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आधुनिकता के दौर में विलुप्त हो रही पारंपरिक खेती

पीपराकोठी : आधुनिक खेती व रासायनिक खाद के प्रयोग के कारण हमारी परंपरागत खेती विलुप्त होते चली जा रही है. तिसी, जौ, तिल, मड़ुआ, सावा, कोदो, कौनी व बाजरा जैसी पारंपरिक अन्न अब दुर्लभ बन गया है. इन फसलों के उत्पादन नहीं होने से लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर तो पड़ ही रहा है. […]

पीपराकोठी : आधुनिक खेती व रासायनिक खाद के प्रयोग के कारण हमारी परंपरागत खेती विलुप्त होते चली जा रही है. तिसी, जौ, तिल, मड़ुआ, सावा, कोदो, कौनी व बाजरा जैसी पारंपरिक अन्न अब दुर्लभ बन गया है. इन फसलों के उत्पादन नहीं होने से लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर तो पड़ ही रहा है. विद्वानों को यज्ञ आदि कर्मों के कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है. बताया जाता है कि इन फसलों के उत्पादन हर प्रकार के भूमि पर किया जा सकता है और यह शून्य लागत खेती की जा सकती है.

साथ ही खेतों की जैविकता को लौटाने में सहायक सिद्ध होगी. इस फसलों में बल, वीर्य और बुद्धि को पुष्ट करने जैसी प्राकृतिक गुण विद्यमान है. इस संबंध में भारतीय किसान संघ के प्रांतीय मंत्री मानस कुमार पांडेय ने कहा कि इन फसलों के विलुप्त होने में दोषी हमलोग स्वयं है. सरकारी स्तर पर संरक्षण भी नहीं मिल रहा है.

जरूरी है कि कृषि वैज्ञानिकों को इस दिशा में स्वस्थ चिंतन कर देशानुकूल मार्गदर्शन किसानों को दें. कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक डाॅ अरविंद कुमार सिंह ने बताया कि इस खेती को बढ़ावा देने के लिए बराबर किसानों को जागरूक किया जा रहा है. दो बार किसानों को प्रशिक्षण भी दिया गया है. डाॅ राजेंद्र प्रसाद कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के तरफ से राजेंद्र कौनी वन व मडुआ के प्रमाणित बीज भी उपलब्ध कराया गया है ताकि किसान ऐसे फसलों का उत्पादन कर सके.

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