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अनेक बाधाओं और असहयोग के बीच हिंदी का बढ़ता दबदबा
!!सुधीश पचौरी!! सिनेमा और साहित्य के जरिये भले ही हिंदी का दायरा तेजी से नये इलाकों तक बढ़ रहा है, लेकिन नयी पीढ़ी की तकनीकी जरूरतों के मुताबिक इसे अनुकूलित बनाने की दिशा में अभी अनेक चुनौतियां हैं. फिलहाल हिंदी के विकास के सामने अनेक चुनौतियां हैं, जिनका समाधान करने के लिए सरकार को कुछ […]
!!सुधीश पचौरी!!
सिनेमा और साहित्य के जरिये भले ही हिंदी का दायरा तेजी से नये इलाकों तक बढ़ रहा है, लेकिन नयी पीढ़ी की तकनीकी जरूरतों के मुताबिक इसे अनुकूलित बनाने की दिशा में अभी अनेक चुनौतियां हैं.
फिलहाल हिंदी के विकास के सामने अनेक चुनौतियां हैं, जिनका समाधान करने के लिए सरकार को कुछ ठोस कार्यक्रम बनाना होगा. इंटरनेट और वेब से जोड़कर इसे और अधिक सशक्त बनाया जा सकता है. वैसे इस दिशा में अनेक स्तर पर प्रयास जारी हैं और उम्मीद की जा रही है कि विविध स्तरों पर इसे न केवल अंगरेजी से बल्कि अन्य करीबी भाषाओं से भी प्रतिस्पर्धी बनाया जा सकेगा. इन्हीं मसलों को रेखांकित किया जा रहा है हिंदी दिवस के अवसर पर आज की विशेष प्रस्तुति में …
हिंदी दुनिया की दूसरी बड़ी भाषा है. पहले नंबर पर चीनी यानी मंदारिन भाषा मानी जाती है. तीसरे नंबर पर स्पेनिश आती है और चौथे नंबर पर अंगरेजी ठहरती है. अपने देश में हिंदी ही सबसे बड़ी भाषा है. वर्ष 2011 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, तकरीबन 42 करोड़ भारतीयों की मातृभाषा हिंदी है.
पिछले दशक में उसके बोलने वालों में 28 फीसदी की बढ़ाेतरी हुई है. चाहे फिल्म हो या रेडियो, प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्राॅनिक मीडिया, हिंदी सर्वत्र अव्वल दर्जे की भाषा है. वह सर्वाधिक पढ़ी, बोली और सुनी जाती है. हिंदी ही सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भाषा है. फिर भी हिंदी अंगरेजी के दबाव से दबी नजर आती है और हिंदी वाला एक प्रकार के हीनता-बोध से ग्रस्त नजर आता है. तमिल या कन्नड़ आदि भाषाएं हिंदी के मुकाबले बेहद छोटी भाषाएं हैं, फिर भी कुछ अंध-तमिल या कन्नड़-भक्त हिंदी से व्यर्थ में डरते रहते हैं और अपनी विशेष अस्मिता की रक्षा के लिए अंगरेजी की शरण में जाकर हिंदी को थोपे जाने का लांछन लगाते रहते हैं, जबकि हिंदी उनसे कुछ नहीं कहती!
दक्षिण की भाषाओं से मित्रवत व्यवहार
अब तो ऐसे तत्व ‘तीन भाषा फारमूले’ तक को चुनौती देने पर तुले हैं. इसे हम भाषा की नयी राजनीति कह सकते हैं, जो नये सिरे से उभारी जा रही है. हिंदी के सामने यह नयी चुनौती है कि किस तरह वह तमिल या कन्नड़ भाषियों को समझाये कि वह न सरकारी आदेशों से बनी है, न वह किसी पर अपने को थोपती है, न वह किसी के लिए खतरा है.
सरकारी रीति-नीति अपनी जगह हैं, लेकिन हिंदी जनता अपनी जगह है. वह दक्षिणी भाषा और संस्कृति को अपना मित्र मानती है, इसीलिए वह हिंदी में डब की गयी दक्षिण भारतीय फिल्मों को अकुंठ भाव से सराहती है. ‘बाहुबली’ का हिंदी संस्करण हिंदी क्षेत्र से 200 करोड़ कमाता है. यदि हिंदी नाराज होती, तो क्या ऐसा होता? कमल हासन हिंदी के विरोधी कहलाते हैं, लेकिन उनकी फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ हिंदी वालों ने हाथों हाथ ली थी. यदि हिंदी वाले तमिल के दुश्मन होते, तो क्या उनकी फिल्म चल पाती?
दक्षिण में बढ़ती लोकप्रियता
नयी सच्चाई यह है कि आज निचले वर्ग के तमिल भाषी हिंदी इसलिए बोलना समझना चाहते हैं, ताकि उत्तर भारत में उन्हें छोटा-मोटा काम मिल सके. हिंदी वहां भी नयी लोकप्रियता प्राप्त कर रही है. लेकिन इससे हिंदी की यह चुनौती कम नहीं हो जाती कि उसे दूसरी भारतीय भाषाओं से मित्रता बनानी है! जाहिर है कि एक बड़ी भाषा के सामने ऐसी चुनौतियां आती ही हैं और उसे उनको हल करना होता है. इसीलिए हिंदी को अब एक दीन-हीन भाषा की तरह न सोचकर, एक बड़ी भाषा के तरीके से सोचना होगा. एक बड़ी भाषा के तरीके से सोचेंगे, तो हिंदी अपने नये एजेंडे को तय कर पायेगी.
आयोग गठन की जरूरत
इस हिंदी दिवस पर हमें हिंदी के कुछ नये कार्यभारों (एजेंडा) को चिह्नित कर, उन पर अमल के बारे में सोचना चाहिए. इस क्रम में पहला कार्यभार तो यही है कि हिंदी की देख-रेख के लिए एक स्थायी ‘आयोग’ बने, जो एक बड़ी और सतत विकासशील भाषा होने के नाते हिंदी के लिए एक नित्य नूतन और विकासशील शब्दकोश की चिंता करता रहे और जो हिंदी में रोजमर्रा के काम-काज में बरते जाने वाले अंगरेजी या अन्य भाषाओं के नये-से-नये जनस्वीकृत शब्दों को शब्दकोश में स्थान देकर उनको अपनी ‘मानकता’ प्रदान करे, ताकि हिंदी के सिर से ‘नये शुद्धतावाद’ का भूत उतर सके.
कुछ शुद्धतावादी तो अब भी उर्दू और रोजमर्रा के काम में आने वाले अंगरेजी के बहुत से शब्दों को हटाकर शुद्ध हिंदी के शब्द रखकर उसे संस्कृत के खूंटे से बांधना चाहते हैं. ऐसा आयोग इस शुद्धतावाद के भूत को उतार सकेगा.
इसे ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के आयोग के माॅडल पर बनाया जा सकता है, जो दुनिया के देशों और नगरों की भाषाओं के बोलचाल के शब्दों को अंगरेजी के शब्दकोश में हर बरस समाहित करता चलता है. ऐसा आयोग आसानी से बनाया जा सकता है. अगर सभी हिंदी भाषी प्रदेश आपस में मिलकर इस आयोग को बनाने के लिए 10-10 करोड़ रुपये भी जमा कर दें, तो उसकी ब्याज से ही उसका संचालन हो जायेगा.
वर्तनी जांच व्यवस्था
दूसरा काम यह है कि कंप्यूटर सिस्टम में हिंदी की वर्तनी की जांच के लिए कोई ‘प्रमाणिक स्पेल चेक’ या ‘वर्तनी जांच व्यवस्था’ नहीं है. जरूरी है कि अंगरेजी की तर्ज पर हिंदी स्पेल चेक के लिए साॅफ्टवेयर विकसित किया जाय.
एक बड़ी भाषा होने के नाते इससे हिंदी को एकरूप होने में मदद मिलेगी. हिंदी में अपेक्षित ‘एकरूपता’ आयेगी और वह तकनीकी स्तर पर सटीक संचार में सक्षम होगी. इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें नये शब्दों का निर्माण न हो सकेगा. इसका अर्थ इतनाभर है कि हम कई तरह की वर्तनियों वाली हिंदी की जगह एक स्तरीकृत हिंदी में सटीक संप्रेषण कर सकेंगे.
कानूनी और प्रशासनिक भाषा में ऐसी एकरूपता की दरकार होती है. इससे वह रचनात्मक और साहित्यिक भाषा होने से वंचित नहीं हो जाती. अगर सभी हिंदी भाषी राज्य मिल कर इसे करें, तो यह जल्दी से हो सकता है. कंप्यूटर में हिंदी में काम करने वालों को इसकी सख्त जरूरत है.
मीडिया को विशेषतः इसकी खास जरूरत है. हमने देखा है कि टीवी में लिखी जाने वाली हिंदी में वर्तनी की गलतियां कुछ का कुछ अर्थ देने लगती हैं. समुचित साॅफ्टवेयर होगा, तो ऐसी गलतियां नहीं होंगी.
टिप्पणी लेखन से लेकर पुस्तक लेखन व पीएचडी की थीसिस के लेखन में वर्तनी की एक स्तरीयता आ सकेगी. कहा जाता है कि हिंदी ज्ञान की भाषा नहीं बनी है. अगर सभी राज्य और उनके विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग और पुस्तकालय हिंदी की रिसर्च के काम में आने वाली सामग्री कंप्यूटर सिस्टम में भर दें तो रिसर्च के स्तर पर नकल को चेक करने में मदद मिलेगी. इससे हिंदी के उच्चतर ज्ञान की भाषा बनने में कुछ तो मदद मिलेगी़
इस हिंदी दिवस पर हम इतना ही संकल्प लें. यदि इनमें से एक भी कार्य संपन्न कर या करा सकें, तभी हम सही माने में एक बड़ी भाषा के प्रवक्ता कहला सकेंगे.
इंटरनेट पर हिंदी
– इंटरनेट पर पहले अंगरेजी में ही कंटेंट उपलब्ध थे. भारत में बड़ी आबादी हिंदी जानती-समझती है. गूगल ने अपने लिए इसमें एक बड़ा बाजार तलाशा और हिंदी में कंटेंट की शुरुआत की.
– पिछले पांच वर्षों के दौरान इंटरनेट पर हिंदी सामग्री में बेहद तेजी से बढ़ोतरी हुई है.
– स्मार्टफोन के मौजूदा दौर में गूगल लोगों को हिंदी में ढेरों कंटेंट मुहैया करा रहा है.
– अनेक कंपनियां स्मार्टफोन में अब इनबिल्ट हिंदी की सुविधा मुहैया करा रही हैं. इससे कोई भी व्यक्ति गूगल पर अपनी जरूरत की चीजों को खंगाल सकता है और जान-समझ सकता है.
– जिन लेखकों की रचना कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं होते, वे उसे इंटरनेट पर डाल देते हैं. – मौजूदा तकनीकी युग में तकनीक को समझे बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते. यदि इंटरनेट पर हिंदी पिछड़ेगी, तो देश-दुनिया में यह पिछड़ती जायेगी. आज हिंदी की अनेक किताबें इंटरनेट पर पीडीएफ या दूसरे प्रारूपों में मौजूद हैं.
– इंटरनेट पर ब्लॉग के विकास होने के बाद अनेक लोगों ने अपनी बात रखने के लिए इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया.- इंटरनेट पर आसानी से देवनागरी लिपि लिखने वाले टूल्स विकसित होने के बाद उन लोगाें ने भी अपने विचार हिंदी में रखना शुरू किया, जाे हिंदी टाइपिंग नहीं जानते थे. क्योंकि विविध टूल्स के जरिये अब आप बिना हिंदी टाइपिंग जाने हिंदी में लिख सकते हैं.
– फेसबुक और व्हॉट्सएप जैसे सोशल मीडिया मंचों पर आज धड़ल्ले से लोग हिंदी का इस्तेमाल कर रहे हैं. इन मंचों पर अंगरेजी के मुकाबले हिंदी के कंटेंट की संख्या बढ़ती जा रही है.
जीमेल पर हिंदी लिखने की खास सुविधा
कई बार आपके पास हिंदी में इमेल आते होंगे. शायद आप समझते होंगे कि जिसने आपको इमेल भेजा है, उसने हिंदी में ही इसे लिखा है. जरूरी नहीं कि वास्तव में ऐसा ही हुआ हो. जीमेल पर एक खास फीचर है, जिसके जरिये राेमन में टाइपिंग करने पर उसका हिंदी विकल्प आता है और उससे हिंदी में संवाद लिख कर भेज सकते हैं. अधिकतर लोग अब हिंदी में संवाद भेजने के लिए जीमेल के इस खास फीचर का इस्तेमाल करते हैं.
गूगल का दूसरा बड़ा बाजार भारत
गूगल के लिए दूसरा बड़ा बाजार भारत है. भारत में हिंदी के महत्व को समझते हुए गूगल ने ‘गूगल एलो’ नाम से एक खास फीचर शुरू किया है. यह एक स्मार्ट मैसेजिंग एप है, जिसे एंड्रॉयड और आइओएस प्लेटफाॅर्म के जरिये संचालित किया जा सकता है. यूजर की जरूरतों के अनुरूप यह एप जवाब तलाशकर उसे मुहैया कराता है.
विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर हिंदी
इंटरनेट पर हिंदी लेखन की शुरुआत अभी अपने आरंभिक दौर में कही जा सकती है. स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल के दौर में हिंदी का दायरा तेजी से बढ़ रहा है. आज अधिकतर स्मार्टफोन में हिंदी में कंटेंट सर्च करने की सुविधा है. एक बड़ी आबादी अब चीजों को हिंदी में जानने में सक्षम हो रही है. दुनियाभर में तकरीबन 70 करोड़ लोग हिंदी जानते-समझते हैं.
इसमें से 60 करोड़ से अधिक भारत में हैं. विकीपीडिया का कहना है कि हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है. लेकिन इंटरनेट पर जितनी तेजी से हिंदी भाषा पढ़नेवालों की संख्या बढ़ रही है, उस हिसाब से हिंदी भाषा में नये कंटेंट नहीं बनाये जा रहे हैं. तकनीक संबंधी कंटेंट का तो और भी संकट है. हिंदी जानने-समझने वाले अधिकतर लोग विज्ञान और तकनीक संबंधी मसलों को पढ़ने के लिए अंगरेजी पर ज्यादा भरोसा करते हैं. हिंदी के कंटेंट को हमें और भरोसेमंद बनाने की जरूरत है.
हिंदी दिवस का इतिहास
हिंदी दिवस का इतिहास और इसका आयोजन देश के स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही जुड़ा है. वर्ष 1918 में गांधीजी ने इसे जनमानस की भाषा करार देते हुए कहा था कि इसे देश की राष्ट्रभाषा बनायी जानी चाहिए. हालांकि, अनेक क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों का समर्थन नहीं मिल पाने के कारण हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका.
आजादी के बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह फैसला किया कि हिंदी की खड़ी बोली ही भारत की राजभाषा होगी. इसी महत्वपूर्ण फैसले के महत्व को दर्शाने और हिंदी को देश के सभी क्षेत्रों में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से देशभर में आज ही के दिन यानी 14 सितंबर को हिंदी दिवस का आयोजन किया जाता है.
राहुल देव
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी को जब मैं समग्रता से देखता हूं, तो मुझे बहुत से संकट नजर आते हैं. हालांकि, एकमात्र सकारात्मक पक्ष यही है कि टीवी और सिनेमा के माध्यम से अहिंदी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी एक बोली के रूप में फैल रही है, भाषा के रूप में नहीं. जब हम भाषा के प्रसार की बात करते हैं, तो भाषा में जब तक तीन काम नहीं होते- बोलने-समझने का प्रसार, लिखने-पढ़नेका प्रसार और संवाद-सूचना का प्रसार, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि वह भाषा बढ़ रही है.
केवल बोली के रूप में बढ़ना एक बात है, लेकिन पढ़े-लिखे और सोचे जाने की बात दूसरी है. क्या उस भाषा के पढ़ने और लिखनेवालों की संख्या बढ़ रही है? एक भाषा को पूरी तरह से जानने के तीन हिस्से हैं- बोलना-समझना, पढ़ना और लिखना. इन तीनों स्तरों पर काम होना जरूरी है. तभी कहा जा सकता है कि हिंदी तेजी से बढ़ रही है. ऐसा होगा, तभी हिंदी में गंभीर विमर्श हो सकता है, ज्ञान-विज्ञान की बातें हो सकती हैं, और उच्च स्तर का संवाद कायम हो सकता है.
हिंदी कम अंगरेजी ज्यादा
आज हिंदी का सबसे बड़ा संकट वही है, जो अन्य मूल भारतीय भाषाओं के साथ है. वह संकट अंगरेजी और अंग्रेजियत से हिंदी के अस्तित्व मात्र को खतरा पहुंचने का संकट है. यह खतरा अभी लोगों को दिखाई नहीं दे रहा है. ऐसा इसलिए, क्योंकि हम अपने आसपास हिंदी को ही देखते हैं. लेकिन, सवाल यह है कि यकीनन ज्ञान और व्यवहार के उच्चतर स्तरों पर जब हम जाते हैं, तो पाते हैं कि वहां हिंदी कम अंगरेजी ज्यादा दिखाई देती है. यहां यह भी देखना होगा कि क्या हिंदी प्रदेशों में भी उच्च शिक्षा में, शोध में, उच्चतर वैचारिक विमर्शों में हिंदी है? लेकिन, दिखता यही है कि यहां भी अंगरेजी का ही प्रभुत्व है और यह बढ़ भी रहा है, उन सभी क्षेत्रों में, जहां भाषा और समाज का निर्माण होता है.
एक औसत हिंदी वाला व्यक्ति भी अंगरेजी और अंग्रेजियत से इतना आक्रांत रहता है कि उसके सामने वह कुछ कर ही नहीं सकता. यही वजह है कि लोग अपनी हिंदी में अंगरेजी के शब्दों को ठूंसकर उसे ढाकने-तोपने की कोशिश करते हैं. हिंगलिश चल पड़ी है. अब तो मनोविज्ञान ऐसा बन गया है कि आज बड़े-बड़े संपादक, पत्रकार, एंकर और संवाददाता भी हिंगलिश से मुक्त नहीं हैं.
यह बड़ी विडंबना है कि हिंदी के संपादक, पत्रकार, एंकर, संवाददाता और लेखकों की हिंदी की शुद्धता कम ही दिखती है. इनके साथ आज यह मसला है कि वे बिना अंगरेजी के शब्दों का इस्तेमाल किये कितनी देर तक हिंदी भाषा में गंभीर विमर्श कर सकते हैं.
सहयोगी भाषाओं से असहयोग
दूसरा हिंदी का संकट यह है कि हिंदी के भीतर हिंदी की अपनी सहयोगी सह-भाषाएं खुद को हिंदी से अलग करके संवैधानिक सूची में स्थान पाने की मांग कर रही हैं. इसमें भोजपुरी अपनी दमदार स्थिति बनाए हुए है और इसे संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने की मांग लगातार जोर पकड़ती रही है.
ऐसी स्थिति अगर सभी सह-भाषाओं के साथहोती है, तो हिंदी की स्थिति कमजोर होगी. तीसरा संकट यह है कि दक्षिण के कुछ अहिंदी राज्यों में हिंदी को लेकर विरोध एक नये सिरे से बढ़ता दिख रहा है, जहां अब तक यह विरोध नहीं था या शांत हो गया था. दक्षिण के एक-दो राज्यों में यह देखने को मिल रहा है कि हिंदी विरोध के आंदोलन को तेज करने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. ये हिंदी के तीन बड़े संकट हैं और अगर इन संकटों से पार नहीं पाया गया, तो हिंदी एक बोली के रूप में तो बढ़ती रहेगी, लेकिन ज्ञान-विज्ञान और वैचारिक व्यवहार के स्तर पर यह कमजोर होती रहेगी.
तकनीक की हिंदी
इंटरनेट पर हिंदी का विस्तार हो रहा है, इसमें कोई दो राय नहीं है. इंटरनेट पर ज्यादा-से-ज्यादा लोग हिंदी में काम करनेवाले भी बढ़ रहे हैं. वहां हिंदी में रचने-लिखनेवालों से लेकर कंपनियों में हिंदी के एप्लीकेशंस तक बढ़ रहे हैं. हिंदी में खूब सारी वेबसाइट्स आ रही हैं और इन साइटों को लोग बड़ी संख्या में पढ़ भी रहे हैं. एक तथ्य यह है कि इंटरनेट पर सबसे तेजी से बढ़नेवाली भाषा भी हिंदी ही है. लेकिन, अब भी अंगरेजी के कंटेंट के मुकाबले हिंदी में उस स्तर का कंटेंट विकसित नहीं किया जा रहा है, जो लोगों को सिर्फ सूचना के बजाय ज्ञान-विज्ञान, वैचारिक विमर्श और शोध-संवाद की स्थापना कर सके.
हालांकि, स्थिति बदल रही है, लेकिन पर्याप्त गति से यह बढ़ नहीं रही है. इसलिए अभी इसमें समय लगेगा. अगर दुनियाभर में 50 करोड़ लोगों की भाषा हिंदी है, तो इंटरनेट पर उनके लिए वर्तमान स्थिति से सैकड़ों गुना अधिक कंटेंट उपलब्ध होना चाहिए. हालांकि, यह विस्तार शुरू हो चुका है, लेकिन बहुत धीमी गति से हो रहा है. हिंदी अभी तकनीकी रूप से भी पिछड़ी हुई है.
मसलन, हम कोशिश तो काफी वक्त से कर रहे हैं, लेकिन अब भी हम इस मामले में कामयाब नहीं हो पाये हैं कि अंगरेजी की तरह हिंदी में ऑटो-करेक्ट का कोई सॉफ्टवेयर हो या उच्च स्तर का शब्दकोश हो. मुझे उम्मीद है कि यह जल्दी ही हो जायेगा. क्योंकि पहले हिंदी में टाइप करना एक समस्या थी, लेकिन आज यह बहुत आसानी से हो जाती है. उसी तरह से मुझे विश्वास है कि जल्दी ही सारी तकनीकी कमी भी पूरी कर ली जायेगी.
हिंदी के विस्तार में मीडिया की बड़ी भूमिका है. मीडिया ही हिंदी समाज को हिंदी की उत्कृष्टता से परिचित करा सकता है और उनको जागरूक कर सकता है. मीडिया ही अपने माध्यम से हिंदी समाज में एक सहज ही आत्मविश्वास और आत्मगौरव पैदा कर सकता है.
वह हिंदी में ही हिंदी के खतरों से आगाह करके उसे बचा सकता है और हिंदी में उत्कृष्टता का निर्माण करके लोगों को आकृष्ट करके उसका भविष्य बना सकता है. लेकिन, दुर्भाग्य यह है कि हिंदी के कुछ चैनल और हिंदी के ही कुछ लोग हिंदी को खाने की कोशिशों में लगे हुए हैं. पहली जिम्मेदारी खुद मीडिया की है कि वह खुद को उत्कृष्ट बनाये और फिर लोगों को हिंदी की उत्कृष्टता की ओर आकृष्ट करे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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