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युद्ध के कगार पर पूर्व-एशिया! : उत्तर कोरिया की जिद और अमेरिकी तेवर

उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार और मिसाइल कार्यक्रमों की आक्रामकता तथा अमेरिका के तीखे विरोध के फलस्वरूप दोनों देशों के बीच युद्ध की आशंकाएं दिन-ब-दिन गहराती जा रही हैं. एक ओर चीन और उत्तर कोरिया के बीच नजदीकी रिश्ते हैं, तो जापान और दक्षिण कोरिया अमेरिका के करीबी हैं. ऐसे में तनातनी महज दो देशों […]

उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार और मिसाइल कार्यक्रमों की आक्रामकता तथा अमेरिका के तीखे विरोध के फलस्वरूप दोनों देशों के बीच युद्ध की आशंकाएं दिन-ब-दिन गहराती जा रही हैं. एक ओर चीन और उत्तर कोरिया के बीच नजदीकी रिश्ते हैं, तो जापान और दक्षिण कोरिया अमेरिका के करीबी हैं. ऐसे में तनातनी महज दो देशों का मामला न होकर अंतरराष्ट्रीय संकट बन चुका है. उत्तर कोरिया के रवैये में सुधार की कोशिशें नाकाम रही हैं, तो अमेरिका के बयान भी किसी हल की उम्मीद को धुंधला बना रहे हैं. कोरियाई क्षेत्र के मौजूदा संकट के विभिन्न पहलुओं को विश्लेषित करता आज का इन-दिनों…
जॉन मेकलीन
वरिष्ठ पत्रकार, उपन्यासकार एवं एडिटर-इन-चीफ, बुलेटिन ऑफ दि एटॉमिक साइंटिस्ट्स
बैलिस्टिक मिसाइल दागने, परमाण्विक हथियारों के परीक्षणों, सैन्य अभ्यासों और अर्थहीन बम विस्फोटों जैसी चिंताजनक घटनाओं की शृंखला के बावजूद हालिया महीनों में उभरा उत्तर कोरियाई संकट प्रायः एक ईजाद की हुई घटना ही है. केवल एक वर्ष पूर्व यह संभावना कि उत्तर कोरिया अमेरिका पर कोई परमाणु हथियार दाग सकता है, निश्चित रूप से शून्य थी. उसके पास ऐसी क्षमता ही नहीं थी.
हालांकि, तब से उसने प्रावैधिक प्रगति की है. फिर भी, कुछ को छोड़ अन्य विश्लेषकों के मतानुसार इसके कोई भी निश्चित और सार्वजनिक प्रमाण नहीं हैं कि उत्तर कोरिया के पास अमेरिका की मुख्य भूमि तक प्रहार क्षमतायुक्त कोई मिसाइल, उसके शीर्ष पर लगनेवाले लघु परमाण्विक हथियार तथा पृथ्वी के वातावरण में उसके पुनर्प्रवेश पर पैदा ताप तथा दबाव से उसे बचाने की प्रविधि मौजूद भी है.
दोनों पक्षों को पता हैं विनाशकारी नतीजे
आशय यह बिलकुल नहीं कि यह सारा प्रदर्शन नख-दंतविहीन है. पर यदि उत्तर कोरिया ऐसी क्षमताएं हासिल कर लेता है तब भी, ऐसी संभावना कि वह अमेरिका पर परमाण्विक मिसाइल से हमला करेगा, अत्यंत ही न्यून है. ओबामा प्रशासन के अंतर्गत शस्त्र नियंत्रण के पूर्व निदेशक जॉन वोफ्स्ताल की आधिकारिक और विस्तृत व्याख्या के अनुसार, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग उन न तो विक्षिप्त हैं, न ही आत्मघाती. वे इसे अच्छी तरह जानते हैं कि यदि उन्होंने परमाण्विक हथियारों का प्रयोग किया, तो केवल कुछ घंटों (बल्कि मिनटों) के अंदर उनकी सत्ता का नामो-निशान मिट जायेगा. अमेरिकी बैलिस्टिक मिसाइलों तथा बमवर्षक विमानों पर लगे लगभग 1,590 परमाण्विक हथियार यह परिणाम सुनिश्चित कर देंगे. तत्संबंधी सर्वाधिक आधिकारिक सार्वजनिक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर कोरिया अब तक इतनी ही विखंडनीय सामग्री हासिल कर सका है, जिससे वह सिर्फ 10 से 12 परमाण्विक आयुध बना सकता है.
इसकी भी कोई संभावना नहीं है कि अपने बचाव के लिए अमेरिका उत्तर कोरिया पर पहले ही एक पारंपरिक अथवा परमाण्विक सैन्य हमला करेगा, क्योंकि उसका अर्थ दक्षिण कोरिया में लाखों का हताहत होना होगा.
परमाण्विक हथियारों का विकल्प अपनाये बगैर उत्तर कोरिया युद्ध के प्रारंभिक घंटों में ही दक्षिण कोरिया पर हजारों राकेट और गोले दाग पारंपरिक विस्फोटकों की वर्षा कर सकता है ताकि, जैसी उत्तर कोरिया की राजकीय समाचार एजेंसी ने धमकी दी, सोल ‘आग के समंदर’ में तब्दील हो जाये. प्योंग्यांग के पास तोप के रासायनिक गोलों तथा राकेटों पर लगे रासायनिक हथियारों का विशाल जखीरा मौजूद है, जो दक्षिण कोरियाई राजधानी को स्नायु गैसों के समंदर में भी बदल सकता है.
खतरनाक हदें छू सकता है
यह खेल
आपसी भयकारी तत्वों की इन निर्विवाद वास्तविकताओं के मद्देनजर, 2017 के उत्तर कोरियाई ‘संकट’ को सबसे सही रूप में केवल किम और ट्रंप की मीडिया भंगिमाओं के रूप में देखा जा सकता है, जिसे वे दोनों केवल जन प्रभाव के नजरिये से कर रहे हैं. फिर भी, यह खेल खतरनाक तो है ही. मीडिया के इस अत्यंत गर्म माहौल में दोनों नेताओं द्वारा अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर प्रस्तुत कोई ऐसी नाटिका-जिसे उन्होंने सियासी असर, या समझौता वार्ता में अपने हाथ ऊपर रखने अथवा महज अपने अहं की तुष्टि के लिए पेश की हो-केबल टीवी या इंटरनेट पर इतने बढ़े-चढ़े रूप में पेश की जा सकती है कि उसे राष्ट्रीय अपमान समझ लिया जाये. और तब उस अपमान का एक भावनात्मक प्रत्युत्तर क्रमशः आगे बढ़ते हुए आसानी से विनाश में बदल जा सकता है.
इसे एक ठोस रूप में समझने के लिए एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिये, जिसमें हाल ही उत्तर कोरिया द्वारा जापान के ऊपर से भेजे अपने मिसाइल को अमेरिका सेना मार गिराती. इसके प्रत्युत्तर स्वरूप चिढ़ या बहादुरी में किम ने दूसरा मिसाइल भी संभवतः ग्वाम की दिशा में दाग दिया होता. तो क्या ट्रंप उसका एक ज्यादा जोरदार जवाब देने को बाध्य महसूस नहीं करते? इसी तरह की अनेक घटनाओं की अंतिम निष्पत्ति सहज ही परमाण्विक हमले तक पहुंच जा सकती है.
खतरों के निवारणार्थ सर्वोत्तम तरीके
उत्तर-पूर्व एशिया के इस ईजाद किये गये संकट द्वारा उत्पन्न एक गैर-इरादतन युद्ध के खतरे को कम करने का सर्वोत्तम तरीका इसके दोनों अभिनेताओं को यह समझा देना है कि उनकी नाटकबाजियां अविश्वसनीय हैं और उससे वे दोनों अपने इच्छित नतीजे हासिल नहीं कर सकते.
पर मैं यह यकीन तो नहीं ही करता कि मेरे विचार आत्मसम्मान (जो अधिकांशतः उनके द्वारा स्वयं उपार्जित नहीं है) से भरे इन दोनों वैश्विक नेताओं को जीवन, मृत्यु तथा टेलीविजन रेटिंग के मुद्दों पर अपनी नीतियां तेजी से बदल लेने को बाध्य कर देंगे.
इसलिए मैं इस अगले सबसे अच्छे तरीके का प्रस्ताव करता हूं कि पत्रकारगण उत्तर कोरियाई परिदृश्य के बारे में ऐसा लिखने या प्रसारित करने से परहेज करें मानो युद्ध अत्यंत निकट है. उत्तर कोरिया प्रयोग करने योग्य परमाण्विक शस्त्रागार पाने के प्रयास में वर्षों से लगा है.
इसका नवीनतम परमाण्विक परीक्षण पूर्व के विस्फोटों से ज्यादा शक्तिशाली-नागासाकी पर गिराये गये बम से चार-पांच गुना अधिक शक्तिशाली-था. इस अधिक शक्ति का अर्थ यह था कि या तो वह हाइड्रोजन समस्थानिक (आइसोटोप) से ‘सशक्त’ किया गया विखंडन (फिशन) बम था अथवा सही अर्थों में एक संलयन (फ्यूजन) बम था, जिसे बोलचाल की भाषा में हाइड्रोजन बम कहा जाता है. अब तक प्राप्त सूचनाओं के आधार पर विशेषज्ञ इन मुद्दों के संबंध में एकमत नहीं हैं.
मगर जैसा उत्तर कोरिया के परमाण्विक कार्यक्रम के एक अग्रणी अमेरिकी विशेषज्ञ, सिग हेकर, ने मेरे द्वारा संपादित पत्रिका, ‘बुलेटिन ऑफ दि एटॉमिक साइंटिस्ट’ को बताया, यदि 3 सितंबर को कोरिया द्वारा किया गया परमाण्विक परीक्षण हाइड्रोजन बम का ही था, तो यह कई मान्यताएं पलट देगा.
किसी अमेरिकी शहर पर इसके प्रयोग के नतीजतन भारी विनाश होगा तथा हजारों लोगों की तत्क्षण मृत्यु हो जायेगी. यह एक भयावह संभावना है. पर एक बार फिर, उत्तर कोरियाई नेताओं को यह पता है कि अमेरिका अथवा उसके किसी सहयोगी देश पर एक परमाण्विक हथियार दागने का परिणाम सुनिश्चित राष्ट्रीय आत्महत्या होगा.
मीडिया कम कर सकता है
यह बुखार यह तो स्पष्ट है कि उत्तर कोरिया द्वारा परमाण्विक बमों तथा बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण ऐसी अहम घटनाएं हैं, जिनकी रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय समाचार मीडिया द्वारा करनी ही चाहिए. पर विश्व मीडिया इस ‘संकट’ को जिस अहमियत से अलंकृत कर रहा है, वह वस्तुतः इसे विस्तारित करते हुए आकलन की त्रुटियों तथा युद्ध की संभावनाओं तक पहुंचा दे रही है.
यदि अधिकाधिक संख्या में पत्रकार किम तथा ट्रंप की नाटकीयताओं को कम अहमियत देने तथा अपनी निगाहें वास्तविकता पर जमाये रखने पर आमादा होते जायें, तो उत्तर कोरियाई परिदृश्य कठिन राजनय की उस लंबी श्रमसाध्य प्रक्रिया में तब्दील होना शुरू हो जायेगा, जिससे एक स्वीकार्य समाधान निःसृत हुआ करता है.
और वह वास्तविकता यह है कि उत्तर कोरिया एक छोटा और गरीबी की मार झेलता देश है, जो यदि कभी अमेरिका पर कोई गंभीर हमला करता है, तो उसका वजूद तत्काल ही मिट जायेगा. इसलिए, ऐसे किसी हमले की संभावना न के बराबर है. यदि मीडिया रचित संकट की अवधारणा हटा दी जाये, तो कल्पित खतरे के निवारणार्थ अमेरिका द्वारा उत्तर कोरिया पर प्रथम हमला भी उतना ही असंभाव्य है.
मीडियाकर्मी अमेरिकी अथवा उत्तर कोरियाई नेताओं को जिम्मेदारी बरतने को बाध्य नहीं कर सकते. पर मीडिया जनमानस द्वारा यह समझे जाने में मदद तो पहुंचा ही सकता है कि कोरियाई ‘संकट’ वस्तुतः एक कोरियाई ‘तनातनी’ है और इसमें शेखीभरी नाटकबाजी वस्तुतः पेशेवर राजनय का एक दयनीय विकल्प मात्र है.
(जापान टाइम्स से साभार, अनुवाद : विजय नंदन)

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