नयी दिल्ली : जम्मू कश्मीर में प्रभावी अनुच्छेद 35 ए पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई आठ हफ्ते तक टल गयी है. यह अनुच्छेद जम्मू कश्मीर विधानसभा को वहां के स्थायी नागरिकों को परिभाषित करने सहित अन्य तरह के अधिकार प्रदान करता है. शीर्ष अदालत में सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने हलफनामा देकर इस संबंध में नोटिस का जवाब देने के लिए आठ हफ्ते का समय मांगा. इस मांग को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई टाल दी. अटाॅर्नीजनरलने इस संबंध में कश्मीर समस्या के लिएकेंद्रद्वारा नियुक्त वार्ताकार का हवालादिया. मामले की सुनवाई करने वालों मेंमुख्य जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ एवं न्यायमूर्ति अजय माणिकराव खानविलकर शामिल थे.
क्या है अनुच्छेद 35ए?
जम्मू कश्मीर में लागू अनुच्छेद 35ए ने वहां एक समुदाय जैसा एक वर्ग तैयार कर दिया है, जो वहां का स्थायी नागरिक नहीं है और आधी सदी से भी अधिक लंबे अरसे सेरिफ्यूजीकी हैसियत से रह रहा है. हालात यह है कि उस समुदाय के लोग देश का प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं, लेकिन जम्मू कश्मीर की किसी पंचायत का प्रधान नहीं. इस धारा की प्रासंगिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट आज सुनवाई करने वाला है. ऐसे में इसका कश्मीर के कई समूहों ने विरोध किया है. यहां तक की जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने भी कहा है कि इस धारा को हटाने से राज्य में जन विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी.सैयदअली शाहगिलानीएवं मीर वाइज फारुख जैसेे अलगावादी नेता ने इस मामले में विरोध की चेतावनी दी है. ऐसे में यह धारा क्या है और यह किन परिस्थितियों में लागूहुई है इसके बारे में जानना दिलचस्प है.
प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने किया था लागू
अनुच्छेद 35ए को देश के प्रथमक राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने लागू किया था. इसे 15 मई 1954 को एक आदेश के तहत लागू किया गया था. इस धारा को संविधान की धारा के 370 के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों के तहत लागू किया गया था. अनुच्छेद 35ए जम्मू कश्मीर सरकार व वहां की विधानसभा को वहां का स्थायी नागरिक तय करने का अधिकार देता है. इस धारा के तहत 1956 में जम्मू कश्मीर ने राज्य में स्थायी नागरिकता की परिभाषा तय कर दी गयी.
इसके तहत यह व्यवस्था की गयी कि जम्मू कश्मीर का नागरिक वही होगा जो 14 मई 1954 से पहले राज्य का नागरिक रहा हो या इससे पहले दस सालों सेवहां रहा रहा हो. साथ ही उसके पास राज्य में संपत्ति हो. इन प्रावधानों ने 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से विस्थापित होकर जम्मू कश्मीर में आये लोगों की नागरिकता का अधिकार छिन लिया. चूंकि देश का विभाजन धर्म के आधार पर ही हुआ था और ऐसे में वहां से अधिसंख्या विस्थापित हिंदू ही थे. एक आंकड़े के अनुसार, 5764 हिंदू परिवार जम्मू पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये थे. इसमें 80 प्रतिशत हिंदू थे.
जम्मू कश्मीर के इस समुदाय की स्थिति म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों जैसी हो गयी, जिन्हें वहां के नये नागरिकता कानून के तहत नागरिक मानने से इनकार कर दिया गया था और वे वहां के वोटर नहीं रहे और न ही किसी अन्य तरह के अधिकार मिले.
चूंकि ये विस्थापित थे और 1954 के हिसाब से सात साल पहले ही जम्मू कश्मीर में आये थे, इसलिए वे वहां के स्थायी निवासी नहीं घोषित हुए. इस दौरान पाकिस्तान से आये वैसे लोग जो भारत के अन्य दूसरे राज्यों में जा बसे, उन्हेंस्थायीनिवासी का दर्जा भी मिली और वो तमाम अधिकार जो पहले से इस भूभाग पर रहे रहे थे.
लेकिन, जम्मू कश्मीर में उन लोगों की आज तीसरी व चौथी पीढ़ी भी रिफ्यूजी ही है. वे राज्य विधानसभा चुनाव व निकाय चुनाव में वोट नहीं कर सकते हैं और न ही संपत्ति खरीद सकते हैं. वे देश के लोकसभा चुनाव में वोट जरूर कर सकते हैं, क्योंकि भारत उन्हें अपना नागरिक मानता है. ऐसे में वे जम्मू कश्मीर की किसी पंचायत का प्रधान व मुख्यमंत्री नहीं बन सकते, लेकिन भारत के शीर्ष पदों पर अवश्य पहुंच सकते हैं.
इन लोगों को राज्य में नौकरियां नहीं मिलती हैं और सरकारी शिक्षण संस्थानों में नामांकन भी नहीं होता है. कुल मिलाकर जम्मू कश्मीर में उनकी वही स्थिति है, जो म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की. हालांकि उनके लिए थोड़ी राहत की बात यह है कि एक राष्ट्र के रूप में भारत उन्हें सारे अधिकार देता है.
आदेश को चुनौती देने वालों का क्या है तर्क
धारा 35ए को चुनौती देने वालों का तर्क है कि यह आदेश चूंकि राष्ट्रपति के आदेश से लागू किया गया था, इसलिए इसकी वैधानिकता संदिग्ध है. क्योंकि संविधान में प्रावधान बनाने, हटाने या जोड़ने का अधिकार संसद को है और वह भी संविधान संशोधन की प्रक्रिया के द्वारा. हालांकि प्रथम राष्ट्रपति ने संविधान की धारा 370 के तहत ही इस तरह के आदेश दिये थे. इनकी मांग है कि एेसे में इसे हटाना चाहिए, जिस पर शीर्ष अदालत को विचार करना है. अगर इस धारा को हटाया जाता है तो इसके बाद जिन्हें आज रिफ्यूजी कहा जाता है उन्हें प्रोपर्टी खरीदने व नौकरी मिलने का रास्ता साफ हो जायेगा. साथ ही वे वहां के स्थायी नागरिक भी हो जायेंगे और स्थानीय चुनाव में भाग ले सकेंगे. सुप्रीम कोर्ट में वी द सिटीजन्स नामक एनजीओ ने याचिका दायर की है. एक याचिका चारू वली खन्ना नामक एक शख्स ने भी डाली है.