डॉक्टर को धरती पर भगवान का दूसरा रूप माना जाता है. अपने सेवाभाव और काबिलियत के सहारे ये दुख-दर्द से जूझ रहे व्यक्ति को राहत पहुंचाने में सक्षम होते हैं. आज की मैटेरियलिस्टिक सोसाइटी में जहां सबके लिए पैसा ही अहम हो गया है, ऐसे में डॉक्टर्स भी इससे अछूते नहीं हैं.
लेकिन इन सबके बीच उत्तराखंड के रहने वाले 80 वर्षीय डॉक्टर योगी एरोन गरीबों के लिए एक मसीहा बन कर सामने आये हैं. डॉ एरोन, आग से जले-झुलसे मरीजों का मुफ्त इलाज करनेके लिए जाने जाते हैं. जरूरत पड़ने पर वह उनकी सर्जरी भी करते हैं. वह हर साल लगभग 500 पीड़ितों की सर्जरी करते हैं. इस काम में उन्हें बेटे कुश एरोन का भी सहयोग मिलता है.
हर रोज बीसियों मरीजों का मुफ्त इलाज
डॉ योगी एरोनने इस काम के लिए दिशा हॉस्पिटल की स्थापना की है. यह अस्पताल देहारादून में मसूरी रोड पर चार एकड़ के कैंपस में स्थित है, जहां दोनों डॉक्टर पिता-पुत्र बैठते हैं.
इसीकैंपस में एक चिल्ड्रेन साइंस पार्क भी स्थित है, जिसका मकसद बच्चों को विज्ञान को जानने, समझने और अपनाने में मदद करना है.
यहां डॉ योगी एरोन से इलाज कराने के लिए उत्तराखंड के अलावा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और अन्य राज्यों से हर रोज बीसियों जरूरतमंद मरीज आते हैं.
इलाज-दवाइयां मुफ्त
मरीजों की जांच करने के बाद डॉक्टर एरोन यह तय करते हैं कि उसका इलाज दवाइयों से संभव है या सर्जरी की जरूरत पड़ेगी. इलाज कराने वालों में जंगली जानवरों से घायल हुए और आग से जले या झुलसे लोगों की तादाद सबसे ज्यादा होती है. यहां मरीजों का मुफ्त इलाज किया जाता है और उन्हें दवाइयां भीमुफ्त में ही दी जाती हैं.
10,000 मरीज वेटिंग लिस्ट में
यही वजह है कि डॉ एरोन से इलाज के लिए यहां लंबी लाइन लगती है. यहां मरीजों के लिए वेटिंग लिस्ट मेंटेन की जाती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी लगभग 10,000 मरीज वेटिंग लिस्ट में हैं. हालांकि, जिन मरीजों को तत्काल इलाज की जरूरत होती है, उन्हें प्राथमिकता दी जाती है.
अमेरिकी सर्जन्स का भी सहयोग
पिछले 11 सालों से डॉ योगी हर साल दोसप्ताह का मेडिकल कैंप भी लगाते हैं. इसमें अमेरिका से सर्जन्स की टीम ऑपरेशन करने के लिए आती है. डॉ योगी की अमेरिकी सर्जन टीम में लगभग 15-16 डॉक्टर होते हैं और वे रोजाना 10-12 सर्जरी करते हैं.
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ऐसा है जीवन सफर
डॉ योगी एरोन के इस मुकाम पर पहुंचने की कहानी भी दिलचस्प है. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में 1937 में हुआ था. उन्होंने अपने पांचवें प्रयास में लखनऊ के प्रसिद्ध किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में एडमिशन पाया था. चार साल की मेडिकल डिग्री उन्होंने 7 सालों में पूरी की. पटना के प्रिंस वेल्स मेडिकल कॉलेज से 1971 में प्लास्टिक सर्जरी में स्पेशलाइजेशन भी किया.
यहां यह जानना गौरतलब है कि उस समय भारत के अस्पतालों में प्लास्टिक सर्जरी की ज्यादा मांग नहीं थी. इस लिहाज से कहीं नौकरी भी मिलनी मुश्किल हो गयी थी. 1973 में डॉ योगी को देहरादून के जिला अस्पताल में प्लास्टिक सर्जन के तौर पर नौकरी मिली.
संघर्ष के अपने उन दिनों को याद करते हुए डॉ योगी बताते हैं, मैं भिखारी की तरह रहता था और गधे की तरह काम करता था. मुझे दूसरा काम करने को कहा गया, लेकिन मैंने साफ इनकार कर दिया.
डॉ योगी की जिंदगी ने करवट तब ली, जब वह अपनी बहन की मदद से 1982 में अमेरिका गये. वहां प्लास्टिक एंड रीकंस्ट्रक्टिव सर्जरीएक्सपर्ट्स के साथ काम कर उन्होंने इस फील्ड की बारीकियां सीखी और इस पर काम कर उन्होंने इस क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल की.
पिता के पैसों से शुरू की डिस्पेंसरी
अमेरिका से वापस लौट कर डॉ योगी ने अपने पिता से कुछ पैसे लेकर देहरादून में एक छोटी सी डिस्पेंसरी की शुरुआत की. यहां वह कटे-फटे होंठ और तालू वाले, जले-झुलसे और जानवरों के हमले के शिकार लोगों का इलाज करने लगे.
जरूरतमंदों का वह नि:शुल्क इलाज भी करते थे. धीरे-धीरे डॉ योगी को इस काम में पत्नी और बेटे का भी सहयोग मिलने लगा. जो जिस काम में सक्षम था, वह अपने स्तर से डॉ योगी को उसी में हाथ बंटाता था. घर का खर्च उनके पिता द्वारा दिये गये पैसों से चलता था.
मिलती है संतुष्टि
कई बार डॉक्टर के पिता ने भी पूछा कि वेमुफ्त में लोगों का इलाज क्यों करते हैं, तो डॉ योगी ने कहा कि क्योंकि इससे उन्हें संतुष्टि मिलती है. डॉ योगी कहते हैं कि जले-झुलसे लोगों के पास इलाज के पैसे नहीं होते और अमीर लोग जलते ही नहीं.
अपनी जिंदगी के कीमती वर्ष गरीबों और असहायों की सेवा में लगा देने वाले डॉ योगी ने जिन मरीजों का इलाज किया है, उनसे सिर्फ दुआएं कमायी हैं.