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नेट न्यूट्रैलिटी का मुद्दा

एक उपभोक्ता जब कोई इंटरनेट प्लान खरीदता है, तो उसके मन में इसकी गुणवत्ता को लेकर उम्मीदें होती हैं कि सेवा-प्रदाता कंपनी (आइएसपी) के प्लान की रफ्तार से वह इंटरनेट का लाभ उठा सकेगा. लेकिन, कंपनी अपने फायदे के लिए वेबसाइट कारोबारियों से कोई सौदा कर ले और सूचना तकनीक की युक्ति के सहारे सूचनाओं […]

एक उपभोक्ता जब कोई इंटरनेट प्लान खरीदता है, तो उसके मन में इसकी गुणवत्ता को लेकर उम्मीदें होती हैं कि सेवा-प्रदाता कंपनी (आइएसपी) के प्लान की रफ्तार से वह इंटरनेट का लाभ उठा सकेगा. लेकिन, कंपनी अपने फायदे के लिए वेबसाइट कारोबारियों से कोई सौदा कर ले और सूचना तकनीक की युक्ति के सहारे सूचनाओं तक उपभोक्ता की पहुंच को बाधित करे, तो क्या होगा? मसलन, उपभोक्ता किसी वेबसाइट पर पहुंचना चाहे और वेबसाइट सेवा-प्रदाता कंपनी की किन्हीं प्राथमिकताओं के कारण वह वेबसाइट उपभोक्ता के मोबाइल, टेबलेट या लैपटॉप पर न खुले या फिर कुछेक वेबसाइट पर मौजूद चीजें तो उपभोक्ता को बतायी गयी रफ्तार से मिलें, लेकिन कुछ अन्य वेबसाइट की सामग्री वांछित गति से न मिले. या उपभोक्ता कुछ डाउनलोड करे, तो साथ में अन्य चीजें भी उसके स्क्रीन पर आ जाएं और इससे सूचना के उपभोग की गुणवत्ता प्रभावित हो.

ये सारे उदाहरण उपभोक्ता के साथ सेवा-प्रदाता के भेदभाव के संकेत करते हैं. भारतीय दूरसंचार प्राधिकरण (ट्राई) ने ऐसे बरताव पर अंकुश लगाने की गरज से नेट न्यूट्रैलिटी के पक्ष में सिफारिश की है, जिसके मुताबिक सेवा-प्रदाता वेबमार्ग के जरिये होनेवाले सूचनाओं के आवागमन को बाधित करने की मनमानी नहीं कर सकते हैं.

दुनिया में नेट न्यूट्रैलिटी की बहस तकरीबन 10 साल पुरानी है. वर्ष 2007 में एक अमेरिकी सेवा-प्रदाता कंपनी कॉमकास्ट कोर ने बिट टोरेंट नाम के इंटरनेट संसाधन पर फाइलों को अपलोड करना जानते-बूझते धीमा कर दिया था और इससे उपभोक्ताओं को बड़ी परेशानी हुई थी. इसके एक साल बाद अमेरिका के संघीय संचार आयोग ने उस कंपनी को भेदभाव नहीं करने का निर्देश जारी किया था. साल 2015 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नेट न्यूट्रैलिटी को समर्थन दिया था. भारत में नेट न्यूट्रैलिटी का मसला भी उसी साल के दिसंबर में उठा था.

उस वक्त ‘फ्री बेसिक्स’(इंटरनेट की एक युक्ति) प्रोग्राम के जरिये फेसबुक ने भारत में टूजी डेटा प्लान (धीमी) और फोरजी डेटा प्लान (तेज) का उपयोग करनेवालों के बीच भेद की स्थिति पैदा करने की कोशिश की थी. टू-जी डेटा प्लान वालों को इंटरनेट की कुछ बुनियादी सेवाएं दी जा रही थीं, जबकि फोर-जी वाले उपभोक्ताओं को अतिरिक्त सेवाएं. नागरिक संगठनों ने उस वक्त इस भेदभाव के खिलाफ कार्रवाई के लिए ट्राइ से गुहार लगायी थी. इनका तर्क था कि मसला अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा है.

सूचना गढ़ने और वांछित गति से उसे हासिल करने या फैलाने की सहूलियत इस आजादी से जुड़ा हुआ है. ट्राई ने नागरिक संगठनों के तर्क को स्वीकार कर उपभोक्ताओं के लोकतांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित करने की दिशा में अहम कदम उठाया है. उम्मीद है कि संस्था सेवा-प्रदाताओं पर निगरानी रखेगी और नेट न्यूट्रैलिटी को चोट पहुंचाने की कोशिशों को रोकेगी.

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