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आर्थिक वृद्धि की दर में गिरावट, अर्थव्यवस्था में कमजोरी से बढ़ी चिंताएं

!!अभिजीत मुखोपाध्याय!! सरकारी उपभोग व्यय में तेज बढ़ोतरी के लिहाज से पिछला वित्तीय वर्ष विशिष्ट रहा है. अर्थव्यवस्था में निजी उपभोग व्यय में गिरावट आयी है, घरेलू निवेशक किसी नये निवेश से बच रहे और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश इतना नहीं आया कि वह जीडीपी वृद्धि में कोई उल्लेखनीय योगदान कर सके. ऐसी स्थिति में, जबकि […]

!!अभिजीत मुखोपाध्याय!!
सरकारी उपभोग व्यय में तेज बढ़ोतरी के लिहाज से पिछला वित्तीय वर्ष विशिष्ट रहा है. अर्थव्यवस्था में निजी उपभोग व्यय में गिरावट आयी है, घरेलू निवेशक किसी नये निवेश से बच रहे और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश इतना नहीं आया कि वह जीडीपी वृद्धि में कोई उल्लेखनीय योगदान कर सके. ऐसी स्थिति में, जबकि कृषि क्षेत्र इतना कमजोर है कि वह अकेले ही पूरी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा पाने में असमर्थ है, जीडीपी वृद्धि 6 प्रतिशत से ऊपर बनाये रखने के लिए अधिक सरकारी व्यय के सिवाय कोई और चारा भी न था, ताकि अर्थव्यवस्था पर विमुद्रीकरण का असर न दिखे.
राजकोषीय दायित्व तथा बजटीय प्रबंधन अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, चालू वर्ष में राजकोषीय घाटे को 3.2 प्रतिशत पर नियंत्रित रखना है, मगर प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल 2017 से आरंभ वित्तीय वर्ष के अंतर्गत सरकारी व्यय बजटीय राजकोषीय घाटा सीमा के 93 प्रतिशत का स्पर्श कर चुका है.
2017-18 की पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर 5.7 प्रतिशत तक धीमी हो गयी, और स्थिति यह है कि कुल मिलाकर अब तक यह लगातार छह तिमाहियों तक गिरावट ही दर्ज करती रही है. अंततः अब 6 प्रतिशत के नीचे आकर इसने सरकारी नीति निर्माताओं को असहज कर दिया है, जो अनिच्छापूर्वक यह स्वीकार करने को बाध्य हो गये हैं कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हो रही है और नये रोजगारों का सृजन नहीं हो पा रहा है.
सब ठीक नहीं अर्थव्यवस्था के साथ
इसलिए अभी तो ऐसा लग रहा है कि सरकारी व्यय बढ़ा कर जीडीपी वृद्धि दर के प्रबंधन का दौर खत्म हो गया और सरकार के लिए यह स्वीकारने का वक्त आ गया है कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा. सरकार का यह सौभाग्य रहा कि इसके सत्तासीन होने के वक्त कच्चे तेल का अंतरराष्ट्रीय मूल्य गिर गया, जो अब तक गिरा ही रहा. सरकार के लिए सद्भावना तथा विश्वास की पूंजी के बूते अर्थव्यवस्था में एक शुरुआती आशावाद भी दिखा.
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि ठोस और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि हासिल नहीं की जा सकी है. मगर जब तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें नीची हैं, सरकार का राजस्व और विदेशी विनिमय भंडार आश्वस्तिदायक स्तर पर है और एक अच्छा मॉनसून कृषि क्षेत्र में अच्छी वृद्धि की आशा का संचार कर रहा है, फिर भी जीडीपी में लगातार छह तिमाहियों की मंदी एक अच्छी खबर नहीं है. यह अर्थव्यवस्था में मांग की कमी के संकेत करती है, जो अर्थव्यवस्था में क्रयशक्ति की कमी से पैदा होती है. मांग की इसी कमी ने घरेलू निवेशकों की अपेक्षाएं निम्न स्तर पर ला रखी हैं और यही उद्योगों तथा विनिर्माताओं को नयी परियोजनाओं के आरंभ अथवा वर्तमान के विस्तारीकरण से भी रोक रही है.
महंगी पड़ी ग्रामीण क्षेत्र में निवेश की कमी
कुछ अर्थशास्त्री यह महसूस करते हैं कि 2004-2012 के दौरान बेहतर आर्थिक प्रदर्शन ग्रामीण क्रयशक्ति में बढ़ोतरी से पैदा हुआ था, जब कृषि पैदावार मोटे तौर पर 3 प्रतिशत की दर से तथा कृषि आय लगभग 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी. इसलिए तब समाज के गरीब वर्गों ने अपनी आय में तेज वृद्धि का अनुभव किया, जिससे उपभोग में भी तेजी दिखी.
वर्ष 2012 के बाद, जब उस नीति से वापसी होने लगी, तो अर्थव्यवस्था की इस आशाजनक स्थिति में एक बड़ी गिरावट शुरू हुई. यह जरूर है कि इस वक्त से शुरू होनेवाली भारतीय मंदी में तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्य में वृद्धि, मुद्रास्फीतिजन्य दबाव, संकट-पश्चात की वैश्विक आर्थिक स्थिति के साथ ही व्यापार तथा निर्यात में गिरावट का भी योगदान था. पर सामाजिक कल्याण तथा मनरेगा जैसे आयप्रद योजना-व्यय में कमी लाकर तथाकथित राजकोषीय अनुशासन का अनुपालन पिछली गठबंधन सरकार को मंहगा पड़ा और अंततः वह चुनाव हार बैठी.
रोजगार सृजन की कमी, निराशाजनक औद्योगिक परिदृश्य, निवेश का नीचा स्तर, सभी तरह के औद्योगिक बैंक ऋणों के उठाव में कमी– ये सभी एक ऐसे आर्थिक मॉडल का संकेत करते हैं, जो रोजगार और अधिक आर्थिक गतिविधियां पैदा करने में विफल रहा है. दरअसल, इस मॉडल के साथ संरचनात्मक समस्याएं हैं, जो वृद्धि की प्रक्रिया बाधित कर रही हैं और जितनी जल्द सरकार उन्हें स्वीकारेगी, अर्थव्यवस्था का उतना ही भला होगा.
कैसे हो सकता है सुधार
अब यह पूछा जा सकता है कि इन समस्याओं के तात्कालिक समाधान क्या हैं, जो अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार कर सकें. पहला कदम तो राजकोषीय प्रोत्साहन की राह पर उठाना होगा. मीडिया के साथ अपनी बातचीत में वित्त मंत्री ने स्वयं इसे स्वीकार भी किया है. पर इस इरादे को बहुत जल्द ठोस कार्यरूप देना जरूरी है.
मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना और ग्राम सड़क योजना जैसी योजनाओं पर बड़ी धनराशियों का आवंटन कर ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी व्ययों को कई गुना बढ़ाना होगा. शहरी क्षेत्र और खासकर अनौपचारिक असंगठित क्षेत्र में भी ऐसे ही प्रयास आवश्यक हैं. बेरोजगार शहरी तथा औद्योगिक कामगारों के लिए बेरोजगारी भत्ता भी एक कारगर कदम हो सकता है. इनके अलावा, स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वच्छता जैसे बुनियादी सामाजिक कल्याण क्षेत्रों पर भी व्ययों को खासी बढ़ोतरी देनी होगी.
एक सक्रिय आर्थिक अभिकर्ता के रूप में सरकार द्वारा उद्योग, विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रों में भागीदारी यों तो बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था के इस युग में वर्जित बन चुकी है, पर इस कठिन वक्त में जब घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पूंजी दूर-दूर ही दिख रही, तो क्यों सरकार ही एक मध्यकालिक उत्पादक की भूमिका में नहीं उतर सकती?
यह हमेशा ही कहा जा सकता है कि इन उपायों के अंतर्गत सरकार को और अधिक उधार लेने होंगे, जो भावी पीढ़ियों के लिए भारस्वरूप होंगे. पर एक ऐसे देश में, जहां प्रतिवर्ष दसियों लाख युवा कार्यबल में शामिल होकर नये रोजगारों की तलाश किया करते हैं, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने और अर्थव्यवस्था को मंदी के आगोश में समाने देने के परिणाम भी भले तो नहीं होंगे.
इन युवाओं को एक गरिमापूर्ण जीवन के अवसरों से वंचित रखना भविष्य में अर्थव्यवस्था तथा देश के लिए राजकोषीय घाटे से कहीं बड़े और बुरे नतीजों का सृजन करेगा.

राजकोषीय प्रोत्साहन के सिवाय संभव नहीं आर्थिक वृद्धि

चिंताजनक स्तर पर जीडीपी विकास दर
जून माह में खत्म हुई तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) विकास दर मोदी सरकार के तीन वर्ष के कार्यकाल में न्यूनतम स्तर 5.7 प्रतिशत पर पहुंच गयी. इससे पहले बीते तिमाही में यह दर 6.1 प्रतिशत पर दर्ज की गयी थी. वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद पहली बार मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को संभालने की सबसे गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई है.
– एनडीए सरकार के सत्ता पर काबिज होने के दौरान निवेश मांग की स्थिति संतोषजनक नहीं थी. विमुद्रीकरण जैसा आत्मघाती दांव खेलने के बाद निजी उपभोग में तेजी से गिरावट दर्ज की गयी.
– निर्यात में मामूली बढ़ोतरी हुई, लेकिन इसका अर्थव्यवस्था पर कोई खास असर नहीं पड़ा. रुपये की मजबूती से निर्यातकों के सामने चुनौतियां बढ़ती गयी.
– जीएसटी कानून समूचे देश को एकीकृत बाजार में तब्दील करने के लिए लाया गया, लेकिन टैक्स फाइलिंग की जटिलाओं ने स्थिति को और बिगाड़ दिया.
– निजी क्षेत्र के निवेश की स्थिति बिगड़ने से अर्थव्यवस्था अब सार्वजनिक खर्च के भरोसे है. इन सबका सर्वाधिक प्रभाव रोजगार क्षेत्र पर पड़ा है. फिलहाल, रोजगार पैदा करने में असफल रही सरकार सवालों के घेरे में है.
बढ़ती खुदरा महंगाई
अर्थव्यवस्था के बिगड़ते स्वास्थ्य के पीछे नोटबंदी और एक जुलाई से लागू वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) सबसे अहम माना जा रहा है. लेकिन, बढ़ती खुदरा महंगाई और पिछले चार वर्षों में उच्चतम स्तर पर पहुंचा चालू खाता घाटा (2018 की पहली तिमाही में जीडीपी का 2.4 प्रतिशत) कम चिंताजनक नहीं है. अर्थव्यवस्था को सुधारने के साथ-साथ रोजगार पैदा करने की चुनौती बढ़ती जा रही है.
सरकार कर सकती है प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा
ढलान का रुख कर चुकी अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली जरूरी कदम उठाने का भरोसा दिला चुके हैं. माना जा रहा है कि पैकेज में निर्यातकों के लिए इन्सेंटिव, बड़ी ढांचागत योजनाओं के लिए निवेश बढ़ाने पर जोर दिया जा सकता है.
अार्थिक विकास के साथ-साथ अधिक से अधिक नौकरियां पैदा की चुनौती कहीं ज्यादा बड़ी हो चुकी है. वर्ष 2014 के आम चुनावों में भाजपा ने इस वायदे को लोकलुभावन बना दिया था. वर्ष 2019 में दोबारा सत्ता वापसी के लिए निश्चित ही सरकार को इन वायदों को समय रहते पूरा करना होगा.
शुरू हुई माथापच्ची
अर्थव्यवस्था की मौजूदा चुनौतियों और समस्याओं का हल ढूंढने के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने रेल मंत्री पीयूष गोयल, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री सुरेश प्रभु, वित्त और वाणिज्य मंत्रालयों के सचिव, नीति आयोग, पीएमओ और रेलवे बोर्ड के चेयरमैन समेत सरकार के पॉलिसी थिंक टैंक के लोगों के साथ बैठक की.
राजकोषीय घाटा लक्ष्य और विकास दर
वर्ष 2017-18 के लिए निर्धारित सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष राजकोषीय घाटा लक्ष्य (जीडीपी का 3.2 प्रतिशत) को पार करने के बजाय सरकार वित्त बढ़ोतरी जैसा कदम उठा सकती है.
संभव है कि ढांचागत क्षेत्रों में कार्यरत सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को पूंजी खर्च बढ़ाने के लिए कहा जाये. हालांकि, वर्ष 2017-18 के लिए निर्धारित सकल राजकोषीय घाटे के लक्ष्य का 90 प्रतिशत सरकार शुरुआती चार महीनों (अप्रैल-जुलाई) में पार कर चुकी है. इसके आगे खर्च बढ़ाना सरकार के लिए मुश्किल हो सकता है. विशेषज्ञों के मुताबिक दूसरा रास्ता राज्य सरकारों के सहयोग से तय लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ने का है.
मनमोहन सिंह ने नोटबंदी-जीएसटी को बताया कारण
नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर दोनों को अर्थव्यवस्था की गिरावट की बड़ी वजह बताते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि इसे असंगठित क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित हुआ है.
जीडीपी के 40 हिस्सेदारी वाले असंगठित क्षेत्र और छोटे कारोबारियों के प्रभावित होने से अर्थव्यवस्था का संभालना मुश्किल होगा, इसका मनमोहन सिंह ने पहले ही कयास लगाया था. नोटबंदी के तुरंत बाद पूर्व प्रधानमंत्री ने संसद में कहा था कि यह पूर्व नियोजित गलती है, इससे जीडीपी विकास दर दो प्रतिशत तक नीचे जा सकती है.
गिरते ग्रामीण विकास ने हिला दी अर्थव्यवस्था की नींव
ग्रामीण विकास के बिगाड़ते हालत अर्थव्यवस्था सुधार की राह में बड़ी बाधा है. भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् प्रनब सेन के मुताबिक 2004-12 की अवधि में ग्रामीण विकास ने आर्थिक विकास में अहम योगदान दिया. कृषि उत्पादन तीन प्रतिशत और कृषि आय में 7.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी से महंगाई के साथ-साथ गरीबों की आय में वृद्धि हुई. वर्ष 2013-14 में समस्या की असल शुरुआत हुई.
इस दौरान कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि जो औसतन 8 प्रतिशत सलाना थी, वह 3.5 प्रतिशत पर आ गयी. इस अवधि में वैश्विक खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट दर्ज की गयी, लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ने प्रतिबंधात्मक मौद्रिक नीति को जारी रखा.
मनरेगा को किया गया नजरअंदाज
वर्ष 2014-15 और 2015-16 में पड़े सूखे के दौरान मनरेगा पर कम ध्यान दिया गया, जिससे ग्रामीण मांग में गिरावट आयी और ग्रामीण विकास चरमरा गया. प्रत्येक ग्रामीण परिवार में कम-से-कम एक व्यक्ति को 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देनेवाला मनरेगा मांग बढ़ाने के बजाय संसाधन के जरिये तक सीमित रह गया. बिगड़ते हालात में नोटबंदी और जीएसटी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी तबाही लेकर आये.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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