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आैर कितने बच्चाें की जान लाेगे, ऐसे ही रहे हालात, तो 50 साल में भी नहीं सुधरेगी झारखंड की व्यवस्था

अनुज कुमार सिन्हा एक सप्ताह के अंदर प्रभात खबर में छपी इन तीन खबराें की हेडलाइन काे पढ़िए. पहली खबर : बच्चे काे रिम्स किया रेफर, पैसे नहीं थे, पैदल गांव लाैट रही थी मां, गाेदी में मासूम ने दम ताेड़ा. दूसरी खबर : जांच के लिए पिता के पास कम थे 50 रुपये, नहीं […]

अनुज कुमार सिन्हा

एक सप्ताह के अंदर प्रभात खबर में छपी इन तीन खबराें की हेडलाइन काे पढ़िए.

  • पहली खबर : बच्चे काे रिम्स किया रेफर, पैसे नहीं थे, पैदल गांव लाैट रही थी मां, गाेदी में मासूम ने दम ताेड़ा.
  • दूसरी खबर : जांच के लिए पिता के पास कम थे 50 रुपये, नहीं हाे पाया इलाज, मर गया मासूम.
  • तीसरी खबर : एमजीएम में 30 दिनाें में 60 बच्चे कुपाेषण से मरे.

ये तीनाें खबरें झारखंड में स्वास्थ्य सुविधाओं और सरकारी संस्थानों में मानवीय संवेदना की पाेल खाेलती हैं. राज्य सरकार हर साल कराेड़ाें रुपये खर्च करती है, दर्जनाें सरकारी याेजनाएं चलाती हैं, लेकिन नतीजा? आपके सामने है. किसी की माैत हाे जाये आैर एंबुलेंस नहीं मिले. कंधे पर या साइकिल पर अपने बच्चाें के शव काे लेकर घर जायें, इससे बड़ा दुर्भाग्य आैर क्या हाे सकता है.

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सरकारी अस्पताल हैं ही इसलिए, ताकि गरीब वहां इलाज करा सकें. उनकी जान बच सके. अगर उनके पास पैसा हाेता, ताे वे उन बड़े अस्पतालाें में नहीं जाते, जहां जनता के टैक्स के पैसों पर पलनेवाले अफसर-नेता और उनके परिजन इलाज कराते हैं. या धनकुबेर और उनके परिजन इलाज कराने जाते हैं.

गरीब के पैसे कम पड़ गये, जांच नहीं हुई आैर चली गयी जान. ये ताे चंद मामले हैं. हजाराें मामले दब जा रहे हैं. राज्य की छाेटी-छाेटी जगहाें के मामले ताे बाहर आते ही नहीं. सुविधाएं हैं नहीं, अस्पतालाें में डॉक्टर बैठते नहीं, काेई सीनियर अफसर पूछनेवाला नहीं. मुख्यमंत्री के आदेश तक की परवाह ये नहीं करते. जब तक सिस्टम काम नहीं करेगा, कड़ाई नहीं हाेगी, हालात ऐसे ही रहेंगे, बल्कि आैर बिगड़ेंगे.

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जमशेदपुर में एमजीएम अस्पताल है. 30 दिन में 60 बच्चाें की माैत हो गयी. ये आंकड़े सरकार के हैं. उसी एमजीएम में मई से अगस्त तक का आंकड़ा बताता है कि इन चार माह में 164 बच्चाें की माैत हुई है. फिर भी काेई चर्चा नहीं.

ठीक है, अस्पताल है. इलाज के लिए लाेग आते हैं. कुछ की माैत हाे सकती है, लेकिन इतनी बड़ी संख्या में माैत, लगभग गाेरखपुरवाली स्थिति. क्याें आैर कैसे मरे ये बच्चे? इनमें से अधिकतर बच्चे एक साल से कम उम्र के थे. दुनिया ठीक से देखने के पहले ही ये बच्चे चल बसे.

दाे साल पहले एक आंकड़ा आया था. झारखंड में हर साल 45 हजार बच्चाें (पांच साल से कम उम्र) की माैत हाे जाती है. हाइकाेर्ट ने इस पर संज्ञान लिया था. आज भी हालात में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ.

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गर्भवती माताआें के लिए सरकार ने कई सुविधा देने की घाेषणा की है. फिर भी बच्चे कुपाेषण का शिकार हाे रहे हैं. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपाेर्ट जारी हाे चुकी है. झारखंड का हाल बहुत बुरा है. 47 फीसदी से ज्यादा बच्चे कुपाेषण के शिकार हैं. कहां जा रहा है सरकार का पैसा, बच्चाें आैर माताआें तक पहुंच रहा है या नहीं?

हालात देखिए. वर्ष 2005-06 के सर्वे के दाैरान पाया गया था कि झारखंड में छह माह से पांच साल के बीच के 70.3 फीसदी बच्चाें में खून की कमी है. कराेड़ाें रुपये खर्च करने के बाद 2015-16 का आंकड़ा देखिए. एनिमिक बच्चे हैं 69.9 फीसदी. यानी 10 साल में यह विभाग सिर्फ 0.4 फीसदी ही सुधार कर सका. या ताे सरकारी आंकड़े गलत हैं या विभाग अक्षम है. जिस राज्य में पांच साल से कम उम्र के 69.9 फीसदी बच्चे एनिमिक (खून की कमी) हाेंगे, वहां ऐसी मौतें तो होंगी ही.

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इतने बड़े मुद्दे पर विधानसभा में कभी काेई चर्चा नहीं हाेती. काेई पूछताछ नहीं हाेती कि स्वास्थ्य के अफसर-कर्मचारी कर क्या रहे हैं? जिस विभाग में कराेड़ाें रुपये वेतन पर खर्च हाेते हैं, वहां काम नहीं हाे, ताे ऐसे विभाग का रहना या नहीं रहना बराबर ही है. सिर्फ बच्चाें की बात नहीं है. गर्भवती माता खुद एनिमिक हैं. 2005-06 में 68.5 फीसदी गर्भवती माताएं एनिमिक थीं.

दस साल बाद यानी 2015-16 (एनएफएचएफ सर्वे) में भी यह आंकड़ा मामूली घट कर 62.6 फीसदी पर आया. इतना धीमा सुधार हाेगा, ताे 50 साल बाद भी झारखंड की गर्भवती माताआें आैर बच्चाें के हालात नहीं सुधरेंगे.

अब समय आ गया है जमीनी हकीकत जान कर कार्रवाई करने का. सरकार पैसा खर्च कर रही है, लेकिन, हालात नहीं सुधर रहे. काैन खा जा रहा है पैसा या पैसा क्याें नहीं सही जगह पर पहुंच रहा है. कैसे अस्पतालाें के हालात सुधरेंगे. अगर सरकार ठान ले, ताे स्थिति सुधरेगी ही.

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देखिए, रांची में सदर अस्पताल कई सालाें से बन कर पड़ा था. अब वहां काम हाे रहा है आैर बेहतर तरीके से. गरीब महिलाएं वहां जा रही हैं आैर बेहतर इलाज भी हाे रहा है. ऐसी ही व्यवस्था सभी जिलाें में रिम्स में, एमजीएम में करनी हाेगी. एक भी बच्चे की माैत कुपाेषण से हाेना, एक भी गर्भवती माता की माैत इलाज के अभाव में हाेना या कुपाेषण-खून की कमी हाे से हाेना शर्मनाक है.

अफसर अपनी जिम्मेवारी समझें. जमशेदपुर के एमजीएम में हुई माैत इसलिए आैर चिंता की बात है, क्याेंकि पूर्वी सिंहभूम काे झारखंड के अन्य जिलाें की तुलना में बेहतर जिला माना जाता है. अगर वहां ये हालात हैं, ताे राज्य के अन्य जिलाें में कैसे हाेंगे, यह समझा जा सकता है.

सरकार उन गरीब महिलाआें की पीड़ा काे समझे, जिनके बच्चे की कुपाेषण-इलाज के अभाव में माैत हुई है आैर इसका स्थायी समाधान निकालने की दिशा में बढ़े. यह समझा जा सकता है कि चीजें इतनी बिगड़ी हुई हैं कि राताेरात काेई बड़ा बदलाव नहीं हाे सकता है, लेकिन सुधार की दिशा में प्रयास ताे हाे सकता है. अगर सही प्रयास हाे, ताे अच्छे नतीजे आयेंगे ही.

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