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अन्न के त्योहार हमारे
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार यह त्योहारों का मौसम है. बाजार में चहल-पहल है. किसी को कपड़े खरीदने हैं, तो किसी को गहने लेने हैं. जेब में जितने पैसे हैं, वैसी ही जरूरतें भी हैं. दुर्गा पूजा और दशहरे के बाद दिवाली के लिए धूमधाम शुरू हो ही जाती है. घर की रंगाई-पुताई तो पहले ही […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
यह त्योहारों का मौसम है. बाजार में चहल-पहल है. किसी को कपड़े खरीदने हैं, तो किसी को गहने लेने हैं. जेब में जितने पैसे हैं, वैसी ही जरूरतें भी हैं. दुर्गा पूजा और दशहरे के बाद दिवाली के लिए धूमधाम शुरू हो ही जाती है.
घर की रंगाई-पुताई तो पहले ही हो चुकी होती है. घर में पकवान और मिठाइयां बनाने का रिवाज अब पहले जैसा नहीं रहा. किसी के पास अब इतना समय भी नहीं है. वैसे भी लंबे-चौड़े संयुक्त परिवार की खान-पान की जरूरतें पूरी करने के लिए सब घर में ही करना पड़ता था.
इसके अलावा परिवार में किसको क्या पसंद है, यह एक भावनात्मक जुड़ाव और आत्मीयता का मामला भी था. घर में दस लोग हैं और दसों की खाने में अलग-अलग पसंद क्या है, इसे घर की महिलाओं से अच्छा कोई नहीं जानता था. मगर, न अब उतने बड़े परिवार बचे हैं, न ही घर के बने पकवानों के प्रति उतनी दिलचस्पी ही. क्योंकि, मान लिया गया है कि अगर कुछ अच्छा खाना हो, तो बाहर ही खाया जा सकता है.
फिर छोटे से परिवार के लिए क्यों इतनी मुसीबत मोल लेना. क्योंकि, चाहे आप चार लड्डू बनायें या चालीस, बनाने की तैयारी में उतना ही समय लगता है. जब सब कुछ बाहर मिल सकता है, तो क्यों नहीं बाहर से ही खरीद लें.
आजकल बाहर की चीजों में जितनी मिलावट होती है, उसे देखकर मां, दादी, नानी का जमाना याद आ जाता है. लेकिन, इन औरतों की मेहनत अकसर ही किसी को दिखायी नहीं देती थी. परिवार के लिए रात-दिन खटना उनकी तकदीर मान ली गयी थी. जबकि, किसी भी पकवान को बनाते हुए उसमें उनका कितना प्यार, स्नेह और दुलार छिपा रहता था, जिसे किसी भी पैसे से कभी कोई मोल नहीं लगाया जा सकता.
भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में उपहार संस्कृति का लेन-देन बहुत तेजी से बढ़ा है. नब्बे के दशक में यह लेखिका दिल्ली के बाराखंभा रोड पर खड़ी थी. और पहली बार यह अहसास हुआ था कि जिसे देखो वही हाथ में उपहार का एक थैला लेकर जा रहा था, किसी को उपहार देना था और किसी को उपहार मिला था.
उपहारों की इस भीड़ में ऐसा महसूस होता है कि त्योहारों को मनाने का उत्साह और भावनात्मक लगाव कुछ कम हुआ है. दिवाली और होली नये मौसम और नये अन्न के त्योहार हैं.
मगर, जैसे-जैसे वक्त बीता है, एक-दूसरे की मंगलकामना के मुकाबले इन्हें मनाने में दिखावा ज्यादा बढ़ा है. समृद्धि के रोब-दाब ने जैसे त्योहारों की मासूमियत छीन ली है. आडंबर ने देखते-देखते हमें अपनों से दूर फेंक दिया है.
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