. यही एक वस्तु है, जो समस्त दुखों को दूर कर देती है. प्रेम कोई पुरस्कार नहीं चाहता. जब तुम किसी मनोहर प्राकृतिक दृश्य को देख कर उस पर मोहित हो जाते हो, तो दृश्य से तुम किसी फल की याचना नहीं करते और न वह दृश्य ही तुमसे कुछ मांगता है. फिर भी उस दृश्य का दर्शन तुम्हारे मन को बड़ा आनंद देता है. प्रेम प्रश्न नहीं करता. प्रेम का पहला चिह्न है, कुछ न मांगना.
सब कुछ अर्पित करना. प्रेम मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद नहीं उत्पन्न करता. प्रेम में किसी प्रकार का भय नहीं रहता. गुलाम लोग कभी-कभी प्रेम दिखाया करते हैं, पर क्या वह प्रेम है? क्या डर में तुमने कभी प्रेम देखा है? ऐसा प्रेम सदा बनावटी रहता है. बिना स्वाधीनता के प्रेम आ ही नहीं सकता. प्रेमियों के लिए दुनिया प्रेम से भरी है, पर द्वेष करनेवालों के लिए द्वेष से. समस्त संसार को एक ही केंद्र की ओर खींचती हो! यह वही वस्तु है, प्रेम.
आदर्श के संबंध में
मुझे कोई अधिकार नहीं कि मैं आपको बताऊं कि आपका आदर्श क्या होना चाहिए या आपके गले जबरदस्ती कोई आदर्श मढ़ दूं. मेरा तो यह कर्तव्य होगा कि आपके सम्मुख मैं इन विभिन्न आदर्शों को रख दूं और आपको अपनी प्रकृति के अनुसार जो आदर्श सबसे अधिक अनुकूल जंचे, उसे ही आप ग्रहण करें और उसी ओर अनवरत प्रयत्न करें.
प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपना आदर्श लेकर उसे चरितार्थ करने का प्रयत्न करे. दूसरों के ऐसे आदर्शों को लेकर चलने की अपेक्षा, जिनको वह पूरा ही नहीं कर सकता, अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है. उदाहरणा के तौर पर, यदि हम एक छोटे बच्चे से एकदम बीस मील चलने को कह दें, तो या तो वह बेचारा मर जायेगा या यदि हजार में से कोई एक पहुंच भी गया, तो वह अधमरा हो जायेगा.
किसी समाज के सब स्त्री-पुरुष न एक मन के होते हैं, न एक ही योग्यता के और न एक ही शक्ति के. अतएव, उनमें से एक का भी उपहास करने का हमें कोई अधिकार नहीं. अपने आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक को, जितना हो सके, यत्न करने दो. सेब के पेड़ की तुलना ओक से नहीं होनी चाहिए और न ओक की सेब से. सेब के पेड़ का विचार करने के लिए सेब का मापक ही लेना होगा और ओक के लिए उसका अपना मापक! हम अपने आदर्श को कभी न भूलें.

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