अभिषेक श्रीवास्तव
स्वतंत्र पत्रकार
गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणाम आने से पहले आखिरी वक्त तक कुछ लोगों को चमत्कार की उम्मीद थी. यह उम्मीद दरअसल अपनी ही गढ़ी हुई प्रस्थापनाओं की अनुगूंज को सुनने से पैदा हुई थी.
चाहे पत्रकार हों या फिर सामाजिक कार्यकर्ता, दिल्ली जैसे बड़े महानगरों से चुनाव देखने के लिए गुजरात गये लोग अपने साथ दो पूर्वाग्रह साथ लेकर गये थे- एक नोटबंदी और दूसरा जीएसटी. नोटबंदी का पूर्वाग्रह तोड़ने के लिए तो उत्तर प्रदेश का चुनाव ही पर्याप्त होना चाहिए था, लेकिन कांग्रेस की जीत की उम्मीद लगाये लोगों के दिमाग में कहीं एक धारणा काम कर रही थी कि गुजरात की रगों में चूंकि व्यापार बहता है, लिहाजा वहां इन दोनों कारकों का असर देखने को मिलेगा. इस धारणा को पाटीदारों के अनामत आंदोलन ने और पुष्ट किया था.
भाजपा की जीत में कांग्रेस समर्थित जिग्नेश मेवाणी और कांग्रेसी उम्मीदवार अल्पेश ठाकोर की जीत अपवाद कही जा सकती है. रही हार्दिक पटेल की बात, तो बनासकांठा जिले के पालनपुर जैसे मुस्लिम बहुल कस्बे में समीर खान पठान नाम के एक ऑटोचालक की कही बात याद आती है, जिसने युवा पटेल नेता की तुलना फिल्म ‘शोले’ के पुराने जेलर से की थी- ‘आधे उधर जाओ, आधे इधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ.’
गुजरात चुनाव इस बार जिग्नेश, अल्पेश और हार्दिक के चलते दिलचस्प हो गया था, वरना 2002 के बाद से यहां एक किस्म की यथास्थिति कायम रही है. पिछले साल उना में दलित उत्पीड़न की घटना से जन्मे जिग्नेश मेवाणी ने दलित-मुस्लिम एकता का नारा दिया था. हार्दिक ने पाटीदारों को आरक्षण की मांग की थी और अल्पेश का आंदोलन क्षत्रिय-ठाकोर बिरादरी में शराबबंदी से शुरू हुआ था. तीनों का कार्यक्षेत्र चूंकि गुजरात में सौराष्ट्र, उत्तरी गुजरात और मध्य गुजरात जैसे अहम इलाकों को कवर करता है, लिहाजा माना जा रहा था कि बीजेपी के वोटबैंक में ये बड़ी सेंध लगायेंगे.
जिग्नेश अमदाबाद की एक सुरक्षित (एससी) सीट से लड़ना चाहते थे. राहुल गांधी ने उन्हें कांग्रेस के गढ़ वड़गाम में भेज दिया. अल्पेश को राधनपुर से टिकट मिला. हार्दिक ही अपनी रैलियों में आ रही युवाओं की भारी भीड़ के चलते सुर्खियों में बने रहे, जिसका प्रच्छन्न लाभ जिग्नेश और अल्पेश को हुआ, जो विवादों से दूर रहकर अपना प्रचार सुचारु रूप से करते रहे. गुजरात के पटेलों का चरित्र हमेशा से सत्ता के करीब रहने का रहा है, हार्दिक इस बात को पकड़ नहीं पाये. दूसरे, यहां लोगों में एक समझदारी दिखती है कि आरक्षण का मसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 49 फीसदी कोटे के अधीन है, इसलिए आंदोलन से कुछ भी हासिल नहीं होनेवाला.
तीसरे, चूंकि खुद हार्दिक चुनाव लड़ने में अक्षम थे, तो उनके पीछे खड़ी भीड़ का कांग्रेस और भाजपा में बंटना तय था. अंत में यही हुआ.
नोटबंदी तो दूर की कौड़ी हुई, लेकिन जहां तक जीएसटी का सवाल है, व्यापारी वास्तव में उससे परेशान थे, लेकिन यह परेशानी राजनीतिक विकल्प के तौर पर कांग्रेस को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी. दरअसल, गुजरात को दिल्ली में बैठकर देखने और गुजरात जाकर देखने में जमीन-आसमान का फर्क है. दिल्ली में नर्मदा बचाओ आंदोलन को समर्थन मिलता है, लेकिन कच्छ का एक आम निवासी नर्मदा की नहर को अपने लिए वरदान मानता है.
गांधीधाम निवासी लालजीभाई कहते हैं, ‘पहले बीएसएफ वालों को पीने का पानी नहीं मिलता था. अब नर्मदा की नहर खुल जाने से वे प्यासे नहीं रहेंगे.’ उनसे जब हमने पूछा कि इससे तो कई गांव डूब जायेंगे, तो उनका जवाब हैरान करनेवाला था, ‘मेधा पाटकर के कारण इतने लंबे समय तक बांध का काम रुका रहा, वरना मोदी तो कब से इसे खोलना चाहते थे.’ इस बयान की हकीकत कच्छ के गांधीधाम जैसे अपेक्षाकृत नये शहर में देखी जा सकती है, जहां रेलवे स्टेशन के सामने मौजूद तमाम होटल, गेस्टहाउस, लॉज बीते 20 बरस में उजाड़ हो चुके हैं.
वहां अब कोई गेस्ट नहीं ठहरता. वजह? पूरे बाजार का व्यापार खारे पानी का शिकार हो गया है. इसके चलते 12 किलोमीटर दूर स्थित सरकारी कांडला पोर्ट तक जाने वाले हाइवे पर फाइव स्टार होटलों की बाढ़ आ गयी है, जिनके पास बोरिंग और आरओ फिल्टर के लिए खूब पैसा है.
गुजरात के जिस मॉडल की प्रधानमंत्री बरसों से बात करते रहे हैं, वह दरअसल वहां विकास के दोहनकारी व अमानवीय मॉडल की स्वीकार्यता का दूसरा नाम है. गुजरातियों से बात करके समझ आता है कि किसी भी कीमत पर उन्हें अपने भौतिक लाभ की फिक्र है. यह स्थिति लंबे समय में हासिल की गयी है और अब सहज हो चुकी है. इसलिए राहुल गांधी या किसी और बाहरी नेता का कुछ भी कहना-करना उनके लिए विशुद्ध ‘मगजमारी’ है, जब तक कि वह स्थानीय गुजराती की बोली में न हो.
यह एक और वजह है कि कांग्रेस से जुड़े होने के बावजूद वहां अल्पेश और जिग्नेश की जीत कैसे हो गयी. बहुत संभव है कि अगर हार्दिक पटेल चुनाव लड़ते और कांग्रेस से ही लड़ते, तो वे भी जीत जाते. हां, राहुल गांधी की दाल वहां नहीं गलनी थी और नहीं गली. इन तथ्यों के मद्देनजर गुजरात का जनादेश बिल्कुल स्वाभाविक जान पड़ता है.