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क्या गुजरात वाटरलू बनेगा?

योगेंद्र यादव संयोजक, स्वराज अभियान गुजरात में भाजपा को क्या सचमुच ही पराजित किया जा सकता है? क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने गृहराज्य में यह अहम चुनाव हार सकते हैं? क्या राष्ट्रीय राजनीतिक कथ्य में अचानक ही कोई परिवर्तन संभव है? कुछ महीने पूर्व मैंने ऐसी अटकलें खारिज कर दी होतीं. गुजरात में भाजपा कुछ उसी […]

योगेंद्र यादव

संयोजक, स्वराज अभियान

गुजरात में भाजपा को क्या सचमुच ही पराजित किया जा सकता है? क्या प्रधानमंत्री मोदी अपने गृहराज्य में यह अहम चुनाव हार सकते हैं? क्या राष्ट्रीय राजनीतिक कथ्य में अचानक ही कोई परिवर्तन संभव है?

कुछ महीने पूर्व मैंने ऐसी अटकलें खारिज कर दी होतीं. गुजरात में भाजपा कुछ उसी तरह बद्धमूल रही है, जिस तरह पश्चिम बंगाल में कभी वाममोर्चा हुआ करता था. 1991 के लोकसभा चुनाव में अपनी स्तब्धकारी जीत के बाद भाजपा गुजरात में एक भी चुनाव नहीं हारी है.

इसलिए मैं गुजरात से आनेवाली विपरीत खबरों पर जरा कम ही ध्यान देता था. वहां भाजपा की एक और जीत मुझे पक्की ही दिखती रही.

ऐसा नहीं था कि गुजरात में सब कहीं मंगल ही मंगल था. सब जानते हैं कि सुप्रसिद्ध ‘गुजरात मॉडल’ कुछ वास्तविक मगर साधारण उपलब्धियों का अतिरेकपूर्ण विवरण था. शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे सामाजिक सूचकों पर गुजरात दोयम प्रदर्शन करनेवाला राज्य था और है. खासकर किसानों के लिए तो इस मॉडल ने खास कमतर ही किया. किसी भी दूसरे राज्य में इन परिस्थितियों का अर्थ सत्तापक्ष की पराजय होता, पर गुजरात कुछ अलग था.

गुजरात में भाजपा की सन्निकट पराजय की खबरें लानेवालों के प्रति मेरी एक ही प्रतिक्रिया होती: मुझे यह नहीं बताइए कि मतदाता भाजपा से असंतुष्ट हैं. यह बताइए कि क्या वे इतने नाखुश हैं कि वे उसे हराने हेतु किसी को भी और खासकर कांग्रेस को वोट देने को तैयार हैं?

अब मुझे यह लगने लगा है कि वे ऐसा कर सकते हैं. यहां मुझे यह भी जोड़ने दें कि यह निष्कर्ष मेरे विषयगत आकलन अथवा मेरी सियासी पसंदगी पर आधारित नहीं है. मैं इन पर कुछ सार्वजनिक सर्वेक्षणों, खासकर एबीपी न्यूज के लिए लोकनीति-सीएसडीएस टीम द्वारा जनमत के तीन सर्वेक्षणों की एक शृंखला के नतीजों के आधार पर पहुंचा हूं.

इन नतीजों की शुद्धता पर मेरा यकीन न केवल इस टीम के सटीक आकलनों के रिकॉर्ड (यूपी के हालिया चुनावों को छोड़कर) की वजह से, बल्कि इसलिए भी आधारित है, क्योंकि इसने अपने निष्कर्ष खासे पारदर्शी ढंग से सार्वजनिक डोमेन में डाल रखे हैं. यहां मुझे यह भी साफ कर देना चाहिए कि इस टीम की स्थापना से संबद्ध होते हुए भी पिछले चार वर्षों से इससे मेरा कोई जुड़ाव नहीं रहा है.

इसी वर्ष अगस्त के पहले पखवाड़े में संपन्न इस शृंखला के प्रथम सर्वेक्षण ने यह पाया कि कांग्रेस पर भाजपा की बढ़त 30 प्रतिशत थी. मगर अक्तूबर में किये गये अगले सर्वेक्षण के नाटकीय नतीजों के अनुसार यह बढ़त घटकर सिर्फ छह फीसद तक सिमट गयी.

क्या यह रुझान का एक त्रुटिपूर्ण अवलोकन था? इसका उत्तर नवंबर के अंतिम सप्ताह में संपन्न तीसरे सर्वेक्षण ने यों दिया कि अब भाजपा की वह बढ़त घटकर शून्य पर पहुंच चुकी है, यानी दोनों मुख्य स्पर्धी पार्टियों को मतों के 43-43 प्रतिशत मिल रहे हैं. निष्पक्षता के हित में यहां यह बताना भी जरूरी है कि लोकनीति-सीएसडीएस टीम भाजपा की पराजय की भविष्यवाणी नहीं करती. सच यह है कि नवंबर के अंतिम हफ्ते में चुनाव होने पर उसने भाजपा के लिए 91-99 सीटों की संभावना बतायी. मगर, वास्तविक मतदान के दिन क्या होगा? यह सर्वेक्षण इसका कोई जवाब नहीं देता.

मेरी समझ से यह रुझान भाजपा के लिए एक साफ पराजय की संभावना व्यक्त करता है. ऐसे स्पष्ट एवं लगातार रुझान अंतिम हफ्ते नहीं पलटते. सामान्यतः, वे और सघन ही होते हैं.

इस तरह, भाजपा द्वारा शून्य बढ़त से भी नीचे ऋणात्मक बढ़त तक फिसल आने की ही संभावना बनती दिखती है. इस विचित्र-से द्विदलीय संघर्ष में चार फीसद बढ़त भी कांग्रेस को एक स्पष्ट बहुमत दिलाने को पर्याप्त होगी. हमें यहां भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण सत्तापक्ष का बढ़ा-चढ़ा आकलन किया करते हैं. सो, यह भी संभव है कि कांग्रेस की यह बढ़त आज बतायी जा रही संभावना से भी आगे चली जाये.

इस सर्वेक्षण के इस मुख्य निष्कर्ष की पुष्टि इसी सर्वेक्षण के कई अन्य नतीजों से भी होती है.

गुजरात सरकार की स्वीकार्यता दर लगातार गिरती रही है और अब वह खतरे के निशान को भी पार कर चुकी है. ऐसे मतदाताओं की तादाद, जो अब इस सरकार को एक और मौका नहीं देना चाहते, उनसे ज्यादा हो चुकी है, जो अभी भी वैसा करना चाहते हैं. इस बार शख्सियत मुख्य कारक नहीं रह गयी है. यह सर्वेक्षण जिस एक मुख्य मुद्दे को सामने लाता है, वह अर्थव्यवस्था की हालत ही है. मतदाता बेरोजगारी तथा कीमतों में वृद्धि से सर्वाधिक चिंतित हैं.

बात सिर्फ इस सर्वेक्षण की नहीं है. गुजरात से आनेवाली विश्वसनीय जमीनी रिपोर्टें भी यही कहती हैं. मूंगफली तथा रूई की कीमतों में नवीनतम गिरावट पर किसानों का क्रोध दिखता है, जबकि गुजराती व्यवसायी भी ठगे-से महसूस कर रहे हैं.

क्या अब भी कुछ बदल सकता है? मोदी की रैलियां तो कोई जादू करती नहीं दिखतीं. मैं उन लोगों में शामिल नहीं, जिन्हें पंजाब तथा यूपी के चुनावों के दौरान इवीएम में कोई षड्यंत्र दिखा. वैसे भी, मतदाताओं के मत की पुष्टि करती वीवीपीएटी मशीनें तथा मशीनी गिनती का मतदान पावती से आकस्मिक मिलान वैसी संभावनाएं खत्म कर देगा.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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