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उपलब्धियों का साल: क्या पेश हो… जोकरी या संगीत!

भरत तिवारी, कला समीक्षक संगीत पर लिखा भी संगीतमय हो सकता तो कितना मधुर होता! जब बात पूरे साल के संगीत की कहनी हो, तो उस गैर-संगीत पर यहां मिली छोटी-सी जगह क्यों बरबाद करें, जबकि वह स्वयं ही आबाद है और लोगों के सर टीवी, रेडियो, स्पीकरों, मोबाइलों से बज रहे हैं. संगीत, जैसी […]

भरत तिवारी, कला समीक्षक

संगीत पर लिखा भी संगीतमय हो सकता तो कितना मधुर होता! जब बात पूरे साल के संगीत की कहनी हो, तो उस गैर-संगीत पर यहां मिली छोटी-सी जगह क्यों बरबाद करें, जबकि वह स्वयं ही आबाद है और लोगों के सर टीवी, रेडियो, स्पीकरों, मोबाइलों से बज रहे हैं. संगीत, जैसी कि कला को जरूरत होती है कद्रदान की. कलाएं स्वाभाविक रूप से सत्ता से दूर रहती हैं और यह दूरी सत्ता में उनके चाहनेवालों की मौजूदगी ही कम करती है. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत स्वयं में जितना समृद्ध है, उतना उससे जुड़े कलाकार भी हैं क्या? कुछ नामों को छोड़ दें, तो कलाकारों का जीवन कमोबेश संघर्ष दिखेगा. ऐसे में सत्ता ने उन पर जीएसटी का जो बोझ लादा है- 28 फीसदी आयोजन पर और 18 फीसदी कलाकार पर, उससे कला की क्या दुर्गति हो रही है, वह आयोजनों के कम होने की संख्या दिखा रही है.

शिमला में पांच दिन के शास्त्रीय संगीत उत्सव में उस्ताद राशिद अली खान के गायन और आयोजक- भाषा एवं संस्कृति विभाग- की ‘एक शाम में एक कलाकार’ की समझदारी ने प्रभावित किया. पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख को कोलकाता में उस्ताद के घर ‘याद पिया की आने लगी’ सुनने के बाद उनकी जीएसटी हटाने की याचना भी सुननी पड़ी है. आइआइटी दिल्ली में स्पिक मैके के पांचवें अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ने 15 साल बाद शहर के संगीत प्रेमियों को पूरी रात की संगीत महफिल दी. कर्नाटक संगीत के पब्लिक इंटेलेक्चुअल टीएम कृष्णा, उत्तर भारतीय संगीत परंपरा में अपनी पीढ़ी के बेहतरीन गायक पंडित उल्हास कशालकर, श्रुति सडोलीकर और फिर उस्ताद वसीफुद्दीन डागर के सुबह का आगाज ने मन मोह लिया. वसीफुद्दीन डागर को कवि-विचारक उदयन वाजपेयी वर्तमान का महानतम ध्रुपद गायक मानते हैं, फिर क्या कारण है कि राज्य-सत्ता उनके होने का लाभ उठाती और उन्हें उनका यथोचित स्थान देती नजर नहीं आती?

स्पिक मैके के उस कार्यक्रम ने दिल्ली को रात-भर-संगीत की भूली प्रथा याद भी दिला दी. इसका एक उदाहरण इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा सजायी गयी रात थी, जहां अश्विनी भिडे, वायलिन वादक डॉ एम राजम, उस्ताद शुजात खान, ग्रेमी सम्मानित विक्कू विनायकम और उदय भवालकर मौजूद थे. वहां अच्छा इंतजाम भी यह संकेत कर रहा था कि संस्था के सदस्य-सचिव डॉ सच्चिदानंद जोशी भले रसिक हैं और वे अवश्य कला से राज्य की दूरी कम करने में सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं.

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को मैं परा-साहित्य उत्सव अधिक समझता हूं. वहां की शाम जब उस्ताद अमजद अली खान रौशनी से नहाये आमेर किले के एक बुलंद दरवाजे पर सरोद वादन में डूबे थे, मुझे गालिबन ‘इक बिरहमन ने कहा है’ जैसा अहसास हुआ और लगा कि इस साल अच्छा संगीत सुनने को मिलेगा. पिछले एक-डेढ़ दशक से संगीत के लिए काम कर रहे डाला (सोनभद्र) के युवा कलाप्रेमी चंद्र प्रकाश तिवारी ने 2016 में बैजू बावरा की जन्मस्थली कस्बा चंदेरी में उनको समर्पित ध्रुपद उत्सव का आयोजन शुरू किया था. इस वर्ष उस आयोजन में उस्ताद बहाउद्दीन डागर की रुद्रवीणा को प्राचीन राजारानी के किले में सुनना भव्य अनुभव था. मौका मिले, तो बसंत पंचमी को होनेवाले इस उत्सव में अवश्य जाएं. उस्ताद निशात खान के सितार में उनके पुरखों का 400 साल का रियाज भी जुड़ता है और उनका अपना दिलो-दिमाग भी. मई में एक कार्यक्रम में उनका अतुलनीय सितारवादन सुनते हुए मन में यह प्रश्न उठा कि आखिर क्यों भारत में उनके कार्यक्रम कम होते हैं, जबकि विदेशों में वह लगातार बुलाये जाते हैं?

गिरिजा देवी को मैंने इसी साल सुना, समझा, जाना और यह सब और आगे बढ़ता, मगर वह अचानक हमसे दूर हो गयीं. संगीत के प्रति पूरी तरह से समर्पित वे हिंदुस्तानी संगीत की विरासत ढाहने को आतुर, उसे छेड़ उसकी शास्त्रीयता खत्म करने और आगे बढ़ने का आसान रास्ता बनानेवालों के विरुद्ध मुखर थीं. संगीत को माध्यम बना कर अनेक अ-कलाकार साम-दाम-दंड-भेद के जुगत से पैसा कमा रहे हैं. वे अपनी जोकरी से इतना पैसा और शोहरत कमा लेते हैं कि उनके सामने जीएसटी, धन या मान की कमी से जूझता कला को समर्पित संगीतकार अदना दिखने लगता है. आशा है 2018 में कलाकारों के कद और पद की कद्र बढ़ेगी.

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