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फाइलेरिया को हरा सकते हैं हम

डॉ भूपेंद्र त्रिपाठी जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ फाइलेरिया अभियान के बिहार दौरे पर वैशाली जिले में मेरी मुलाकात एक ऐसे परिवार से हुई, जिन्हें अभियान के दौरान दवाइयां दी गयी थी, परंतु उन लोगों ने दवाएं खायी नहीं थी. हमारी चर्चा के बीच यह मालूम पड़ा कि उसी घर की कॉलेज जानेवाली एक छात्रा खुद फाइलेरिया […]

डॉ भूपेंद्र त्रिपाठी
जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ
फाइलेरिया अभियान के बिहार दौरे पर वैशाली जिले में मेरी मुलाकात एक ऐसे परिवार से हुई, जिन्हें अभियान के दौरान दवाइयां दी गयी थी, परंतु उन लोगों ने दवाएं खायी नहीं थी. हमारी चर्चा के बीच यह मालूम पड़ा कि उसी घर की कॉलेज जानेवाली एक छात्रा खुद फाइलेरिया से पीड़ित थी और वह परिवार अपनी बच्ची के इलाज पर लगभग 1200 रुपये हर सप्ताह खर्च कर वैकल्पिक दवाएं ले रहा था. यह जानकर मुझे कष्ट हुआ, क्योंकि भारत सरकार फाइलेरिया की विश्वस्तरीय दवाएं मुफ्त प्रदान करती है और यह परिवार अपनी बच्ची का इलाज जिन वैकल्पिक दवाओं से कर रहा था, उसका कुछ फायदा हो सकता है और नहीं भी.
भारत में विश्व के 40 प्रतिशत फाइलेरिया के मामले पाये जाते हैं. यह बीमारी 21 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के 256 जिलों में मौजूद है और 63 करोड़ भारतीय इसके संभावित खतरे में जी रहे हैं. फाइलेरिया, परजीवियों से होनेवाली बीमारी है, जो महीन धागे जैसे सूक्ष्म कीड़ों की वजह से होती है और लसिका तंत्र पर बुरा असर डालती है. यह मच्छरों के जरिये एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती है.
फाइलेरिया के 35 प्रतिशत मामले बिहार और उत्तर प्रदेश में मौजूद हैं, क्योंकि यहां के इलाके इन मच्छरों के प्रजनन हेतु पूरी तरह उपयुक्त हैं. मौसमी परिस्थितियों के कारण यहां के लोग शरीर को पूरी तरह नहीं ढंकते और इसके परिणामस्वरूप शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के काटे जाने का शिकार बनते हैं.
अधिकतर लोगों में इसका संक्रमण होने पर शुरुआत में कोई भी लक्षण नहीं दिखते, लेकिन बाद में उनकी चमड़ी सख्त और मोटी बनने लगती है. इस स्थिति को एलिफेंटियासिस (हाथीपांव) कहते हैं, जो शरीर के अलग-अलग हिस्सों जैसे पैर, बांह, स्तन और गुप्तांगों को प्रभावित कर सकती है.
आगे चल कर यह बीमारी लाइलाज हो सकती है. इस बीमारी से हाइड्रोसील होना काफी आम बात है. लोग इसका ऑपरेशन तो करा लेते हैं, लेकिन इसके कारणों तथा रोकथाम के बारे में बारे में नहीं जानते हैं. प्रायः यह बीमारी जानलेवा नहीं होती, परंतु उससे भी बदतर स्थिति पैदा कर सकती है.
बच्चों में इस बीमारी के स्पष्ट संकेत नहीं दिखते, लेकिन उन्हें तेज बुखार के दौरे आ सकते हैं. यह भी संभव है कि उन प्रभावित बच्चों में सामान्य शारीरिक शक्ति की कमी हो जाये और इस कारण वे खेल-कूद में पीछे रह जाएं या फिर पुलिस विभाग या सेना जैसी नौकरियों में नहीं जा पाएं, जहां शारीरिक फिटनेस अनिवार्य होती है.
इसके प्रत्यक्ष संकेतों के कारण कई लोगों को रोजगार में एवं विवाह में कठिनाई हो सकती है. फाइलेरिया के कुछ लक्षणों को धात जैसे गुप्त रोग (पेशाब के साथ सफेद द्रव्य निकलने की स्थिति) मानने की नासमझी हो जाती है और लोग गलत जगहों पर इलाज के लिए चले जाते हैं.
अच्छी खबर यह है कि, हमारे बीच ऐसी दवाइयां मौजूद हैं, जिनकी मदद से हम फाइलेरिया का उन्मूलन कर सकते हैं.
हर वर्ष निर्धारित जनपदों में मास ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एमडीए) के द्वारा यह दवाएं समाज के हर व्यक्ति को दी जाती हैं (दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा गंभीर रूप से बीमार लोगों को छोड़कर).
ये दवाएं अत्यंत सुरक्षित होती हैं. जिन लोगों के शरीर में ज्यादा सूक्ष्म कीड़े मौजूद होते हैं, सिर्फ उन्हें ही शरीर में दर्द, उल्टी, बुखार और बदन पर चकत्ते पड़ने जैसे मामूली दुष्प्रभाव हो सकते हैं, और सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में मुफ्त इलाज के जरिये ऐसे लक्षणों को ठीक किया जाता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों के अनुसार, जिन जिलों को पांच राउंड एमडीए प्राप्त हुए हैं, वहां इतना सुधार होना चाहिए कि और भी एमडीए की जरूरत ना पड़े. लेकिन, भारत के कुछ प्रभावित जिलों में तो एमडीए अभियान एक दशक से भी अधिक समय से चलाये जा रहे हैं, इसके बावजूद, हम उन्मूलन लक्ष्य से दूर हैं और 2020 तक फाइलेरिया मुक्त भारत बनाने की समय सीमा से चूक सकते हैं. दुर्भाग्य से जमीनी स्तर पर स्थिति ऐसी है कि आशा कर्मियों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं या दवा वितरकों को लोगों से एमडीए दवाएं लेने का आग्रह करना पड़ता है. जबकि, होना यह चाहिए कि लोगों को खुद ही एमडीए दवाओं के वितरण की तारीख पूछनी चाहिए और दवा बांटनेवालों के सामने ही इनका सेवन करना चाहिए.
हमें इस संक्रमण की पहचान जल्द-से-जल्द करने की जरूरत है, ताकि इससे छुटकारा पाया जा सके. अब वक्त आ गया है कि हम पूरी गंभीरता के साथ एमडीए के अंतर्गत ‘निःशुल्क’ प्रदान की जानेवाली इन दवाओं का सेवन करें. लेकिन, यह काम सिर्फ सरकार और उसके सहयोगियों से ही सफल नहीं हो सकता है. हमें एक सतर्क समाज की जरूरत है, जो स्थानीय स्तर पर इस बीमारी से लड़ने में मदद करे.
फाइलेरिया अभियान भी पोलियो अभियान जैसा ही एक सामाजिक कार्यक्रम है. फिर हम स्थिति के हाथ से निकलने का इंतजार क्यों करें? हमें फाइलेरिया को हराना है और अपनी आनेवाली पीढ़ियों को इस मुसीबत से बचाना है.
(डॉ भूपेंद्र त्रिपाठी नियमित टीकाकरण एवं संक्रामक रोग, बिल एवं मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, नयी दिल्ली के राष्ट्रीय प्रमुख हैं)

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