आरोपी व्यक्ति पर जब तक दोष सिद्ध न हो जाये, उसे अपराधी नहीं कहा जा सकता है. यह न्याय का सामान्य सिद्धांत है. दोष-सिद्धि से पहले निर्दोष माने जाने का उसे वैधानिक हक हासिल है. संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र में इसे मानवाधिकारों में गिना गया है. लेकिन कानून भी सामाजिक परिवेश में ही काम करता है.
जो समाज मानवाधिकारों को लेकर विशेष संवेदनशील नहीं है, वहां आरोपी और कैदी के कानूनी हक के साथ बहुधा नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन एक आम चलन है. जीवन जीने के अधिकार में जीवन गरिमापूर्वक जीने का हक भी शामिल है- हमारे सामाजिक परिवेश में यह सोच कमजोर है. एक चिंताजनक घटना हरियाणा में घटी है. एक बच्चे की उसके स्कूल में हुई नृशंस हत्या ने देश के मानस को झकझोर दिया है.
ऐसे में आम जनभावना निश्चित ही स्थानीय प्रशासन से लेकर सूबे की सरकार तक को दोषी ठहरायेगी और उसे मामले में जल्दी से जल्दी इंसाफ की उम्मीद होगी. लेकिन जनभावना को आधार मानकर इस बच्चे के साथ न्याय नहीं किया जा सकता है. जनभावना अक्सर भीड़ का रूप ले लेती है और भीड़ को दिशाबोध नहीं होता है. भीड़ को इंसाफ के मामले में अपना रहबर नहीं बनाया जा सकता है.
लेकिन हरियाणा के सोहना की अदालत में जहां छात्र की हत्या का मामला लंबित है, भीड़ और जनभावना को ही अपनी राह बनाने का मामला सामने आया है और वह भी वकीलों द्वारा. डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन ने फैसला किया कि हत्या के मामले में आरोपी व्यक्ति की पक्ष से कोई वकील पैरवी नहीं करेगा. यह कदम दोष सिद्ध होने से पहले आरोपी को मुजरिम मानने और बिना भेदभाव के इंसाफ हासिल करने के उसके अधिकार के उलट है. स्कूल के आरोपी अधिकारी साधन-संपन्न हैं. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अपने संविधान-प्रदत्त सुनवाई के अधिकार की मांग की. मामले में अदालत को याद दिलाना पड़ा है कि बार एसोसिएशन न्याय के बुनियादी नियम का उल्लंघन कर रहा है.
आतंकवाद और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में पहले भी आरोपी व्यक्ति की तरफ से पैरवी करने से वकील इनकार कर चुके हैं, जो कि न्याय-भावना और लोकतांत्रिक चलन के विपरीत है, जबकि ऐसे मामलों में आरोपी इतने साधन-संपन्न नहीं होते कि अपने हक के लिए आगे की अदालतों में जा सकें. आरोपी व्यक्ति के अधिकारों का हनन न हो, इसके लिए एक जीवन की गरिमा को महत्व देनेवाला सामाजिक माहौल बनाने की सख्त जरूरत है.