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बहुत विराट है अटलजी का राजनीतिक व्यक्तित्व
रामबहादुर राय वरिष्ठ पत्रकार इस वक्त अटलजी चारपाई पर हैं और वे किसी को पहचान नहीं पा रहे हैं. अटलजी को कई बातों के लिए लोग याद करते हैं. उनमें एक तो यह है कि उन्होंने अपने से विपरीत स्वभाव के और विपरीत लक्ष्य वाले राजनीतिक दलों के साथ न सिर्फ कुशलतापूर्वक राजनीतिक गठबंधन चलाया, […]
रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
इस वक्त अटलजी चारपाई पर हैं और वे किसी को पहचान नहीं पा रहे हैं. अटलजी को कई बातों के लिए लोग याद करते हैं. उनमें एक तो यह है कि उन्होंने अपने से विपरीत स्वभाव के और विपरीत लक्ष्य वाले राजनीतिक दलों के साथ न सिर्फ कुशलतापूर्वक राजनीतिक गठबंधन चलाया, बल्कि गठबंधन धर्म निभाते हुए सबको अपना काम करने की आजादी भी दी. अटलजी भाजपा में रहते हुए भी वे मध्यमार्गी थे.
अयोध्या आंदोलन की लहर पर भाजपा सत्ता में आयी है, लेकिन भाजपा के नेता रहते हुए भी अटलजी कहीं भी लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा में शामिल नहीं हुए. इससे यह बात सामने आती है कि जहां वे असहमत होते हैं, वहां से वे खुद को अलग कर लेते हैं और तार्किक और अनुशासन के साथ रहते हैं.
इसलिए उनका पूरा राजनीतिक जीवन जनसंघ और भाजपा में ही बीता है, लेकिन इसके साथ ही सहमति और असहमति के द्वंद्व में भी झूलता रहा है. और इसी से उनका जो राजनीतिक व्यक्तित्व बना, वह भाजपा और जनसंघ के दायरे से उसका विस्तार हो गया. यही वजह है कि कांग्रेस के कई बड़े नेता भी उनकी प्रशंसा करते हैं.
यहां एक बात मैं कहने जा रहा हूं, जिसमें अटलजी की प्रशंसा भी है और आलोचना भी है. निर्भर यह करता है कि कौन व्यक्ति इस बात को किस नजरिये से देखता है. सोनिया गांधी को बोफोर्स से जिन प्रधानमंत्रियों ने बचाया, उनमें अटल बिहारी वाजपेयी भी थे. नरसिम्हा राव से लेकर अटलजी तक ने सोनिया गांधी को बोफोर्स से बचाया है. आज भी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पड़ा हुआ है.
बोफोर्स पर हाइकोर्ट के फैसले को सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की इजाजत मांगी, लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने इजाजत नहीं दी. मनमोहन सरकार ने इजाजत नहीं दी, यह तो बहुत स्वाभाविक है. लेकिन, अटलजी की सरकार के समय में भी सोनिया गांधी को बोफोर्स मामले में बचाने की पूरी कोशिश की गयी.
अब जो लोग बोफोर्स और भ्रष्टाचार के मामले को जिंदा रखना चाहते हैं, वे तो इस पर अटलजी की आलोचना करेंगे. लेकिन, अगर कोई राहुल गांधी या कांग्रेस से पूछे, तो यह अटलजी का बड़प्पन है. इस तरह की खूबी थी अटलजी में, जो उनके राजनीतिक व्यक्तित्व को विराट बनाती है. आज भले ही वे अस्वस्थ हैं, लेकिन उनकी इस राजनीतिक विराटता की छाप महसूस की जा सकती है.
भारतीय राजनीति में अटलजी का योगदान बहुत बड़ा है. साल 1998 में पहली बार वास्तव में उन्हीं के ही नेतृत्व में केंद्र में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी. भारतीय राजनीति में भाजपा जिस विचारधारा को लेकर चलती है, उसके बारे में भ्रम और गलत धारणाएं फैलायी गयी थीं, जो अटलजी की सरकार बनने के बाद सब टूट गयीं. अपने शासनकाल में अटल जी ने अपने आचरण से और नीतियों से भाजपा पर लगे उन तीन मुख्य आरोपों को पूरी तरह से गलत साबित कर दिया कि भाजपा एक सांप्रदायिक पार्टी है, मुसलमानों के खिलाफ है और इसकी आर्थिक नीतियां गरीबों के हक में नहीं हैं.
अटल जी कहा करते थे कि इस देश में आजादी के पहले जिस तरह से मुसलमान रहते आये थे, ठीक उसी तरह आगे भी वे रहेंगे, उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा. अटल जी की नेतृत्व क्षमता का यह ऐसा आयाम है, जो उन्हें बाकी बड़े नेताओं से अलग बनाता है. जनसंघ और भाजपा के बड़े नेताओं- बलराज मधोक, जगन्नाथ राव जोशी, यज्ञ दत्त शर्मा और नानाजी देशमुख, ऐसे लोगाें की तुलना में जब अटल बिहारी वाजपेयी को देखते हैं, तब अटल जी की नेतृत्व क्षमता का पता चलता है.
कद और विद्वता में अटलजी से बलराज मधोक कहीं बड़े जरूर थे, लेकिन मधोक ज्यादा समय तक चल नहीं पाये, क्योंकि अपने सहयोगियों को नाराज करने में मधोक को महारत हासिल थी. उसके विपरीत अटलजी न सिर्फ सहयोगियों को साथ लेकर चलते थे, बल्कि विपक्षी नेताओं का भी सम्मान करते थे. अटल जी के पूरे राजनीतिक जीवन में कोई एक ऐसा अवसर खोजना मुश्किल है, जिसमें अटलजी ने अपने किसी सहयोगी को नाराज किया हो. जिस पृष्ठभूमि में भारतीय जनसंघ भारतीय जनता पार्टी बनी और काम करती रही है, उसको अगर कोई ठीक से पहचान ले, तो लंबे समय तक राजनीति में बने रहने में कोई अड़चन नहीं आती है. अटलजी ने यह जान लिया था.
हर राजनीतिक दल का अपना एक स्वभाव होता है. अटल जी ने अपनी वैचारिक शक्ति के चलते भाजपा का स्वभाव समझ लिया था और उसके अनुरूप उन्होंने अपने को ढाल लिया था.
यह चीज उनके निर्णयों में दिखायी भी पड़ता है. उनकी यह नेतृत्व क्षमता ही थी कि उन्होंने पार्टी के भीतर अपना कोई धड़ा या गुट नहीं बनाया, जैसा कि कुछ पार्टियों के नेता ऐसा करते हैं और पार्टियां कई धड़ों में बंटी नजर आती हैं. समय बदलता रहता है. गुजरे समय के व्यक्तित्व से खाली हुए स्थान को आनेवाले समय का कोई व्यक्तित्व पूरा नहीं कर सकता. देशकाल में हर समय और हर स्थान की अपनी अहमियत होती है. जब भाजपा को अटलजी के नेतृत्व की जरूरत थी, तब अटलजी दे रहे थे. और अब भाजपा को जैसा नेतृत्व चाहिए, वैसा नरेंद्र मोदी दे रहे हैं. राजनीति में इस कथन का कोई अर्थ नहीं कि मौजूदा भाजपा को अटलजी की कोई कमी खल रही है.
हां, यह कहा जा सकता है कि अटलजी से जो कुछ छूट गया रहा होगा, उसकी भरपाई नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. लेकिन, स्वास्थ्य कारणों से अटलजी के राजनीतिक जीवन से दूर होने से भाजपा में नेतृत्व की कमी है या वह दिशाहीन हो गयी है, ऐसा मैं नहीं मानता. कोई पार्टी या कोई व्यक्ति तभी भटकता है, जब उसको रास्ता न मालूम हो.
(वसीम अकरम से बातचीतपर आधारित)
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