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संस्मरण : पटना ओह मेरा पटना-4

-निवेदिता- जिन लोगों ने पुराना पटना देखा है वे जानते हैं कि कभी पटना की जमीन हरी भरी और उपजाऊ थी. यहां रंग रंग के फूल उगते थे. सौ साल की उम्र के कई पेड़ थे . झाड़- झंखाड़ के साथ बेला , गुल अब्बास के पौधे लहलहाते थे . पूरा पटना आम के बगीचे […]

-निवेदिता-
जिन लोगों ने पुराना पटना देखा है वे जानते हैं कि कभी पटना की जमीन हरी भरी और उपजाऊ थी. यहां रंग रंग के फूल उगते थे. सौ साल की उम्र के कई पेड़ थे . झाड़- झंखाड़ के साथ बेला , गुल अब्बास के पौधे लहलहाते थे . पूरा पटना आम के बगीचे से भरा हुआ था . आम ही आम . उसके दरख्तों में कोयल कूकती रहती थी . अब पटना के बारें में क्या क्या कहें . मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष के बाद पाटलिपुत्र सत्ता का केंद्र बन गया. शुरूआती पाटलिपुत्र लकड़ियों से बना था, पर सम्राट अशोक ने नगर को शिलाओं की संरचना में तब्दील किया. इस काल में सबसे उत्कृष्ठ समय तब आया जब शेरसाह सूरी ने नगर को पुनर्जीवित करने की कोशिश की. उसने गंगा के तीर पर एक किला बनाने की सोची. उसका बनाया कोई दुर्ग तो अभी नहीं है, पर अफ़ग़ान शैली में बना एक मस्जिद अभी भी है. जिसकी सुरमई दीवारें हैं . गुलचीं और गुले मखमल के गुच्छे आज भी दिख जायेंगे .
पटना का इतिहास जितना सुन्दर और अनोखा है उतने ही अनोखे यहां के इतिहासकार रहे हैं. इतिहास उन छोटी बड़ी वस्तुओं से बनता है जो अपने समय से जुड़ी होती है. और समय गुज़र जाने के बाद खुद इतिहास बन जाती है. मेरी स्मृति में जो चेहरा है वो निहायत ही खुशदिल और जिंदगी से भरा हुआ . उनसे पहली मुलाकात के नक्श अब भी मेरे दिलो दिमाग में महफूज़ है. प्रो रामशरण शर्मा से पहली बार मेरी मुलाकात पटना कालेज में हुई थी . इतिहास के किसी विषय पर कोई सेमिनार था . सफेद धोती और खादी का कुर्ता, आंखों पर ऐनक. ऐनक के रंग – आलूद शीशों के पीछे अपनी छोटी- छोटी आंखों को सिकोड़ते हुए उन्होंने मुझे गौर से देखा, फिर पूछा इतिहास पढ़ती हो ? मेरे जवाब का इंतजार किये बिना उन्होंने कहा … अगर दुनिया को जानना है तो इतिहास जरूर पढ़ो.
उन दिनों उनकी मशहूर किताब ‘ प्राचीन भारत’ को सेंट्रल बोर्ड आफ सेकेंडरी एजुकेशन ने पाठ्यक्रम से हटा लेने का निर्णय लिया था जिसे लेकर देश भर में बहस चल रही थी .ये 1978 की बात है . सेंट्रल बोर्ड आफ सेकेंडरी एजुकेशन को रामशरन शर्मा की किताब में दिए गए कुछ तथ्यों से परेशानी थी . रामशरण शर्मा के उस ऐतिहासिक खोज से वे सहमत नहीं थे कि वैदिक युग में गोमांसाहार का प्रचलन था. उनकी किताब में पूरी प्रमाणिकता से इस बात के उल्लेख हैं कि पशुचारण-जीवन की प्रधानता के कारण ही वैदिक युग में गोमांसाहार का प्रचलन था . अतिथि के लिए गोध्न शब्द का प्रयोग होता था. ऐसे अनेक शब्द वैदिक साहित्य में मिलते हैं जिनसे गोहत्या के प्रचलन और गोमांस के भक्षण का आभास मिलता है .
दिलचस्प ये था की उनकी किताब पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश किसी इतिहास के विशेषज्ञों की समिति ने नहीं की थी बल्कि सेंट्रल बोर्ड आफ सेकेंडरी एजुकेशन ने की थी . आरएसएस के मुख्य पत्र आर्गनाइज़र ने भी उनके खिलाफ काफी जहर उगला था . शुक्र है की उस समय उन्हें सिर्फ विरोध झेलना पड़ा. आज अगर वे जिंदा होते तो पता नहीं उनके साथ क्या होता ? जाने कितनी बातें हैं उनसे जुड़ी. इतिहास मेरे सामने साबूत खड़ा है . बड़ी शिद्दत के साथ अपने वजूद का एहसास दिलाता है. इतिहास को अगर हम तंग नजरिये से देखेंगे तो हमें उसकी कीमत चुकानी होगी . हमने चुकाई भी है .
रामशरण शर्मा अपने लेखन में जितने पक्के थे उतने ही रसीले थे . उनके पास हज़ार किस्से होते .उनकी कलम और जुबां दोनों तेज़ थी . लिखना शुरू करते तो इतिहास के सारे गड़े मुर्दे जिन्दा हो जाते , उनका दिमाग इतनी तेजी से भागता की अल्फाज पीछे रह जाते . परले दर्जे के हठधर्मी थे . आरएसएस समेत सभी हिंदूवादी संगठन उनके पीछे पड़े थे पर मजाल है कि उन्होंने सच की खोज में कोई कोताही की हो . उन्होंने लिखा कि महाराष्ट्र में ताम्र –पाषण काल में लोग शव को उत्तर –दक्षिण स्थिति में अपने मकान के फर्श के नीचे गाड़ते थे . उस समय भारत तथा अन्यंत्र कबीलाई और पशुचारण समाज में गोमांसाहार के ठोस प्रमाण मिलते हैं . देश के विभिन्न भागों में जन समुदाय जब पूरी तरह कृषिक समाज बन गये तब भी कुछ वर्गों में , विशेष रूप से कारीगरों तथा खेतिहर मजदूरों में ये प्रथा बनी रही .
ये तमाम बातें उन दिनों की है जब हम उनसे रोज मिला करते थे . मुझे पटना आरकाईब्स के लिए उनसे बात-चीत करना था . लगभग एक माह तक रोज़ उनके पास जाकर मैंने इतिहास का पुनर्पाठ किया . मेरे जीवन के ये सुन्दर पल थे . और दुखद भी . हम वर्षो बाद उनसे तब मिले जब वे जीवन की शाम का इंतजार कर रहे थे. वे बहुत बीमार थे . याददाश्त भी कमजोर हो गयी थी .उम्र के आखरी पड़ाव पर बहुत से लोग छूट जाते हैं. कम ही लोग थे जो उनका हाल लेने आते . मुझे देखकर खुश हो गए .यादों के बिम्ब उभरे , बिखर गए . मैं अब भूल जाता हूं . मायूसी के साथ उन्होंने कहा .. उम्र के इस पड़ाव पर यादें अक्सर धोखा दे जाती हैं ..वे हंसे !
अमूमन मैं 12 बजे उनके पास जाती थी . जिस दिन पहुंचने में थोड़ी देर हो जाती वे बेताबी से मेरी राह देखते . मेरे आते ही उनके चेहरे पर खुशी दिखती . थोड़ी नाराजगी से कहते आज तुमने देर कर दी …मैं उन्हें मना लेती . फिर जो बातों का सिलसिला चलता तो रुकता नहीं . बोलते-बोलते थकान हो जाती . वे रुक जाते ..मैं पूछती आपको अपने बचपन की बातें याद है .? वे बचपन की यादों में खो जाते .
एक सितंबर 1920 में उनका जन्म बरौनी में हुआ. पिता बाबू मुकुट सिंह , मां का नाम ? पेशानी पर बल देते हैं . याद नहीं आ रहा है .

मनिला से पूछ लो . मनिला (उनकी पत्नी ) हंसती है ! मां का नाम बरतो देवी है .उनकी आंखों में मैं उनका बचपन देख रही थी .वे बुदबुदाये …मैं दिन भर खेतों में भागता रहता था .मेरे पीछे मेरी मां भागती रहती अपने सात बच्चों के साथ .मेरी पांच बहने और दो भाई हैं . मेरे पिता छोटे किसान थे . उनके पास ज्यादा जमीन नहीं थी .परिवार बड़ा था , आमदनी कम इसलिए बचपन अभाव में गुज़रा .अपने गांव को अक्सर याद करते हुए कहते दुनिया बदल गयी पर देश की अमीरी- ग़रीबी नहीं बदली . मैं इतिहास को अमीरी ग़रीबी के नज़र से देखता हूँ .जिधर भी रोटी बुलाती है ग़रीबी उधर चली जाती है .अब तो अमीरी ग़रीबी का फासला बढ़ गया है .

रामशरण शर्मा की ऐतिहासिक दृष्टि लोकउन्मुख रही है. पूरी जिन्दगी उन्होंने इस बात को समझने में गुजारी कि इतिहास में आम लोगों की जगह कहां है ? वे कहते थे आम जनता को इतिहास में सही जगह नहीं मिली. प्राचीन इतिहास में उन्होंने शुद्रों के इतिहास को रेखांकित किया . यह बताने की कोशिश की किस तरह उस समय के समाज ने चालाकी से , बल से हाशिये पर पड़े तबके को शुद्र करार दिया . वे कहते हैं प्राचीन समय में ही समाज का विभाजन धर्म और जाति के आधार पर हो चुका था . प्राचीन समय में काम के आधार पर जातीय संरचना बनी .जिसे वर्ण व्यवस्था के नाम से हम जानते हैं .पहले समाज चार जातियों में विभाजित था . जिसे हम ब्राह्मण , वैश्य , क्षत्रिय, शुद्र . शुद्रों की स्थिति सबसे दयनीय थी .
वे कहते थे पूरी दुनिया के मूल निवासी आदिवासी रहे हैं . ये जनजातियां खेती पर निर्भर नहीं थी . उस समय लोगों के खान-पान-रहन –सहन का तरीका अलग था. लोग मूलतः शिकारी थे . गोमां‘ खाने का प्रचलन था . जो लोग कहते हैं गोमांस हिन्दू संस्कृति का हिस्सा नहीं है वे इतिहास को झुठलाते हैं. महात्मा बुद्ध के आने के पहले तक इतिहास में गोमांस खाने के कई उदहारण मिलते हैं . महात्मा बुद्ध ने गाय को नहीं खाने का उपदेश दिया .उन्होंने एक जगह कहा “गाय हमारी परम मित्र है , जो हमको औषध देती है , अन्य देती है , धन्य देती है , बल देती है इसलिए इसको नहीं मारिए .

रामशरण शर्मा ने जब कहा की गोमांस उस समय खाने का प्रचलन था तो उनके खिलाफ कट्टरपंथियों के हमले शुरू हो गए .और जब बड़े इतिहासकार प्रो . डी. एन झा की किताब ‘द होली काऊ’ बाज़ार में आई तो हमला और तेज़ हो गया . वे कहते थे की इतिहास की जांच –परख तथ्यों के आधार पर होती है . उसे आस्था और धारणाओं से मतलब नहीं .मैं सोच रही थी अगर हमने अपने इतिहास को सही सही समझा होता और उससे बदला लेने का काम नहीं किया होता तो आज हमारे देश में इतनी हिंसा, इतनी नफरत का बाज़ार गर्म नहीं होता . मुझे अपने शहर पर नाज़ है जिसने देश को ऐसा इतिहासकार दिया जिसे हमारी आने वाली नस्ल हमेशा याद करेगी .पटना तेरा शुक्रिया तेरे सीने में कितने राज़ दफ़न हैं . तू एक-एक कर बयान करती जा .हम जानते हैं तेरा ये घर सुकून का गहवारा है . जरा बदला –बदला लग रहा है शायद इसकी यह वजह होगी मैं खुद यकसर बदल चुकी हूं . फिर भी ये शहर मेरे लिए वो जगह है जहां सुकून से खुद को हमआहंग करने की कोशिश करती हूँ . …ऐ मेरे शहर ये तेरे लिए …… यही बहार के दिन थे , यही जमाना था , यही जगह थी, इसी जा पे आशियाना था . ऐ बागबां तुझे क्या –क्या निशान बतलाएं .

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