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नज़रिया: ”यादव के घर अमित शाह का भोजन एक दवा है, क्या पता काम कर जाए”

भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने लखनऊ में एक यादव कार्यकर्ता सोनू के घर महुए की पत्तल पर खाना खाया. वे अपने साथ यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और कई मंत्रियों को भी ले गए थे ताकि लगे कि सरकार एक यादव के घर जीमने आई है. उन्होंने कार्यकर्ता के घर के छज्जे पर खड़े होकर […]

भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने लखनऊ में एक यादव कार्यकर्ता सोनू के घर महुए की पत्तल पर खाना खाया. वे अपने साथ यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और कई मंत्रियों को भी ले गए थे ताकि लगे कि सरकार एक यादव के घर जीमने आई है. उन्होंने कार्यकर्ता के घर के छज्जे पर खड़े होकर "विक्ट्री साइन" बनाकर नीचे खड़े धक्कामुक्की करते फोटोग्राफरों को दिखाया मानो उन्होंने कुछ फ़तह कर लिया हो.

अचानक निम्न मध्यवर्गीय इलाके जुगौली में बना वह छोटा सा छज्जा कुश्ती के रिंग जैसा दिखाई देने लगा और अमित शाह विजेता पहलवान, जो मानो कह रहे हों- हम जहां जीमते हैं वहां वोटो की फ़सल लहराने लगती है!

अमित शाह 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगे हैं जिसमें वे पहले से बड़ी जीत हासिल कर नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं. उनकी नजर यूपी के बारह प्रतिशत यादव वोटरों पर है जो विधानसभा चुनाव में भाजपा के हाथों, कलहग्रस्त समाजवादी पार्टी की सूपड़ा साफ हार के बाद हतोत्साहित है.

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यादव क्यों महत्वपूर्ण?

यादवों के सबसे बड़े नेता रहे मुलायम सिंह यादव सीबीआई के डर से कथित तौर पर भाजपा के आगे घुटने टेक चुके हैं. सपा के वर्तमान मुखिया अखिलेश यादव औसत से ख़राब प्रदर्शन कर रही भाजपा सरकार के आगे दमदार विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं. स्वाभाविक है कि भाजपा सत्ता के तामझाम के साथ यादवों को रिझाने की कोशिश करे जैसा कि वह अन्य जातियों के साथ भी कर रही है.

सारी स्थितियां भाजपा के अनुकूल हैं, लेकिन ‘वोटबैंक की भोजन राजनीति’ का भी एक लंबा अतीत है जिसकी रोशनी में अमित शाह की विजय मुद्रा बेमेल लगती है. अछूत दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने और उनके साथ रोटी-बेटी का संबध बनाने के लिए गांधीवादियों, समाजवादियों ने इसे शुरू किया था. बाद में यह अवसरवादी चुनावी राजनीति के ढोंग में बदल गया जिसके तहत सवर्ण नेता दलितों को अपने साथ खाने की पंगत में बिठाकर उन्हें धन्य करने लगे.

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यादव दलित नहीं

यादव न अछूत हैं न दलित, उन्होंने दलितों जैसी सामाजिक प्रताड़ना भी नहीं झेली है जो भाजपा के बनिया, ठाकुर, ब्राह्मण नेताओं के साथ बैठकर खा लेने से उनका हृदय परिवर्तन हो जाएगा. वे इस सस्ती राजनीति से चौकन्ने जरूर हो सकते हैं कि उन्हें क्या समझा जा रहा है? एक यादव कार्यकर्ता के घर अमित शाह ने पत्तल पर भोजन क्यों किया थाली में क्यों नहीं और इस पर विजयोल्लास जाहिर करने का कारण क्या है?

भाजपा और आरएसएस मिलकर पचीस सालों से भोजन राजनीति के तहत हर साल 14 जनवरी को खिचड़ी के दिन यूपी की दलित बस्तियों में समरसता भोज का आयोजन करते रहे हैं, लेकिन दलित उनके साथ नहीं आए. दलितों के एक हिस्से ने पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को वोट दिया तो उसका कारण भोज नहीं, बसपा में फूट, मायावती से मोहभंग और सत्ता में हिस्सेदारी की संभावना थी. अगर सिर्फ़ भोजन जैसे तरीकों से ही काम चल जाता तो भाजपा को एक दलित रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाने और इसे पूरी ताकत झोंक कर प्रचारित करने की जरूरत नहीं पड़ती.

इन दिनों लगातार जीत, मीडिया में गुणगान और नीतिश कुमार जैसे विरोधियों के भी झोली में टपक पड़ने से भाजपा आत्मविश्वास से लबरेज़ है. अमित शाह समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं सावधान! आपकी सत्ता गई. हम यादवों को भी छीन लेंगे तब आपके पास कुछ नहीं बचेगा.

दिलचस्प यह है कि भाजपा जाति की राजनीति नहीं करती. उसके लिए मुलायम, मायावती, लालू वगैरह जातिवादी हैं. विचित्र विरोधाभास है कि राष्ट्रवाद का जाप करते हुए 2019 के मिशन पर निकले अमित शाह सिर्फ यादवों ही नहीं वोटबैंक के नज़रिए से महत्वपूर्ण हर जाति को चुग्गा डाल रहे हैं. इसका नतीजा यह हुआ है कि भाजपा में मूल कैडर से अधिक बाहरी नेता हो गए हैं और पार्टी लगभग कांग्रेस में बदल चुकी है जिसका एकमात्र मकसद अब सत्ता को स्थायी बनाना रह गया है.

जातियों को पटाने के लिए हर तरह के टोटके आज़माए जा रहे हैं इनमें से भोजन भी एक है. यह कुछ ऐसा ही है जैसे झोला छाप डाक्टर कई चिकित्सा पद्धतियों की दवाइयां मरीज को एक साथ देते हैं कि इनमें से कोई न कोई तो काम कर ही जाएगी.

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