कल्पना मिश्रा गिरिडीह की रहने वाली हैं. पेशे से पत्रकार हैं. पत्रकारिता में स्नातकोत्तर हैं.इनकी कविताएं कई अखबारों में प्रकाशित हो चुकी हैं. इन्होंने जीवन की सहज अनुभूतियों को बहुत ही सहजता के साथ अपनी कविताओं में उतारा है और यही उनकी कविताओं का सौंदर्य है.
जीवन संग हम
मेरी खिड़की के बाहर
खड़ा यह पेड़
फिर से हरा हो रहा है
ठूंठ हो चुकी
इसकी डालियों पर
जीवन की
हरियाली देख रही हूं.
मन हर्षित हो उठता है
हर बार
यह रूप देखकर
अब जीवन बसेगा
इसकी डाली पर
छोड़ गये थे जो
घर अपना
वे परिंदें लौट आयेंगे.
चिड़ियों की चहचहाहट
के संग कुछ और पल
जी लेती हूं
जिंदगी
और तैयार
कर लेती हूं खुद को
जीवन की
आपाधापी में निर्लिप्त
हो जाने के लिए.
पिघलती जिंदगी
जिंदगी यूं ही
पिघलती रही
न तुम बदले
न मैं बदली
हमारी खिड़कियों से
हरसिंगारी सपनों
का मौसम
ताक-झांक
करता रहा
पर एक करवट की दूरी
न तुम तय कर सके
न मैं तय कर सकी
और हर दिन सुबह होने की
प्रतीक्षा में
यूं ही झरती रही
उदास बोझिल
रातें…
और फिर बदल लिये
हमने अपने कमरे
देह से अदेह
हो गये हम
पर इस अदेही को
नामालूम क्यों
हर वक्त
इंतजार रहा
तुम्हारी देह का
पर दरवाजे पर
न दस्तक हुई
न दिल धड़का
न सांसें तेज हुई
न आंखें बंद हुई
पर खुद मैं कभी
तुम्हारे दरवाजे पर
कभी दस्तक दे न सकी
था तुम्हें दंभ
अपने पुरुषार्थ का
अपने स्त्रीत्व के
अभिमान में सदा
मैं जलती रही,पिघलती रही
रक्तरंजित ममत्व
तुम्हारे आने की आहट
मेरे रग रग में ममत्व की
न जाने कितमी कलियां खिला देती है
पुलकित हो उठता है
मेरा रोम-रोम
तुम आओगे
लगेंगे महीने नौ .
दिन मैं गिनती रहती
आईने के सामने इतराती
कभी लाज से सुर्ख हो आये
चेहरे को मैं
आंचल में छुपा लेती
बधाइयां लेती
तितली सी मैं बन जाती .
आज क्यों बिखरी है उदासी
मेरे घर आंगन में…….
सांसों में बेचैनी
मन में खामोश अकेलापन
खुद को खो देने का डर
अनायास ही मेरे हाथ
उदर पर क्यों जा रहे हैं .
सांसें उखड़ रही हैं
दिल बैठा जा रहा है
नहीं नहीं नहीं
ये नहीं हो सकता
एक और बार मेरे साथ
क्यों – क्यों
आखिर क्यों
रक्त रंजित हो
छोड़ दिया आंचल तुमने मेरा .
मैं मां सुनना चाहती थी अपने लिये
तुम्हारे नन्हें होठों से
पर
बेऔलाद कहने का मौका
मिल गया एक और बार
जमाने को .