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डॉ अनुज लुगुन, सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in झारखंड आंदोलन के दिनों झारखंडी समाज ने जो एकजुटता और मूल्य विकसित किये थे लगता है अब वे तेजी से विघटित हो रहे हैं. कुछ समय पहले राजनीतिक अस्थिरता की वजह से अराजकता की स्थिति थी, अब एक सशक्त सरकार के होने के बावजूद […]

डॉ अनुज लुगुन, सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

anujlugun@cub.ac.in

झारखंड आंदोलन के दिनों झारखंडी समाज ने जो एकजुटता और मूल्य विकसित किये थे लगता है अब वे तेजी से विघटित हो रहे हैं. कुछ समय पहले राजनीतिक अस्थिरता की वजह से अराजकता की स्थिति थी, अब एक सशक्त सरकार के होने के बावजूद असंतोष जैसी अवस्था है. फिलहाल दो मुद्दों पर झारखंड के समाज में बहस चल रही है- एक युवा आदिवासी लेखक सोवेंद्र शेखर हांसदा का मामला और दूसरा हाल ही में झारखंड सरकार द्वारा पारित ‘झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017’ का मामला. इन दोनों मुद्दों के दावे कथित आदिवासी हित से संबंधित हैं.

युवा आदिवासी लेखक एवं साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित सोवेंद्र शेखर हांसदा के लेखन को आदिवासी विरोधी घोषित कर कुछ गुटों ने उनके विरुद्ध राजनीतिक घेरेबंदी तैयार की. यह मुद्दा बहुत तुल पकड़ता गया और इसको लेकर विधानसभा तक में हंगामा हुआ. सोवेंद्र पर आरोप है कि वे आदिवासी स्त्रियों का अश्लील चित्रण करते हैं और उन्हें आदिवासी जीवन दर्शन की समझ नहीं है. यह बात ऐसे प्रचारित की गयी कि देखते ही देखते यह अस्मिता का शुद्धतावादी रूप ग्रहण कर लिया और आदिवासी समाज का एक समूह अपने ही लेखक के विरुद्ध हो गया. परिणामस्वरूप उनकी किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, साथ ही उन्हें उनकी नौकरी से भी निलंबित कर दिया गया.

कुछ लोगों को सोवेंद्र की कहानी पुस्तक ‘द आदिवासी विल नॉट डांस’ और उपन्यास ‘द मिस्ट्रीयस एलिमेंट्स ऑफ रूबी बास्के’ से आपत्ति है. किसी रचना से असहमति और आपत्ति स्वाभाविक बात हो सकती है. साहित्य और चिंतन की दुनिया में बिना असहमति से विचार में नयापन संभव ही नहीं है. लेकिन, किसी से असहमत होकर उसकी जुबान बंद करा देना कहां तक उचित है? साहित्य में आलोचना की जगह होती है. आलोचना और आलोचक रचनाकार को सचेत करते हैं. उसके लिए साहित्यिक कसौटी होती है. यहीं रचनाकार और उसकी रचना की वैधता जांची जाती है और उसकी उम्र तय होती है. लेकिन, किसी साहित्यकार की रचना का फैसला उससे बाहर फौजदारी तरीके से किया जाना अलोकतांत्रिक है. जिस शुद्धतावादी नजरिये से सोवेंद्र की लेखनी पर हमला किया गया, उससे क्या यह नहीं लग रहा है कि कथित आदिवासी अस्मिता और जीवन दर्शन की बात करनेवाले ठीक उसी तरह की कट्टरता प्रदर्शित कर रहे हैं, जिस तरह इस्लामिक और हिंदू कट्टरतावादियों ने कभी सलमान रश्दी को तो कभी एमएफ हुसैन को प्रतिबंधित किया था? अगर यही नजरिया उचित है तो फिर सआदत हसन मंटो का साहित्य कहां रखा जायेगा? यह चिंताजनक बात है. साहित्य के राष्ट्रीय परिदृश्य में लगभग गायब आदिवासी उपस्थिति के बावजूद एक युवा आदिवासी लेखक पर प्रतिबंध लगाना क्या यह आदिवासी बौद्धिकता के विरुद्ध साजिश नहीं है?

दूसरा मुद्दा है आदिवासियों के धर्मांतरण का. झारखंड सरकार ने अभी हाल में ही ‘झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017 ’ पारित किया है. इस विधेयक के बारे में सरकार यह दावा कर रही है कि वह इसके द्वारा आदिवासियों के जबरन धर्म परिवर्तन को रोकेगी. सरकार को लगता है कि यहां आदिवासियों का तेजी से ईसाईकरण हो रहा है. लेकिन, यह विधेयक मूलत: आदिवासियों के ईसाईकरण को रोकने के बजाय आदिवासियों के हिंदुत्वकरण का मार्ग प्रशस्त करनेवाला है. यह आदिवासी हित का नहीं, बल्कि आरएसएस के एजेंडे का हिस्सा है. आरएसएस का ध्यान बहुत पहले से झारखंड के आदिवासियों पर केंद्रित है, वह इसलिए नहीं कि यहां ईसाईकरण बढ़ रहा है, बल्कि इसलिए क्योंकि यहां के आदिवासी समुदायों ने संगठित होकर अलग ‘सरना धर्म कोड’ की मांग शुरू कर दी है.

देश में ग्यारह करोड़ की आबादी वाले आदिवासी समुदाय की धार्मिक पहचान के लिए कहीं भी कोई ‘कॉलम’ की व्यवस्था नहीं है. वे ‘अन्य’ में ही खुद को शामिल करते हैं. आमतौर पर उन्हें ‘हिंदू’ मानकर उनकी धार्मिक पहचान का हरण कर लिया जाता है, जबकि आदिवासी ‘हिंदू’ नहीं हैं. इसलिए अब आदिवासी समुदाय अपने ‘सरना धर्म’ के ‘कोड’ की मांग को लेकर देशव्यापी आंदोलन कर रहे हैं. इस आंदोलन ने पूरे देश के आदिवासी समुदायों को एक धार्मिक पहचान का विचार दिया. प्रसिद्ध आदिवासी चिंतक डॉ रामदयाल मुंडा ने आदिवासी धर्म और आध्यात्मिकता को वैचारिक आधार देते हुए ‘आदि धरम’ नाम से महत्वपूर्ण किताब लिखी है. यह विचार संघ के ‘एक धर्म हिंदू’ का प्रतिपक्ष है. पिछली बार जब रांची में आरएसएस के सह सरकार्यवाह डॉ कृष्ण गोपाल जी ने कहा था कि ‘आदिवासियों को ‘सरना धर्म कोड’ की जरूरत नहीं है, संघ उन्हें हिंदू मानता है’- तब आदिवासी समाज में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी. संघ यह बिल्कुल नहीं चाहता कि आदिवासी हिंदुत्व के फ्रेम से बाहर हो जायें. उन्हें रोकने के लिए कोई न कोई वैधानिक रास्ता जरूरी था. इस विधेयक के द्वारा कठोरता के साथ ईसाईयत पर दबाव बनाया जायेगा और यह आदिवासियों के हिंदुकरण के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा. भाजपा और संघ के विचार में आदिवासी हिंदू हैं. लेकिन, सवाल यह है कि आदिवासियों को ‘हिंदू’ मानना क्या उनका धर्मांतरण नहीं है? अगर संघ या भाजपा को आदिवासी अस्मिता की चिंता होती, तो वह तत्काल ‘सरना धर्म कोड’ लागू कर देती. इससे न आदिवासियों के ईसाईकरण का खतरा होता, न उनके हिंदू होने या अन्य होने का भय होता. लेकिन यह उनके लिए ही जोखिम भरा दांव है. कांग्रेस या अन्य दल भी ‘सरना धर्म कोड’ के पक्ष में नहीं हैं. आदिवासियों को हथियाने की केवल होड़ है.

ऐसी खींचतान में आदिवासी ‘आदिवासी’ हैं का विचार कहीं खो जाता है और आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के मूल मुद्दे भटका दिये जाते हैं. युवा लेखक सोवेंद्र शेखर का मामला हो या आदिवासियों के धर्मांतरण का मामला, इस तरह के मुद्दे उछालनेवालों में आदिवासियत की भावना नहीं है. वे आदिवासियों को बांटकर अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं. वे आदिवासियों के ‘मसीहा’ होना चाहते हैं. लेकिन, आदिवासियों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिये बिना कोई कैसे उनका चिंतक हो सकता है?

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