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सुखी जीवन पाना है, तो करें समर्पण

माता अमृतानंदमयी आध्यात्मिक गुरु सभी जीवों में एक भाव सामान्य है, वह है प्रेम. इस मार्ग द्वारा स्त्री-पुरुष परस्पर तथा दोनों प्रकृति को और प्रकृति विश्व को प्राप्त कर सकते हैं. और जो प्रेम सब सीमाओं को तोड़ कर बाहर बह निकलता है वह है- विश्व-मातृत्व. इस धरा पर यदि कोई उत्तम पुष्प खिल सकता […]

माता अमृतानंदमयी आध्यात्मिक गुरु
सभी जीवों में एक भाव सामान्य है, वह है प्रेम. इस मार्ग द्वारा स्त्री-पुरुष परस्पर तथा दोनों प्रकृति को और प्रकृति विश्व को प्राप्त कर सकते हैं. और जो प्रेम सब सीमाओं को तोड़ कर बाहर बह निकलता है वह है- विश्व-मातृत्व.
इस धरा पर यदि कोई उत्तम पुष्प खिल सकता है तो वह है प्रेम का पुष्प. एक खूबसूरत, सुगंधित फूल किसी छोटे से पौधे पर भी खिल सकता है. उसी प्रकार, प्रेम मानव-हृदय में प्रस्फुटित होता और फलता-फूलता है. स्त्री-पुरुष दोनों को इसे भीतर से विकसित होने देना चाहिए. दो प्रेमी हृदयों के सौंदर्य व शक्ति से बढ़ कर कुछ गूढ़ नहीं है. प्रेम में पूर्णिमा के चंद्रमा जैसी शीतलता तथा सूर्य की किरणों जैसी चमचमाती दीप्ति है, परंतु अनुमति बिना प्रेम हमारे हृदय में प्रविष्ट नहीं हो सकता. स्त्रियों व पुरुषों को अपने भीतर इसी प्रतीक्षारत प्रेम का आह्वान करने को समान रूप से तत्पर होना चाहिए. केवल और केवल प्रेम ही मानसिकता में स्थाई परिवर्तन ला सकता है.
यदि पति-पत्नी परस्पर सूझ-बूझ के साथ रहते हैं, तो उनके बीच अलगाव की स्थिति कम होती जायेगी. किसी सीमा तक, इससे सामाजिक समस्याएं भी कम होंगी. आजकल दूसरों को दिखाने के लिए कोई दंपती यह दावा कर सकता है कि ‘हम परस्पर प्रेम व विश्वास के साथ रहते हैं’- यह सिर्फ दावा ही है. प्रेम कोई कल्पना अथवा दिखावे की वस्तु तो है नहीं, यह तो जीने की राह अथवा यूं कहें कि स्वयं जीवन ही है.
मनुष्य की सहज प्रकृति, प्रेम, मुखौटा कैसे बन गयी? समझौते तथा विनम्रता को छोड़ कर जब कोई स्वयं को गर्त में गिरा देता है तो प्रेम एक दिखावा बन कर रह जाता है. उदाहरण के लिए यदि हम नदी-किनारे खड़े रह कर केवल देखते रहें, तो क्या हमारी प्यास बुझेगी?
प्यास बुझाने के लिए तो हमें झुक कर पानी पीना होगा, परंतु यदि हम सीधे तन कर खड़े रहेंगे और नदी को भला-बुरा कहेंगे तो उससे क्या लाभ होगा? इसी प्रकार, यदि हमें स्वयं को प्रेम के निर्मल जल से भरना है तो समर्पण करें.
आज के स्त्री-पुरुष किसी गुप्त-पुलिस विभाग के समान हैं. वे जो कुछ देखते-सुनते हैं, उसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं. ऐसे संदेही स्वभाव के कारण उनकी आयुष्य तथा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है. यह स्वयं में एक गंभीर रोग है. जिसे लग गया, वह दूसरों की समस्या को सहानुभूति सहित सुनने की क्षमता खो बैठता है.
यद्यपि अनेकों संबंध खतरे में हैं, फिर भी प्रेम पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो गया. यदि प्रेम मर गया, तो विश्व समाप्त हो जायेगा. प्रेम की कभी न बुझने वाली चिंगारी हम सबके भीतर उपस्थित है. हमें केवल इसे थोड़ी-सी हवा देनी है और फिर देखियेगा- कैसे यह लपटों में बदल जायेगी.
आज हम अधिकाधिक पशु-प्रजातियों को लुप्तप्राय होता देख रहे हैं. क्या हम प्रेम को भी इसी भांति लुप्त होने देंगे? नहीं, इसे लुप्त होने से रोकने के लिए हमें फिर से ईश्वर (किसी भी रूप में) में श्रद्धा कर, उसकी पूजा-उपासना की ओर लौटना होगा. वह ईश्वर बाहर कहीं नहीं, अपितु भीतर है- करना है तो केवल इतना कि अपनी दृष्टि को सुधार लें. जैसे पुस्तक पढ़ते समय हम अपनी दृष्टि को शब्दों पर जमाते हैं न कि उस कागज पर जिस पर वे शब्द छपे हैं. कागज तो वह अधिष्ठान है, जिस पर वे शब्द स्पष्ट किये गये हैं.
कुछ लोगों के साथ यह प्रयोग कर के देखिए. एक बड़े से बोर्ड को सफेद कागज से ढक दीजिए. इस सफेद कागज के बीचोंबीच एक छोटा-सा काला धब्बा लगा दें. फिर उनसे पूछिए, ‘आपको क्या दिखाई दे रहा है?’ अधिकांश लोगों का उत्तर होगा- ‘मुझे एक छोटा सा काला धब्बा दिखाई दे रहा है.’ बहुत कम लोग कहेंगे कि, ‘मुझे एक बड़े से सफेद कागज के बीचोबीच एक काला धब्बा दिखाई दे रहा है.’
आज मानवता की ऐसी दशा हो गयी है! स्त्री-पुरुष में जीवन के आधार-मात्र, प्रेम, के मूल्य को आंकने की क्षमता नहीं रही. जब हम पढ़ें तो जरूरी है कि अक्षरों को देख पाएं, परंतु पढ़ते समय यह ज्ञान भी बना रहे कि कागज अधिष्ठान है. मेरे बच्चे, यह समझें कि प्रेम जीवन का आधार है, फिर सब शोक दूर हो जायेंगे तथा सब सुखी होंगे.

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