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गांधी से सीखने की जरूरत

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक हर वर्ष जब 2 अक्तूबर की तारीख निकट होती है, तो मैं प्रायः यह सोचा करता हूं कि अंग्रेजों ने अपने जेहन में बापू की कैसी छवि बनायी होगी. वे एक ऐसे व्यक्ति थे, जो त्रुटिहीन तरह से अंग्रेजों की ही भाषा बोल सकते थे, पर उन्होंने अपनी […]

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

हर वर्ष जब 2 अक्तूबर की तारीख निकट होती है, तो मैं प्रायः यह सोचा करता हूं कि अंग्रेजों ने अपने जेहन में बापू की कैसी छवि बनायी होगी.

वे एक ऐसे व्यक्ति थे, जो त्रुटिहीन तरह से अंग्रेजों की ही भाषा बोल सकते थे, पर उन्होंने अपनी पहली पुस्तक, हिंद स्वराज गुजराती में लिखी. वे सूट-टाई पहन सकते थे, पर केवल धोती का लिबास अपनाया. वे उनकी ही तरह एक बंगले में रह सकते थे, पर उन्होंने पूर्णतः भारतीय तौर-तरीके के एक आश्रम का बसेरा बनाया. वे बाइबिल को उसके अधिकांश पाठकों की अपेक्षा अधिक विस्तार से जानते तथा उतनी ही गहराई से समझते थे, पर अपने पूरे अस्तित्व से अपने व अपने देश के अन्य धर्मों के शास्त्रों तथा दर्शनों में डूबे थे.

जब स्वतंत्रता आंदोलन के मध्य एक नेता के रूप में गांधी का उदय हुआ, तो अंग्रेजों को अवश्य ही यह अचरज हुआ होगा कि वे यहां के अन्य नेताओं की ही भांति अपने औपनिवेशिक स्वामियों की नकल क्यों नहीं करते? और यह भी, कि वे एक ऐसे व्यक्ति से किस तरह निपटें जो उनके औपनिवेशक शासन के प्रत्येक सुविचारित नतीजे के विपरीत अपनी ही आस्था पर अटल रहते हुए भी राग-द्वेष से मुक्त था.

आधुनिकता की अंधी दौड़ में पड़े हमारे देश के ‘पाश्चात्य’ उच्च वर्ग से यह एक सबक छूट गया कि वे चाहे कितनी भी नकल क्यों न कर लें, पश्चिम के लिए हमेशा ‘पराये’ ही बने रहेंगे. वहां के लोग सिर्फ उनकी इज्जत करते हैं, जो अपनी संस्कृति में बद्धमूल और अपनी ही सहजता में स्थित होते हैं.

निश्चित रूप से, गांधीजी यह समझते थे कि उपनिवेशवाद के विरुद्ध यह संघर्ष तब तक अपूर्ण ही रहेगा, जब तक हम बिना किसी संकीर्णता के अपनी संस्कृति एवं पहचान पर बल न देंगे. इस अर्थ में वे चाणक्य के उस नजरिये से समरूप थे कि एक राष्ट्र केवल एक भू-भाग अथवा प्रशासनिक ही नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संरचना भी होता है.

जब राष्ट्र तथा उसकी अंतर्निहित संस्कृति परस्पर समन्वित नहीं होते, तो एक ऐसा राष्ट्र जन्म लेता है, जो राष्ट्रीयता के आडंबर से युक्त होता हुआ भी उसकी आत्मा से रहित होता है.

वर्ष 1947 हमें आजादी भले ही दे गया, पर अपनी मानसिकता के उपनिवेशीकरण से मुक्ति का हमारा संघर्ष अभी अधूरा है. यह हमारे सृजनात्मक उपक्रमों के प्रायः सभी क्षेत्रों, जीवन शैलियों, आकांक्षाओं, हैसियत के प्रतीकों, परिधान विकल्पों और सबसे बढ़ कर, अपनी ही भाषाओं की अवमानना करते हुए एक बुरी तरह बोली जाती अंग्रेजी को तरजीह देने में दिखता ही रहता है. भारत एक युवा देश है.

इसकी बहुसंख्यक आबादी 35 वर्ष से नीचे की है, जिसका अधिकांश कम से कम दस वर्ष और युवा है. निस्संदेह यह एक बड़ा जनसांख्यिक लाभ है, मगर साथ ही यह भी सत्य है कि हमारे ये युवा अपनी सांस्कृतिक जड़ों से बिलकुल कटे भी हैं. वे राष्ट्रवादी हो सकते हैं, जैसा उन्हें होना भी चाहिए, पर प्रायः उस संस्कृति से गहरी तरह अनजान होते हैं, जो उस राष्ट्रीयता की बुनियाद बनती है. इसके नतीजे अनेक रूपों में सामने आते हैं.

यही वजह है कि गांधी से हमें जो एक सबक लेने की जरूरत है, वह यह कि आप तभी एक सच्चे भारतीय हो सकते हैं, जब आप वह बनने की कोशिश करते हैं.

उन्होंने इसे अपनी अनूठी रीति से दर्शाया. एक बार वाइसराय के यहां वार्ता हेतु आमंत्रित किये जाने पर दिन के भोजनावकाश में वे अपने मेजबानों की ओर देख कर मुस्कुराये, फर्श पर एक चटाई बिछायी और भोजन करने बैठ गये. एक अन्य मौके पर माउंटबैटन के एक अत्यावश्यक आमंत्रण पर उन्होंने वाइसराय हाउस के उनके कक्ष में अपने होंठों पर उंगली रख कर प्रवेश किया, क्योंकि यह उनके मौन का दिन था. फिर तो सारी बातें माउंटबैटन ने ही कीं और बापू ने उनके उत्तर उपयोग किये हुए लिफाफों की पीठ पर लिख कर ही दिये.

जैसे मैंने अपनी पुस्तक ‘बिकमिंग इंडियन’ में लिखा है, ऐसी ‘सनकों’- संभवतः कुछ लोग बापू के इन कृत्यों को यही संज्ञा देना चाहेंगे- का अर्थ केवल मौन का महत्व अथवा फर्श पर बैठ कर भोजन करने का अर्थ बताना न था. ये सब एक आत्मा की क्रांति के प्रतीक, एक इरादे की उद्घोषणा थे कि ब्रिटिश अधीनता के अंदर भी मैं शासकों से अपनी ही तरह मिलूंगा. इसी वजह से उनका व्यक्तित्व अधीनता और नकल से एक बारगी ही मुक्त था.

अब प्रश्न यह है कि क्या गांधीजी हमें आज भी इस हेतु प्रेरित कर सकते हैं कि हम नकल करने अथवा बगैर सोचे-समझे उधार लेने से इनकार का एक चेतन निर्णय लेकर भारतीय बनें- क्योंकि यह मुद्दा आज भी उतना ही अहम है, जितना तब था? यदि वे ऐसा कर सकते हैं, तो हम प्रामाणिक रूप से अपने आत्मसम्मान और गरिमा के संरक्षण हेतु समर्थ बनने के साथ ही वैश्विक नागरिकों के रूप में अपना मूल्य भी बढ़ा सकेंगे.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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