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नये साल के नये संकल्प
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर अमीर कजलबाश का एक दिलचस्प शेर है- यकुम (पहली) जनवरी है, नया साल है, दिसंबर में पूछूंगा क्या हाल है. वर्ष के 365 दिन कैसे बीत जाते हैं, यह पता भी नहीं चल पाता. पिछले साल के कुछ खट्टे-मीठे अनुभव साथ रह जाते हैं. लेकिन हर साल नयी उम्मीदें […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
अमीर कजलबाश का एक दिलचस्प शेर है- यकुम (पहली) जनवरी है, नया साल है, दिसंबर में पूछूंगा क्या हाल है. वर्ष के 365 दिन कैसे बीत जाते हैं, यह पता भी नहीं चल पाता. पिछले साल के कुछ खट्टे-मीठे अनुभव साथ रह जाते हैं. लेकिन हर साल नयी उम्मीदें लेकर आता है. पूरी दुनिया नये साल का जोशोखरोश से स्वागत करती है. बधाइयों के लेन-देन का सिलसिला कई दिनों तक चलता है.
नया साल मनाने के पीछे मान्यता यही है कि साल का पहला दिन अगर उत्साह और खुशी के साथ मनाया जाये, तो पूरा साल उत्साह और खुशियों के साथ बीतेगा. पर हम सब जानते हैं कि वास्तविक जिंदगी में ऐसा होता नहीं है. उतार-चढ़ाव जीवन का अभिन्न अंग हैं. लेकिन नया साल हमें एक नयी शुरुआत करने को प्रेरित अवश्य करता है. भारतीय मनीषियों ने कहा है- बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय यानी बीती बातों को पकड़ के बैठने से कुछ हासिल होने वाला नहीं, भविष्य का चिंतन करें. हरिवंश राय बच्चन अपनी कविता में इसी बात को आगे बढ़ाते हैं- जो बीत गयी, सो बात गयी.
तत्व की बात यह कि भविष्य की ओर देखें. अपने और अपने परिवार के दायरे से आगे बढ़ें. दूसरों को कुछ खुशियां दे पाये, उम्मीद की किरण जगा पाये, तो मुझे लगता है कि हम अपने मकसद में कामयाब हुए. हरेक जिंदगी का फलसफा अलग होता है. लेकिन मुझे लगता है कि जीवन के कुछ क्षेत्र हैं, जिनमें हस्तक्षेप करने पर हम और आप विचार कर सकते हैं.
नये साल में टेक्नाेलॉजी का नियंत्रित इस्तेमाल करें. टेक्नोलॉजी दोतरफा तलवार है. यह वरदान है, तो मारक भी. यह देखने में आ रहा है कि मोबाइल एक बीमारी की तरह हम-आप सबको जकड़ता जा रहा है. इस चुनौती से पूरी दुनिया जूझ रही है. मुझे हाल में लंदन में आयोजित बीबीसी के लीडरशिप समिट में हिस्सा लेने का मौका मिला. उसमें एक प्रस्तुतीकरण में जो तथ्य सामने आये, वे चौंकाने वाले हैं. बताया गया कि ब्रिटेन में हर व्यक्ति प्रतिदिन औसतन 2617 बार अपने मोबाइल फोन को छूता है. भारत में हम थोड़ा ही पीछे होंगे.
दिल्ली में पिछले साल एक युवा की कंप्यूटर, मोबाइल की लत इतनी बढ़ गयी कि उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. दिक्कत यह है कि हम सब यह चाहते हैं कि देश में आधुनिक टेक्नाेलॉजी आये, लेकिन उसके साथ किस तरह तारतम्य बिठाना है, इस पर हम विचार नहीं करते. हमें नयी परिस्थितियों से तालमेल बिठाने के विषय में सोचना होगा.
हमारी दूसरी बड़ी चुनौती युवा मन को समझने की है. थोड़ा करीब से देखें, तो पायेंगे कि आज के बच्चे बदल चुके हैं. उनकी बातचीत, आचार-व्यवहार, उनके सोने-पढ़ने के समय, हाव-भाव और खान-पान सब बदल चुके हैं. वे बेगाने हो गये हैं. इसे स्वीकारना होगा. कुछ समय पहले मुझे प्रभात खबर के बचपन बचाओ अभियान के तहत बच्चों से संवाद का मौका मिला.
मैंने पाया कि बच्चों में माता-पिता को लेकर अविश्वास का भाव था. अधिकांश बच्चे परिवार की मौजूदा व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे. पीढ़ी के परिवर्तन पर आपका बस नहीं है. जितनी जल्दी हो सके, हमें नयी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाना होगा, ताकि बच्चों में अविश्वास का भाव न जगे. सबसे जरूरी है कि उनसे संवाद बना रहे.
मुझे लगता है कि स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर भी हमें विचार करना चाहिए. कुछेक निजी अस्पतालों में जिस तरह की लूट है, उसे रोकने के लिए आवाज उठानी चाहिए, ताकि इनको नियंत्रित करने के उपाय किये जा सकें. पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने लापरवाही के कारण एक जाने-माने निजी अस्पताल का लाइसेंस निरस्त कर दिया. दूसरी ओर सरकारी अस्पतालों में संसाधनों का भारी अभाव है. चिंता की बात यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं का ऑडिट किये जाने को लेकर कोई बहस नहीं होती.
हमें महिलाओं को और सशक्त करने की जरूरत है. भारतीय महिलाएं जिंदगी के सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं. हमारा संविधान भी महिलाओं को बिना भेदभाव के सामान अधिकार की गारंटी देता है.
फिर भी महिलाओं की स्थिति मजबूत नहीं है. उन्हें निशाना बनाया जाता है. कार्यस्थलों पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है. हाल में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने प्लान इंडिया की ओर से तैयार की गयी रिपोर्ट जारी की. जिन राज्यों में महिलाएं सबसे अधिक असुरक्षित हैं, उनमें बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और देश की राजधानी दिल्ली शामिल हैं.
हमें वृद्धजनों के प्रति और संवेदनशील होना पड़ेगा. भारत की एक बड़ी आबादी बुजुर्ग हो रही है. बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं ने लोगों की उम्र बढ़ा दी है. सामाजिक हालात बदल रहे हैं और संयुक्त परिवार का ढांचा टूट चुका है. ऐसे में समाज और सरकार की ओर से बुजुर्गों की देखभाल के लिए नयी पहल नहीं की गयी, तो जल्द यह एक व्यापक समस्या बनने वाली है.
बुजुर्गों के साथ रूखा व्यवहार, उनकी अनदेखी और उन्हें बोझ माना जाना, समस्या का सबसे चिंताजनक पहलू है. अनुमान है कि भारत में अभी छह फीसदी आबादी 60 साल या उससे अधिक की है, जो 2050 तक 20 फीसदी तक हो जायेगी.
हमें बाबाओं के मायाजाल से बचना होगा. पिछले साल कई मामले सामने आये, जिनमें बड़ी संख्या में लोग, खासकर महिलाएं, बाबाओं के शोषण के शिकार हुए. सबसे प्रमुख मामला डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम का था. उसे साध्वी के यौन शोषण के मामले में दोषी करार दिया गया. यह कथित बाबा फिल्में बनाता है, जिसमें वह हीरो बनकर आता है. नाम बदलता रहता है. महंगी कारों का शौकीन है. वह बाल बच्चेदार व्यक्ति है. लेकिन आश्चर्य है कि फिर भी लोग उसके मायाजाल में फंस जाते हैं.
हमें घरेलू सहायकों के प्रति संवेदनशील बनना होगा. कुछ दिनों पहले दिल्ली से सटे नोएडा से खबर आयी थी कि घरेलू दाइयों, जिन्हें अंग्रेजी में लोग ‘मेड’ कहते हैं, और ‘मैडम’ लोगों में संघर्ष हो गया. यह अपने तरह की अलग घटना है, अन्यथा दाइयां घरों में काम करती रहती हैं.
उनकी ओर न तो समाज का और न ही सरकारों का ध्यान जाता है. इनका भरपूर शोषण किया जाता है, इनका न्यूनतम वेतन निर्धारित नहीं है, काम के घंटे, छुट्टियां, कुछ भी तो निर्धारित नहीं है. साहब और मैडम की मर्जी से ही इनका सब कुछ तय होता है. इनके प्रति हमें संवेदनशील रवैया अपनाना होगा.
पिछले दिनों रांची में हुए प्रभात खबर-टाटा साहित्य समागम में जो बात उभरकर सामने आयी कि हमें अपनी भाषा को लेकर जो गर्व होना चाहिए, उसकी बहुत कमी है. हमारा कुलीन वर्ग हिंदी की दुहाई तो बहुत देता है. लेकिन अपनाता अंग्रेजी ही है. हम अंग्रेजी और अन्य जितनी भाषाएं पढ़ सकते हैं, उन्हें पढ़ना चाहिए. लेकिन मातृ भाषा हिंदी हीन है, ऐसी ग्रंथि दिमाग से निकाल देनी चाहिए. नया साल आपके जीवन में अपार खुशियां लाये, इसी कामना के साथ आप सब को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं.
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