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जेबुन्निसा : अंतहीन इंतज़ार की एक ख़ामोश कविता

ध्रुव गुप्त का जन्म 1 सितंबर, 1950 को बिहार के गोपालगंज में हुआ. पटना में इनका स्थायी निवास है. भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी रहे हैं. कवि, ग़ज़लगो, कथाकार और फीचर लेखक. अब तक छह पुस्तकें – ‘कहीं बिल्कुल पास तुम्हारे’, ‘जंगल जहां ख़त्म होता है’, ‘मौसम जो कभी नहीं आता’ (कविता संग्रह), ‘मुठभेड़’ […]

ध्रुव गुप्त का जन्म 1 सितंबर, 1950 को बिहार के गोपालगंज में हुआ. पटना में इनका स्थायी निवास है. भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी रहे हैं. कवि, ग़ज़लगो, कथाकार और फीचर लेखक. अब तक छह पुस्तकें – ‘कहीं बिल्कुल पास तुम्हारे’, ‘जंगल जहां ख़त्म होता है’, ‘मौसम जो कभी नहीं आता’ (कविता संग्रह), ‘मुठभेड़’ (कहानी संग्रह), ‘एक ज़रा सा आसमां’, ‘मौसम के बहाने’, मुझमें कुछ है जो आईना सा है'(ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित. संपर्क – 8210037611 / ईमेल dhruva.n.gupta@gmail.com

-ध्रुव गुप्त-
भारत के मध्यकाल में प्रेम की अप्रतिम गायिका मीराबाई के अलावा प्रेम की दीवानी एक और कवयित्री भी हुई थी जिसके बारे में कम लोगों को ही पता है. प्रेम की गहन संवेदना, दर्द और अंतहीन प्रतीक्षा के अलफ़ाज़ देने वाली यह कवयित्री थी सत्रहवीं सदी की मुग़ल शहज़ादी, औरंगज़ेब की बड़ी बेटी जेबुन्निसा. मुग़ल खानदान में उसके आखिरी शासक बहादुर शाह ज़फर के अलावा जेबुन्निसा ही ऐसी शख्स थी जिसकी शायरी को दुनिया भर में सम्मान के साथ पढ़ा और सराहा जाता है. उसके जीवन काल में उसकी रचनाएं देश के लोगों तक नहीं पहुंची तो इसकी वजह यह थी कि वह हिंदी या किसी स्थानीय भाषा में नहीं, मुगलों की राजकीय भाषा फ़ारसी में लिखती थी. हालांकि रूमान और असफल प्रेम की पीड़ा उसकी शायरी के केंद्र में है, लेकिन उसमें कहीं-कहीं सूफी दर्शन का असर भी दिख जाता है. मिर्ज़ा ग़ालिब के पहले वह अकेली शायरा थी जिनकी रुबाइयों, गज़लों और शेरों के अनुवाद अंग्रेजी, फ्रेंच, अरबी सहित कई विदेशी भाषाओं में हुए हैं. दुर्भाग्य से उसके अपने देश में हिंदी और उर्दू में उनकी रचनाओं का अनुवाद, प्रकाशन और मूल्यांकन होना अभी बाकी है.
मुग़ल सम्राट औरंगजेब भारतीय इतिहास का सबसे विवादास्पद व्यक्तित्व रहा है. अंग्रेज इतिहासकारों ने आम तौर पर उसे एक कट्टर, धर्मांध, शुष्क और हृदयहीन शासक के रूप में चित्रित किया है. औरंगज़ेब के बारे में इसके विपरीत दृष्टि रखने वाले इतिहासकारों की भी कमी नहीं है. सच्चाई बहुत उलझी हुई है, लेकिन तमाम विरोधाभासों के बीच उसके व्यक्तित्व का एक छुपा हुआ पहलू यह है कि अपने व्यक्तिगत जीवन में वह एक विलक्षण संगीतप्रेमी और कवि रहा था. लेखक निकोलो मनुक्की ने अपनी किताब ‘स्टोरिया डि मोगोर’ में औरंगजेब के दरबार की कुछ संगीत सभाओं का वर्णन किया है. उसे ध्रुपद संगीत प्रिय था और उसके दरबार में खुशहाल खां, बिसराम खां, सुखीसेन, किशन खां, हयात रंग खां, मृदंग राय जैसे उस समय के विख्यात ध्रुपद गायक हुआ करते थे. औरंगज़ेब खुद एक कुशल वीणावादक था. इस किताब के अनुसार औरंगज़ेब एक कवि भी था और ध्रुपद के लिए बन्द लिखा करता था. संगीतज्ञ शेख मुहीउद्दीन याहिया मदनी चिश्ती उसके उस्ताद थे. संगीतज्ञ खुशहाल खां ने अपनी एक रचना में संगीतप्रेमी औरंगजेब को ‘औलिया’ और ‘जिन्दापीर’ तक कहकर संबोधित किया है – ‘आयौ आयौ रे महाबली आलमगीर / जाकी धाक देखे कोउ धरे न धीर / चकतावंस सुलितान औरंगजेब / साहिन में साहि औलिया जिन्दपीर’ ! औरंगजेब के काल में उसकी सहायता से संगीत के कई बहुमूल्य ग्रंथ लिखे गए, जिनमें प्रमुख थे – मिर्ज़ा रोशन मीर का ‘संगीत पारिजात’ तथा इबाद मुहम्मद कामीलखानी के ‘असामीसुर’ और ‘रिसाला अमलेबीओ ठाठ रागिनी’। औरंगज़ेब के दोहरे व्यक्तित्व का भावनात्मक पक्ष उसकी बेटी जेबुन्निसा को विरासत में मिला था.
1639 ई. में जन्मी जेबुन्निसा औरंगज़ेब और उसकी बड़ी बेगम दिलरस बानो उर्फ़ रबिया दुर्रानी की बड़ी संतान थी. बचपन से ही बेहद प्रतिभाशाली और होनहार. तीन साल की उम्र में उसने कुरान कंठस्थ कर लिया था. सात साल की उम्र में वह हाफिज बनी. फारसी और अरबी भाषाओं के अलावा दर्शन, खगोल विज्ञान और साहित्य भी उसने सीखा. अपने पिता की तरह वह विभिन्न लिपियों के सुलेख की कला में वह दक्ष हुई. उसकी शैक्षणिक उपलब्धियों का जश्न खुद औरंगज़ेब ने बड़ी धूम धाम से मनाया था. बचपन में उसे पिता के अलावा चाचा दारा शिकोह का बेपनाह प्यार मिला था. दारा की सोहबत में उसकी दिलचस्पी साहित्य और सूफी विचारधारा में बढ़ी और उसने फ़ारसी और अरबी भाषाओं के साहित्य का अध्ययन किया. चौदह साल की उम्र में ही ‘मख्फी’ उपनाम से उसने फ़ारसी में शेर, ग़ज़ल और रुबाइयां कहनी शुरू कर दी थी.
दादा शाहज़हां की इच्छा से कम उम्र में ही उसकी मंगनी चाचा दारा शिकोह के पुत्र तथा अपने चचेरे भाई सुलेमान शिकोह से तय हो गये, किंतु सुलेमान की असमय मृत्यु की वज़ह से यह विवाह संभव नहीं हो सका. दारा शिकोह की हत्या के बाद औरंगज़ेब जब गद्दीनशीन हुआ तब जेबुन्निसा की उम्र इक्कीस साल की थी. वह अपनी बेटी की विद्वता और विचारों से इतना प्रभावित था कि अक्सर शासकीय मामलों में उसकी सलाह लिया करता था. अपने पिता के ऐसे भरोसे की वज़ह से वह हरम की भीतरी सियासत और साजिशों का शिकार भी बनी. लेकिन जेबुन्निसा की मंज़िल कुछ और ही थी.

चाचा दारा की हत्या और पिता की राजकाज में व्यस्तता के बाद उसने अपना सारा समय अदब को देना शुरू कर दिया. औरंगज़ेब के कठोर अनुशासन की वजह से दरबार में अदबी महफ़िलों की कोई गुंजाइश नहीं थी, इसीलिए शायरी की बारीकियां बताने वाला कोई उस्ताद उसे नहीं मिला. उसे किसी ने शहर में अक्सर आयोजित होने वाले मुशायरों के बारे में बताया तो वह अपना परिचय छुपाकर ‘मख्फी’ नाम से अदब की महफ़िलों में गोपनीय रूप से शिरक़त करने लगी. इन मुशायरों में शामिल होने वाले प्रमुख शायरों में उस दौर के चर्चित फ़ारसी शायर गनी कश्मीरी, नामातुल्लाह खान और अकिल खान रज़ी प्रमुख थे. अपनी रूमानी शायरी की वज़ह से जेबुन्निसा की लोकप्रियता बढ़ने लगी. मुशायरों के दौरान शायर अक़ील खां रज़ी से उसका परिचय हुआ.

रज़ी की शायरी से ही नहीं, उसके व्यक्तित्व से भी वह प्रभावित थी. उनकी अदबी मुलाक़ातें आहिस्ता-आहिस्ता व्यक्तिगत मुलाकातों में बदलीं. दोनों छिप-छिप कर मिलने लगे. उनकी मोहब्बत की चर्चा जब दरबार तक पहुंची तो कट्टर और अनुशासनप्रिय औरंगज़ेब को अपनी बेटी का यह प्रेम बिल्कुल पसंद नहीं आया. वैसे भी मुग़ल सल्तनत अपनी बेटियों के प्रति ज़रुरत से कुछ ज्यादा ही अनुदार रहा है. औरंगज़ेब ने जेबुन्निसा को दिल्ली के सलीमगढ़ किले में कैद कर दिया.

अविवाहित जेबुन्निसा की ज़िन्दगी के आखिरी बीस साल इसी सलीमगढ़ किले की तन्हाई में ही गुज़रे. क़ैद के मुश्किल और अकेले दिनों में उसकी शायरी परवान चढ़ी. प्रेम की व्यथा और अंतहीन प्रतीक्षा उसकी शायरी का मूल स्वर है. शायरी से बचे हुए वक़्त में उसने ख़ुद को मिलने वाले भत्ते से सलीमगढ़ किले में एक दुर्लभ पुस्तकालय तैयार किया. उस पुस्तकालय में कुरान, बाइबिल, हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मग्रंथ, ग्रीक पौराणिक कथायें, फारसी ग्रंथ, अल्बरूनी का यात्रा वृत्तांत, साहित्यिक और अपने पूर्वजों के बारे में लिखी गईं किताबें संग्रहित थीं. चाचा दारा शिकोह के काम को आगे बढाते हुए उसने सुंदर अक्षर लिखने वालों से कई दुर्लभ तथा बहुमूल्य, लेकिन नष्टप्राय पुस्तकों की नकल करवा कर उन्हें सुरक्षित किया.

अदब के कुछ विद्वानों को वेतन पर रख कर कुछ अरबी ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद कराया. उनमें से एक ग्रन्थ है अरबी ‘तफ़सीरे कबीर’ का ‘जेबुन तफ़ासिर’ नाम से फ़ारसी में अनुवाद. अपने जीवन के आखिरी दिनों में उसने मुल्ला सैफुद्दीन अर्दबेली की सहायता से अपने दीवान ‘दीवान-ए-मख्फी’ की पांडुलिपि तैयार करायी जिसमें उनकी पांच हज़ार से ज्यादा ग़ज़लें, शेर और रुबाइयां संकलित थीं. कविताओं की उसकी इस विशाल विरासत का पता 1702 में उसकी मौत के बाद चला. बाद में फ़ारसी और अंग्रेजी के किसी विद्वान ने दीवान की पांडुलिपि पेरिस और लंदन की नेशनल लाइब्रेरियों में पहुंचा दिया जहां वे आज भी सुरक्षित हैं. साहित्यकारों की नज़र इनपर पड़ी तो धीरे-धीरे दुनिया की कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ. सैकड़ों साल बाद दिल्ली में 1929 में और तेहरान में 2001 में फ़ारसी में ही इस दीवान का प्रकाशन हुआ. प्रस्तुत है जेबुन्निसा की दो रूबाइयों का मेरे द्वारा अंग्रेजी से किया गया अनुवाद.

1
वह नज़र जब गिरी थीं मुझ पर
पहली बार
मैं सहसा अनुपस्थित हो गई थी
वह तुम्हारी नज़र नहीं
खंज़र थी शायद
जो मेरे जिस्म में समाई
और लहू के अदृश्य धब्बे लिये
बाहर निकल आयी थी
आप गलत सोच रहे हो, दोस्त
यह कोई दोज़ख नहीं, जन्नत है
मत करो मुझसे
अगले किसी जन्म का वादा
वर्तमान के तमाम दर्द
और सभी बेचैनियां लिये
जज़्ब हो जाओ मुझमें इसी पल
मत भटकाओ मुझे काबे के रास्तों में
वहां नहीं
यहीं कहीं मिलेगा खुदा
किसी चेहरे से झरते नूर
किसी नशीले लम्हे की खूबसूरती में
वहीं, बिल्कुल वहीं कहीं तुम्हें
मिल जायेगी पाकीज़गी
जहां तुम सौप दोगे
अपनी बेशुमार ख्वाहिशें
मुझे, अपनी जेबुन्निसा को
जो जाने कितनी सदियों से
तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही है !
2
अरे ओ मख्फी, बहुत लंबे हैं
अभी तेरे निर्वासन के दिन
और शायद उतनी ही लंबी हैं
तेरी अधूरी ख़्वाहिशों की फेहरिस्त
अभी कुछ और लंबा होने वाला है
तुम्हारा इंतज़ार
शायद तुम रास्ता देख रही हो
कि उम्र के किसी मोड़ पर किसी दिन
लौट सकोगी अपने घर
लेकिन, बदनसीब !
घर कहां बच रहा है तुम्हारे पास
गुज़रे हुए इतने सालों में
ढह चुकी होगी उसकी दीवारें
धूल उड़ रही होगी अभी
उसके दरवाजों, खिड़कियों पर
अगर इंसाफ़ के दिन
ख़ुदा कहे कि मैं तुम्हें हर्ज़ाना दूंगा
उन तमाम व्यथाओं का
जो जीवन भर तुमने सहे
तो क्या हर्ज़ाना दे सकेगा वह मुझे
जन्नत के तमाम सुखों
और उसकी नेमतों के बावज़ूद
वह एक तो उधार ही रह जाएगा
ख़ुदा पर मेरा !
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