मुकुल श्रीवास्तव
टिप्पणीकार
जापानी मूल के ब्रिटिश लेखक काजुओ इशिगुरो को इस साल के साहित्य का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हो चुकी है. नोबेल पुरस्कार किसी साहित्यकार के उत्कृष्ट होने का पैमाना नहीं है, पर भारत में हिंदी साहित्य कहां पिछड़ जाता है? यह सवाल उमड़ते-घुमड़ते मुझे मेरे बचपन में ले गया.
एक निम्नवर्गीय परिवार में पढ़ने के संस्कार क्या होते हैं, इसका पता मुझे कभी नहीं चल पाया. वहां पढ़ाई का मतलब सिर्फ पाठ्यक्रम की किताबें थीं या फिर कुछ पत्रिकाएं थीं, जो नियमित अंतराल पर लगातार तो नहीं ही मिलती थीं, पर उसमें भी राशनिंग थी. गृहशोभा और मनोरमा जैसी पत्रिकाएं नहीं पढ़ सकता था. भले ही वो घर में इधर-उधर छितरायी पड़ी रहती हों.
मैं उस दिन को याद करके आज भी दुख से भर उठता हूं कि मैं अपने जीवन की पहली कविता संभाल नहीं सका. शायद तीसरी कक्षा में था, गर्मियों की छुट्टी में स्कूल की बेकार डायरी में कार्बन लगाकर अपनी माताजी पर एक कविता लिखी थी. वह कविता तो मुझे नहीं याद है, पर वह थी बहुत अच्छी, क्योंकि उसके लिए घर में सबसे सराहना मिली थी.
कुछ दिन बाद बात आयी-गयी हो गयी. हमें यही सिखाया गया था कि सिर्फ कोर्स की किताबें पढ़ो. छठवीं कक्षा में मुझे उपन्यास पढ़ने का चस्का लगा, पर रानू और गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ते हुए पकड़े जाने पर घर में काफी जलील होना पड़ा.
दरअसल, अपने शैक्षिक जीवन की सीढ़ियां चढ़ते हुए, पाठ्यक्रम में प्रस्तावित साहित्य के अलावा हमारे जीवन में साहित्य कहीं था ही नहीं. साहित्यिक किताबों पर खर्च पैसे की बर्बादी माना जाता था. घर का ऐसा माहौल पता नहीं पैसे की कमी के कारण था या माता-पिता के कम पढ़े-लिखे होने के कारण, या मुझे किसी तरह एक अदद सरकारी नौकरी के लायक बना देने के कारण.आठवीं क्लास तक मेरे लिए साहित्य का मतलब प्रेमचंद, महादेवी वर्मा आदि ही थे.
वह तो भला हो नवीं कक्षा में छात्रवृत्ति मिल गयी और मैं उस विद्यालय में पहुंच गया, जिसका पुस्तकालय आज भी मेरे सपने में आता है. उसी ने दुनियाभर के साहित्य से मेरा परिचय कराया, पर पढ़ने (साहित्य) का संस्कार न होने के कारण लंबे समय तक इस समस्या से जूझता रहा कि क्या पढूं और पाठ्यक्रम से इतर किताबें पढ़ने से कहीं मैं अपना भविष्य तो नहीं चौपट कर रहा हूं.
लेकिन, पढ़ने के संस्कार देर से ही सही, मिलने लग गये और इस बात का अहसास भी कि अगर अच्छा लिखना है, तो पहले पढ़ना सीखना होगा. अब यह तो नहीं पता कि मैं लिखना कितना सीख पाया हूं, लेकिन इतना जरूरत पता है कि मैं पढ़ना जरूर सीख गया हूं.