राजीव रंजन झा
आर्थिक पत्रकार
आप किसी से पूछ लें कि पिछले साल अर्थशास्त्र का नोबेल किसे मिला था, तो शायद ही किसी को मालूम या याद होगा. इस साल यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में पढ़ानेवाले अर्थशास्त्री रिचर्ड एच थेलर को अर्थशास्त्र का नोबेल मिला, तो हम हिंदुस्तानियों ने कुछ ज्यादा चर्चा कर ली.
इसकी एक वजह तो यह थी कि अपने पूर्व आरबीआइ गवर्नर रघुराम राजन को भी अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिल सकने की संभावना के चर्चे हो रहे थे. इसके चलते लोगों में पहले से एक उत्सुकता जग गयी थी. दूसरे, इस नोबेल को पानेवाले रिचर्ड थेलर का भी एक संबंध नोटबंदी से जुड़ गया, रघुराम राजन का संबंध तो स्वाभाविक रूप से था ही. हाल में आयी रघुराम राजन की पुस्तक से पहले ही लोगों को उनके बारे में यह आभास था कि वे नोटबंदी के समर्थन में नहीं थे. इसलिए रघुराम राजन उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण थे, जो नोटबंदी और उस बहाने मोदी सरकार को निशाने पर लेने की मंशा रखते थे.
थेलर ने नोटबंदी की घोषणा वाले दिन ही एक ट्वीट में इस कदम को अच्छा बता दिया था, लिहाजा उनके नाम को नोटबंदी और मोदी सरकार की वाहवाही करनेवालों ने हाथों-हाथ लिया. थेलर के ही एक ट्वीट को नोटबंदी का समर्थक खेमा ले उड़ा, और विरोधी खेमे ने दूसरे ट्वीट के आगे पहले ट्वीट को खारिज ही कर दिया.
दरअसल, थेलर ने नोटबंदी की घोषणा पर लिखा था, ‘यह ऐसी नीति है, जिसका मैं लंबे समय से समर्थन करता रहा हूं. यह नकदी-रहित होने की ओर पहला कदम है और भ्रष्टाचार घटाने के लिए अच्छी शुरुआत है.’ इसके बाद किसी ने इसके जवाब में पूछा, ‘क्या दो हजार रुपये का नोट लाकर?’
थेलर ने इस पर कहा, ‘सच में? धत्त तेरे की.’ समर्थक खेमे ने दो हजार का नोट लाने पर थेलर की आलोचना को गोल कर दिया, और विरोधी खेमे ने इस बड़े नोट की निंदा का यह मतलब सामने रखना चाहा कि थेलर ने नोटबंदी की पूरी नीति की ही आलोचना कर दी थी. सच यह था कि थेलर ने नोटबंदी को सही माना, दो हजार का नोट लाने को गलत. लेकिन, समग्र तस्वीर देखने के बदले सच का अपना-अपना टुकड़ा अपनी-अपनी व्याख्या के साथ ले उड़ना ही आज का सच है!
दरअसल, भारत में हुई नोटबंदी पर लोगों की प्रतिक्रियाएं और उनका व्यवहार भी थेलर के इस सिद्धांत को ही प्रत्यक्ष दर्शाता है कि मनुष्य भावनाओं और अतार्किकता से प्रभावित होकर अपने आर्थिक फैसले करता है. थेलर का यह सिद्धांत व्यवहारगत अर्थशास्त्र या ‘बिहेवियरल इकोनॉमिक्स’ के रूप में जाना जाता है.
उन्होंने अर्थशास्त्र की इस पारंपरिक धारणा को पलट दिया कि लोग तार्किक ढंग से और अपने सर्वोत्तम हितों के मुताबिक आर्थिक फैसले लेते हैं. उन्होंने दिखाया कि लोगों के आर्थिक फैसलों में आलस्य या स्वयं में उलझे रहने या उचित-अनुचित की धारणा जैसे कारक भी काम करते हैं.
थेलर की मान्यता है कि आर्थिक फैसलों में इस अतार्किकता का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. और, चूंकि पहले से इनका अंदाजा लगाया जा सकता है, इसलिए इन्हें प्रभावित करने के लिए इन्हें प्रेरित या नज (एनयूडीजीइ) किया जा सकता है.
नज इनके सिद्धांत का एक मुख्य शब्द है. थेलर ने ‘नज : इंप्रूविंग डिसीजंस अबाउट हेल्थ, वेल्थ ऐंड हैप्पीनेस’ शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी है, जिसके सह-लेखक हार्वर्ड लॉ स्कूल के प्रो कास आर सनस्टीन हैं.
नज यानी धीमे से धकेल कर किसी खास दिशा में ले जाने की कोशिश करना. यह अर्थशास्त्र में बुद्ध के मध्यम मार्ग सरीखा लगता है! अगर जन-समूह को उसके हाल पर छोड़ दिया जाये, तो वह सही दिशा नहीं पकड़ेगा. लेकिन, बहुत जोर का झटका भी नहीं देना है. धीरे-धीरे, हल्के दबाव के साथ सही दिशा में जाने के लिए प्रेरित करना है.
उनका सिद्धांत कहता है कि लोग तो गलती करेंगे, इसलिए उन्हें सही दिशा की ओर धकेलना जरूरी है, पर हां जरा धीरे, हौले-हौले से. उनके सिद्धांत स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा जैसे कई क्षेत्रों में सरकारी नीतियां बनाने में सहायक हैं. लगभग एक दशक पहले अमेरिका में सेवानिवृत्ति की 401(के) प्रणाली को सुधारने में थेलर के सिद्धांतों का प्रमुख योगदान था.
निवेश की दुनिया में भी उनके सिद्धांतों में दिखायी गयी व्यवहारगत त्रुटियां अक्सर दिखती हैं. उन्होंने वॉलीबॉल का उदाहरण दिया है कि जो खिलाड़ी कई बार शॉट लगा रहा हो, प्रशंसक उसी से अगले शॉट की भी अपेक्षा करने लगते हैं.
शेयर बाजार में भी जो शेयर काफी तेजी दिखा चुका हो, निवेशक उसी को लपकने की कोशिश करते दिखते हैं. थेलर ने अपने सिद्धांत में जिस झुंड मानसिकता का जिक्र किया है, वह भी निवेश की दुनिया में खूब दिखायी देती है.