विश्वनाथ सचदेव ,वरिष्ठ पत्रकार
निश्चित रूप से जांच से बहुत-सी बातें साफ होनी हैं. और ये बातें उस दिन की हिंसा तक सीमित नहीं हैं, जिनमें लोगों की मृत्यु हुई थी. और न ही जांच राम-रहीम के डेरे की गतिविधियों तक सीमित होनी चाहिए. एक जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि सारे मामले को ‘राजनीतिक बताकर’ अदालत क्या कहना चाहती है? और यह जांच कोई समिति नहीं कर सकती. यह मामला राजनीतिक और कथित धर्म के रिश्तों का है और देश के जन-मानस को यह जांचना, परखना होगा कि धर्म के नाम पर हमारी राजनीति को कितना दूषित बना दिया गया है और धर्म के सहयोग से राजनीतिक नफा-नुकसान की बिसात बिछायी जाती है.
जहां तक बाबा राम रहीम का सवाल है, बरसों से राजनीतिक दल उनके अनुयायियों की लंबी-चौड़ी जमात (अनुमानत: चार से पांच करोड़) के आतंक में उनकी हाजिरी देते रहे हैं. कहते हैं, मुख्यमंत्री खट्टर ने जब पदभार संभाला तो पूरा मंत्रिमंडल लेकर डेरा सच्चा सौदा के दरबार में हाजिर हुए थे. बाबा की कृपा इस बार भाजपा पर थी, पर इससे पहले वे अलग-अलग चुनावों में कांग्रेस और अकाली दल, दोनों को आशीर्वाद देकर चुनावों में जीत का प्रसाद दे चुके थे. राजनीति पर इस कृपा का ही परिणाम है कि ऐसे बाबाओं को राजनीतिक और सरकारी संरक्षण मिलता रहता है. बड़े-बड़े राजनेताओं और मंत्रियों की हाजिरी के दृश्य ऐसे बाबाओं के प्रभामंडल को चमकाने का काम करते हैं.
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आस्था के नाम पर होनेवाली हिंसा को अस्वीकार्य बताया है. लेकिन, आवश्यकता इसकी थी कि हरियाणा की घटनाओं का स्पष्ट संदर्भ दिया जाता. प्रधानमंत्री मोदी को इनकी भर्त्सना भी करनी चाहिए थी और उन्हें यह भी स्पष्ट कहना चाहिए था कि आस्था को राजनीति का हथियार नहीं बनने दिया जा सकता. प्रधानमंत्री का यह कर्त्तव्य बनता है कि स्पष्ट रूप से सारे देश को, जिसमें उनके अपने दल के साक्षी महाराज जैसे सांसद भी शामिल हैं, यह बात समझायें कि धर्म के नाम पर तात्कालिक राजनीतिक लाभ तो प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन इस तरह की हर कोशिश जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों का नकार ही है. ऐसे में वे लोग भी, सारे राजनीतिक दल भी, अस्वीकार्य होने चाहिए, जो वोटों की राजनीति के लिए धर्म का सहारा लेते हैं.
पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को अपने दायित्वों से पीछे न हटने की सलाह दी है. इन्हीं दायित्वों में केंद्र सरकार का एक दायित्व यह भी है कि वह दलीय स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हितों का संरक्षण करे. और राष्ट्रीय हितों का ही तकाजा है कि देश के नागरिक राजनीति और धर्म के ताल-मेल से उत्पन्न स्थितियों से उबरने के प्रति जागरूक हों. सरकारों और राजनीतिक दलों के अपने स्वार्थ हो सकते हैं, पर एक जागरूक नागरिक का स्वार्थ यह है कि वह और उसका समाज धर्म के नाम पर राजनीति करनेवालों और राजनीति के लिए धर्म को हथियार बनानेवालों से सावधान रहे. इस सावधानी का मतलब है अपने कर्त्तव्य का पालन. हमारा कर्त्तव्य है कि हम राजनीति और धर्म के ठेकेदारों की मंशा और कोशिशों के शिकार न बनें.