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मीडिया से कुछ असहज सवाल

मृणाल पांडे वरिष्ठ पत्रकार एक जमाने में सबको खबर देने और सबकी खबर लेने का गर्व से दावा करनेवाला, अपने को जनता का पक्षधर और सबसे तेज, निर्भीक और निष्पक्ष बतानेवाला मीडिया का एक हिस्सा आज अपने मालिकान और खुद अपने हित स्वार्थों की राजनीति से अंतरंग जुड़ाव को लेकर सवालों के कठघरे में खड़ा […]

मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
एक जमाने में सबको खबर देने और सबकी खबर लेने का गर्व से दावा करनेवाला, अपने को जनता का पक्षधर और सबसे तेज, निर्भीक और निष्पक्ष बतानेवाला मीडिया का एक हिस्सा आज अपने मालिकान और खुद अपने हित स्वार्थों की राजनीति से अंतरंग जुड़ाव को लेकर सवालों के कठघरे में खड़ा है. जिस दौर में राजनीति ही नहीं, मीडिया का रूप, खबरें देने के तरीके और दायरे बदलते जा रहे हों, मीडिया पर हर कोण से बेबाक विमर्श की गहरी जरूरत है. सही है कि जनता तक जनहित में राज-समाज की खबरें, कई बार जतन से छुपाये ब्योरे को पहुंचाना आज भी वह तोता है, जिसमें सारे मीडिया की जान बसती है. पर, इसका स्वीकार कम है कि यह काम कितना जोखिमभरा व जटिल है. इसमें कई गंदी मछलियां काॅरपोरेट घरानों का प्रवक्ता तथा राजनीतिक दलों के पालतू बनकर तालाब को गंदा कर रही हैं.
पुलिस, वकील या डाॅक्टर की ही तरह एक पत्रकार और संपादक को भी अपने धंधे के सिलसिले में हर तरह के भले-बुरे लोगों से मिलना होता है. किस हद तक पीआर वालों से बात की जाये, कहां उनसे दूरी बरती जाये, इसके अलिखित नियम भी हर अनुभवी पत्रकार जानता है. उसे यह भी पता रहता है कि इनमें जनता के सच्चे हितैषी कौन हैं और खबरें हटवाने या प्लांट कराने का प्रलोभन देनेवाले तगड़े पीआर बजट से लैस बड़े काॅरपोरेट घरानों में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि कौन?
लिहाजा खबर के गलत साबित होने पर यह तर्क देना लचर है कि पत्रकार नहीं जान पाये कि अमुक राजनीतिक या काॅरपोरेट स्रोत से उनको मिली खबर गलत थी और इरादतन लीक की गयी थी. कुछ पत्रकार और उनके मालिकान चंद विवादित पीआर एजेंसी या राजनीतिक बिचौलियों से अपनी दोस्ती पर अनूठा तर्क देते हैं कि संपर्क सूत्र से जिसने जो कुछ कहा, वह उनके बीच का मामला है, जिसकी पड़ताल पत्रकारीय आजादी का हनन है. ठीक है, हमारे संविधान का अनुच्छेद-19 सबको अभिव्यक्ति की आजादी का हक देता है, पर वह यह तो नहीं कहता कि आप अमुक चैनल या अखबार के समूह संपादक या लाभकारी सूत्रों से संपर्क रखनेवाले हैं, तो आपको अभिव्यक्ति या निजता की रक्षा का दूसरों से बड़ा हक मिल जाता है.
असल दिक्कत यह है कि आज भी प्रोफेशन पत्रकारिता का क्षेत्र सीमा रेखा या परिधिविहीन है. अलबत्ता हम बात इस तरह करते हैं मानो डाॅक्टरी या प्रोफेसरी की तरह हमारी अनिवार्य अर्हताएं और प्रोफेशनल सीमाएं स्पष्ट हों. नयी तकनीकी, आक्रामक आत्मप्रचार तथा तिकड़मी क्षमता के बल पर कुछ महत्वाकांक्षी, किंतु अनुभवहीन लोगों को बहुत कम उम्र में बहुत यश तथा ओहदा मिलने से आज आत्मस्फीति और लालच बढ़ने का खतरा साफ दिख रहा है.
गुजरात चुनावों के दौरान लगभग हर चर्चित पत्रकार (खासकर शाम में टीवी कार्यक्रमों की नूरा-कुश्तियों के चीखते रेफरी और पैनल में बैठे पत्रकार) घोड़े पर सवार हरिश्चंद्र का अवतार बने दिखे, जिनका मुख्य ध्येय था आवाज ऊंची कर हर प्रतिपक्षी आवाज को खामोश कर देना. सराहना और तालियों के नशे में खुद को विक्रमादित्य समझ बैठे ऐसे पत्रकार अक्सर अपनी छवि के चक्कर में पेशे की सर्वज्ञात मर्यादाएं भूल रहे हैं, जो वरिष्ठ, अनुभवी और यशविमुख संपादकों ने संस्थानों की साख और सभ्य समाज की मर्यादाएं कायम रखने को गढ़ी थीं.
पहले अंग्रेजी में लाभ-लोभ की पत्रकारिता बढ़ी, यह सच है, लेकिन हिंदी जगत भी दूध का धुला नहीं रहा. लगातार तकनीकी तथा आर्थिक तौर से समृद्ध बनने के बावजूद हिंदी पत्रकारिता में इस या उस सत्तावान का पिट्ठू बनने का रुझान चिंताजनक रूप से बढ़ा है.
चैनलों और अखबारों के संस्करणों की संख्या बढ़ने के साथ ही अनुभवसमृद्ध ब्यूरो में कटौती दिख रही है और उनकी जगह कम वेतनमान और कम सुरक्षा के बीच भी काम करने को तैयार अनुभवहीन साइबर पत्रकार या अंशकालिक संवाददाता लगातार बढ़ रहे हैं. अफवाहों, अपने सरपरस्तों की निजी खुंदक या न्यस्त स्वार्थों को उपकृत करने के लिए बिना पुष्ट प्रमाण के कठोर मेहनत से कमाई किसी नामचीन जन की साख पर सियाही पोतना उनकी नजरों में आजाद पत्रकारिता है. जितना ऊंचा शिकार होता है, उससे भी अधिक आत्मस्फीति कि भाई देखो हमारी ताकत! हमारा काटा बड़े से बड़ा पानी नहीं मांगता.
यह भी स्मरणीय है कि बाजार पूंजी उठाकर काॅरपोरेटाइज हो गया मुख्यधारा का मीडिया आज आजादी के शुरुआती दिनों के मीडिया से बहुत अलग है, जो रूखी-सूखी खाकर ठंडा पानी पीता और पराई चूपड़ी से परहेज रख पाठकीय हित को सबसे ऊपर मानता था. अधिक पैसा कमाई की इच्छा ही सर्वोपरि है, पाठक का हित की रक्षा नहीं. ऐसे में माल खरीदवाने को हर तरह के घालमेल सहज स्वाभाविक बन रहे हैं. नतीजे कभी ‘पेड न्यूज’ के रूप में सामने आते हैं, तो कभी संपादकीय पन्नों और स्टूडियो बहसों में किसी व्यक्ति, दल या घराने के खिलाफ या समर्थन में चलायी गयी योजनाबद्ध कैंपेन की शक्ल में. इससे चंद संपादक और पत्रकार ही महिमामंडित नहीं होते, बाजार में अपनी ब्रांड इमेज चमकानेवाले मीडिया संस्थान भी लाभ उठाते हैं.
इस बिंदु पर आ खड़े मीडिया को आनेवाले समय में जनता के बीच साख बहाल रखनी हो, तो उसे खुद अपने लिए एक न्यूनतम आचार संहिता तय करने पर पुनर्विचार करना होगा. दूसरों के खिलाफ तेवर दिखानेवाले मीडिया को पता होना चाहिए कि हमारा नया उपभोक्ता अपनी पिछली पीढ़ी से भिन्न खुद उस नयी तकनीकी से परिचित है, जो पल भर में सचित्र खबरों और वीडियोज के आदान-प्रदान को सोशल मीडिया की मार्फत नेट पर मिनटों में वायरल बना सकता है.
प्रिंट के लिए आनेवाला समय उसका ढलाव युग होगा. अंग्रेजी में सबसे बड़ा युवा पाठक वर्ग तो अब खबरें सीधे ऑनलाइन संस्करणों या साइट्स से चलते-फिरते 24X7 पाने ही लगा है, यही देर-सबेर हिंदी प्रिंट पत्रकारिता के साथ भी होगा. उस स्थिति के लिए पेशेवर और तकनीकी, दोनों मंचों पर हम कितने तैयार हैं? नेट के मुक्ताकाश में एकल उड़ान लायक क्षमता न होने से क्या एक बार फिर हिंदी पत्रकारिता अंग्रेजी साइबर पत्रकारिता के अनुवादी उपनिवेश ही बनकर रह जायेगी, जैसे एक सदी पहले तक प्रिंट के क्षेत्र में वह थी?

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